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चोर, लुटेर या ठग, पुरखों के ज़माने से लगे दाग़ को कैसे धोएँ कातकरी

महाराष्ट्र के पालघर ज़िले की डहाणू तहसील का यह धुंडलावाड़ी गाँव में ही मुंबईपाड़ा है. इस पाड़े या मोहल्ले का नाम मुंबईपाड़ा क्यों कर पड़ गया, यह तो यहाँ के रहने वाले भी नहीं जानते हैं.

मुंबईपाड़ा गाँव की चौहद्दी के बाहर बसा है और यहाँ कातकरी आदिवासी समुदाय के लोग रहते हैं. कातकरी उन 75 आदिवासी समुदायों में से एक है जिन्हें आदि आदिम जनजाति यानि पीवीटीजी कहा जाता है.

इस समुदाय का कातकरी नाम पड़ने के पीछे की वजह जीविका के लिए इनके काम को बताया जाता है. दरअसल कातकरी जंगल में पेड़ों से कत्था जमा करने वाले लोग हैं. हालाँकि अब वन विभाग के ऐसे क़ानून हैं कि इस समुदाय के लोगों का यह काम कब का छूट चुका है.

लेकिन कातकरी समुदाय को ना तो पीवीटीजी यानि आदिम जनजाति या विशेष रूप से पिछड़ी जनजाति के तौर पर पहचाना जाता है और ना ही कत्था जमा करने वाले आदिवासियों के तौर पर इनकी पहचान है.

इनके साथ एक ऐसी पहचान चिपक गई है, जिससे ये आदिवासी समुदाय दशकों बाद भी पीछा नहीं छुड़ा पा रहा है. यह पहचान इन्हें अंग्रेजों ने दी थी. अंग्रेजों ने इस आदिवासी समुदाय को बाक़ायदा क़ानूनी तौर पर एक अपराधी प्रवृत्ति के लोगों का समुदाय घोषित किया था.

आज़ादी के बाद जब देश में संविधान लागू हुआ तो कातकरी और कई और समुदायों को जिन्हें बाक़ायदा लूट-मार करने वाले समुदायों के तौर पर चिन्हित किया गया था, डिनोटिफाई कर दिया गया.

लेकिन ज़्यादातर डिनोटिफाइड ट्राइब्स की तरह ही कातकरी के साथ भी लूट-मार और चोरी करने वालों की पहचान चिपक गई है. इस stigma ने इस समुदाय को अभी तक बाक़ी समुदायों से ना सिर्फ़ अलग-अलग रखा है बल्कि एक आज़ाद मुल्क में सम्मान के साथ जीने के न्यूनतम हक़ से भी महरूम किया है.  

मुंबई पाड़ा के कातकरी समुदाय की पूरी कहानी यहाँ पर देखें

कातकारी ग़रीबी के मारे हैं और इस भँवर में ऐसे फँसे हैं कि उनका निकलना बेहद मुश्किल नज़र आता है. उनके इन हालातों को समझने के लिए उनकी ज़िंदगी के अलग अलग मसलों की कड़ियों को जोड़ कर देखना होगा.

बल्कि यह कड़ियाँ जुड़ी हुई हैं. मसलन जहां वो रहते हैं उसके आस-पास उन्हें कोई रोज़गार नहीं मिलता है. जंगल से वन विभाग और प्रशासन ने कत्था जमा करने पर पाबंदी लगा दी है. इसलिए मज़दूरी की तलाश में बाहर जाना पड़ता है.

कोयला भट्टियों, ईंट भट्टों, भवन निर्माण में बेलदारी जैसे काम के लिए साल के कम से कम 6 महीने घर से बाहर रहते हैं. इसलिए बच्चों को पढ़ा नहीं पाते हैं. शिक्षा की कमी है तो एक नागरिक के तौर पर सम्मान से जीने का हक़ या फिर अपने दूसरे क़ानूनी हक़ों के प्रति जागरूकता नहीं है. 

एक वक़्त में जंगल की खानाबदोश जनजाति अब एक जगह पर बस गई है. लेकिन स्थाई बस्तियों में आने के बाद उनकी ज़िंदगी भी ठहर ही गई है. कातकरी को मुख्यधारा में शामिल करना दो दूर की बात है.

आदिवासी समुदायों में भी उनको सम्मान मिल सके यह भी संभव नहीं हो पाया है. यह समुदाय ना सिर्फ़ मुख्यधारा कहे जाने वाले समाज से दुत्कार खाता है बल्कि बड़े आदिवासी समुदाय भी उन्हें हिक़ारत की नज़र से देखते हैं.

मुख्यधारा के नज़दीक आ चुके आदिवासी समुदाय उन्हें चूहे या जंगली घूस खाने वाले समुदाय के तौर पर पहचानते हैं.

सरकार की प्रयासों की बात करें तो उसने इनके ज़िंदा रहने का इंतज़ाम यानि फ़्री राशन का इंतज़ाम कर दिया है. लेकिन ज़िंदा भर रहने का इंतज़ाम ही किया गया है. इस भूमिहीन समुदाय के पास जीने का एक ही उपाय है दिहाड़ी मज़दूरी. 

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