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शालिमार बाज़ार: एक हाट में फैला आदिवासी ज्ञान

भारत के दूर-दराज़ के आदिवासी इलाकों में साप्ताहिक हाट सामाजिक मेल-मिलाप, ख़रीदारी और मनोरंजन का स्थान होता है. इन हाटों में आप उस इलाके की भाषा और बनावट दोनों को भी समझ सकते हैं.

मसलन जब लोग आपस में मिलते हैं तो कैसे वो एक दूसरे का अभिवादन करते हैं. अक्सर आप पाएंगे कि इन हाटों में जब अलग अलग आदिवासी समुदायों के लोग मिलते हैं, तो वे एक मिश्रिति भाषा का इस्तेमाल करते हैं.

इन हाटों में एक नई भाषा का निर्माण होता जाता है. इन बाज़ारों में आने वाले व्यापारी और दुकानदार भी स्थानीय लहज़े और शब्दों को पकड़ लेते हैं. ये दुकानदार और व्यापारी स्थानीय भाषा सीख लेते हैं जिससे वो इन हाटों में बेहतर धंधा कर सकें.

इसके अलावा इन हाटों में आपको आदिवासियों के प्रकृति ज्ञान का भी अहसास होता है. प्रकृति ज्ञान कहने से मतलब ये है कि आदिवासी जंगल को बहुत बेहतर तरीके से समझता है.

उसे पता है कि जंगल में किस मौसम में कौन सा फल, पत्ते, जड़ी-बूटी या कांदे मिल सकते हैं. जंगल में जिस क्रम में ये सब उगता या फलता है उसी क्रम में आदिवासी की दिनचर्या तय होती है.

मसलन महुआ जिस मौसम में टपकता है, उस। मौसम में अगर आप किसी आदिवासी गाँव में जाएँगे तो आपको इक्का-दुक्का लोग ही घर पर मिलेंगे. क्योंकि बाकी सब लोग महुआ बीनने चले जाते हैं.

आदिवासी हाट बाज़ार में आदिवासी जंगल से जमा किये गये फल, पत्ते और कांदे ले कर पहुंचते हैं. इन हाटों में आकर आप जंगल से मिलने वाले उत्पाद और इन उत्पादों का आदिवासी जीवन में महत्व दोनों को ही समझ सकते हैं.

हाल ही में मैं भी भारत की टीम झारखंड में थी. यहां हमारा पहला पड़ाव रांची था. हमें पता चला की जिस दिन हम रांची में थे उसी दिन वहां पर शालीमार बाज़ार नाम का हाट लगा है जहां आस-पास के आदिवासी पहुंचते हैं.

हम भला यह अवसर कैसे छोड़ सकते थे. हम इस बाज़ार पहुंच गए, इस बार जाने माने लेखक और साहित्य अकादमी के सदस्य महादेव टोप्पो भी हमारे साथ थे.

आप इस बाज़ार में हमारे अनुभव को महसूस कर सकते हैं. इसके लिए आप उपर दिए गए वीडियो के लिंक पर क्लिक करें.

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