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भूख, कुपोषण और जीविका के साधन पर काम के बिना पीवीटीजी को बचाना मुश्किल है

भारत में 75 सूचीबद्ध पीवीटीजी हैं, जिनमें सबसे अधिक संख्या ओडिशा में पाई जाती है. ओडिशा में 13 पीवीटीजी हैं, जिनकी आबादी 2 लाख 40 हजार है जो 11 जिलों में फैली है.

इन आदिवासी समुदायों में से अधिकांश की जनसंख्या में या तो स्थिरता है या फिर उनकी जनसंख्या में कमी आ रही है.

हांलाकि इनकी सही सही जनसंख्या क्या है यह किसी राज्य सरकार या केंद्र सरकार को भी पता नहीं है. इस सिलसिले में केंद्र सरकार संसद में यह बात कह चुकी है कि पीवीटीजी की अलग से गिनती नहीं की जाती है.

पीवीटीजी समुदायों की घटती जनसंख्या के ख़तरे निपटने की दिशा में ओडिशा में एक नई पहल की गई थी. 2019 में राज्य सरकार ने युनिसेफ के साथ मिल कर जीबन संपर्क परियोजना शुरू की थी.

अब दावा किया जा रहा है कि इस परियोजना के बेहतर परिणाम सामने आ रहे हैं. इस सिलसिले में एक पत्रिका डाउन टू अर्थ में छपी एक रिपोर्ट में एक केस स्टडी का ज़िक्र किया गया है.

इस केस स्टडी के अनुसार अमिता सिकाका की उम्र करीब 21 साल थी जब वह पहली बार गर्भवती हुई थी. तब वह खून की कमी और कम वजन से परेशान थी. अमिता का वज़न बामुश्किल 35 किलो था. गर्भ के दौरान उसको बार-बार मिचली और कमजोरी महसूस होती थी.

लेकिन इसके बाद के महीनों में अमिता के वजन और पोषण संबंधी मापदंडों पर लगातार नजर रखी गई. उसे हर दिन गर्म, स्वस्थ आहार दिया गया और उसके हेल्थ पैरामीटर में लगातार सुधार हुआ. फरवरी में उसने एक स्वस्थ बच्चे को जन्म दिया.

अमिता डोंगरिया कोंध जनजाति से ताल्लुक रखती हैं, जो एक विशेष रूप से कमजोर आदिवासी समूह (PVTG) है. ओडिशा में पीवीटीजी अपनी खराब स्थिति जैसे कि साक्षरता का बहुत कम स्तर, स्थानिक मलेरिया से उच्च मातृ और शिशु मृत्यु दर के साथ-साथ खराब पोषण संबंधी परेशानियों के लिए जाने जाते हैं.

इन आदिवासियों की इस ख़राब हालत के लिए रोज़गार के स्थाई साधन की कमी और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और उप-केंद्रों तक पहुंच नहीं होना हो सकता है. 

क्योंकि खराब पोषण की स्थिति पीवीटीजी के लिए चिंता का विषय बनी हुई है इसलिए राज्य का जीवन संपर्क (Jiban Sampark) पोषण कार्यक्रम सुधार लाने की कोशिश कर रहा है.

अमिता की तरह आज पीवीटीजी गांवों में कई गर्भवती और स्तनपान कराने वाली माताओं की निगरानी की जा रही है और उन्हें उनके पोषण संबंधी मापदंडों को बनाए रखने के लिए एक समय का भोजन दिया जा रहा है.

राज्य सरकार ने ओडिशा पीवीटीजी सशक्तिकरण और आजीविका सुधार कार्यक्रम (Odisha PVTG Empowerment and Livelihoods Improvement Programme) के तहत ओडिशा पीवीटीजी पोषण सुधार कार्यक्रम (Odisha PVTG Nutritional Improvement Programme) नामक एक पहल भी शुरू की है.

ओपीएनआईपी शुरूआती फेज में तीन जिलों- मलकानागिरी, रायगढ़ा और कालाहांडी में शुरू किया गया था और फिर बाद में नौ अन्य जिलों में शुरू किया गया.

ओपीएनआईपी के तहत किए गई प्रमुख तीन पहल में से एक 6 महीने से 3 साल की उम्र के बच्चों के लिए समुदाय आधारित क्रेच, दूसरा 3 से 6 साल की उम्र के बच्चों के लिए स्पॉट फीडिंग सेंटर और तीसरा गर्भवती और स्तनपान कराने वाली माताओं के लिए मैटरनल स्पॉट फीडिंग सेंटर है.

पीवीटीजी की सेहत सब से बड़ी चिंता

पीवीटीजी के लिए कोई विशेष राष्ट्रीय स्वास्थ्य डेटा नहीं है लेकिन एशियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक हेल्थ और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अनुसंधान और प्रशिक्षण संस्थान (SCSTRTI) द्वारा 2015 में किए गए एक अध्ययन से इन समुदायों के बारे में कुछ कुछ बाते पता ज़रूरी चल जाती हैं.

इस स्टडी में पाया गया था कि पांच वर्ष से कम आयु वालों में 32 प्रतिशत बच्चों का कद औसत से कम था. 35 प्रतिशत वजन औसत से काफी कम था. इसके अलावा 18 प्रतिशत गंभीर रूप से कमजोर थे. पांच वर्ष से कम आयु वर्ग के लगभग 34.9 प्रतिशत गंभीर रूप से कुपोषित थे और 21.2 प्रतिशत मामूली कुपोषित थे.

जन्म के समय तौले गए हर तीसरे बच्चे का जन्म के समय वजन कम था. प्रजनन आयु की महिलाओं में 38 प्रतिशत का वजन कम था और 54 प्रतिशत एनीमिया से पीड़ित पाई गईं. एनीमिया से पीड़ित मां शिशु के अस्तित्व के लिए एक बहुत बड़ा जोखिम है.

पीवीटीजी समूहों के साथ 40 से अधिक वर्षों से काम कर रहे एक सामाजिक कार्यकर्ता एसएन पाढ़ी ने कहा कि समुदाय कई स्वास्थ्य मापदंडों पर राष्ट्रीय औसत से पीछे है. इनमें महिलाएं और बच्चे सबसे कमजोर हैं. लेकिन हमें यह भी समझना होगा कि खराब स्वास्थ्य के पीछे शिक्षा, रोजगार और वित्तीय सुरक्षा की कमी जैसे कई फैक्टर शामिल है.

भोजन की खाई को पहचानना और उसे पाटना

पीवीटीजी के बीच आहार ऊर्जा और प्रोटीन की मात्रा बहुत अधिक कम है. अध्ययनों ने इस तथ्य को दोहराया है कि भोजन का अंतर बना हुआ है. कई तरह के पोषक तत्वों का सेवन, विशेष रूप से आयरन, विटामिन ए, राइबोफ्लेविन और फोलिक एसिड का सेवन पूरी तरह से अपर्याप्त पाया गया.

यह देखते हुए कि माताओं की खराब पोषण स्थिति बच्चों को बीमारियों और मृत्यु दर के उच्च जोखिम में डालती है, ओपीएनआईपी गर्भवती और स्तनपान कराने वाली माताओं को पूरक पोषण कार्यक्रम के माध्यम से गर्भावस्था के पंजीकरण से लेकर विशेष रूप से स्तनपान कराने तक की अवधि के लिए एक गर्म पका हुआ भोजन उपलब्ध कराता है.

प्रशासन का दावा है कि फिलहाल लगभग 900 गर्भवती महिलाओं और नर्सिंग माताओं को पीवीटीजी गांवों में ओपीएनआईपी के तहत 119 मैटरनल स्पॉट फीडिंग सेंटर पर भोजन मिल रहा है. और इस पहल ने परिणाम दिखाए हैं.

दुरबी किरसानी (बदला हुआ नाम) को अपने तीन बच्चों के जन्म के बाद दो गर्भपात और प्रसव के बाद की मुश्किलों का सामना करना पड़ा था. मलकानगिरी जिले के पडीगुडा गांव में बोंडा जनजाति  की दुरबी को एनीमिया था और उसका वजन कम था.

दुरबी ने कहा, “मैं इंस्टीट्यूशनल डिलीवरी के लिए कभी अस्पताल नहीं गई. मेरी सारी डिलीवरी घर पर हुई. प्रसव के बाद भी कोई इंस्टीट्यूशनल देखभाल नहीं हुई. मैं हमेशा अपने बच्चों के लिए डरती थी क्योंकि वे दुबले-पतले और कम वजन के थे.”

पिछले साल अगस्त में दुरबी को स्पॉट फीडिंग सेंटर में नामांकित किया गया और रोजाना भोजन और आयरन की गोलियां दी गईं. दुरबी ने कहा कि वे आमतौर पर घर में खाने के लिए सिर्फ रागी या उबले हुए चावल ही खाती हैं.  उनके बच्चे भी वही खाते हैं. हालांकि, सेंटर ने दाल, सब्जियों और साबुत अनाज के साथ अतिरिक्त पूरक आहार प्रदान करता है.

इसी तरह 3 से 6 वर्ष की आयु के पीवीटीजी बच्चों के लिए 105 स्पॉट-फीडिंग केंद्र हफ्ते में छह दिन लगभग 1,100 बच्चों को गर्म पका हुआ भोजन उपलब्ध कराते हैं. OPELIP के एक अधिकारी ने कहा, “क्योंकि इन पहाड़ी, आदिवासी क्षेत्रों के छोटे बच्चे भौगोलिक दुर्गमता के कारण आंगनवाड़ी केंद्रों में नियमित रूप से आने-जाने में सक्षम नहीं होते हैं. इसलिए उन्हें गांव में उनके आवास के ही एकीकृत बाल विकास सेवाओं के तहत निर्धारित सुबह के नाश्ते और गर्म पके भोजन के पूरक पोषण की पात्रता प्रदान की जाती है.”

न्यूट्रिशन कोऑर्डिनेटर नमिता साहू ने कहा कि हमने देखा था कि टेक-होम राशन के साथ इस बात की कोई निगरानी नहीं थी कि माँ क्या खाएगी और बच्चा क्या खाएगा. लेकिन स्पॉट फीडिंग सेंटर इस अंतर को दूर करते हैं.

जनजातीय समूहों के साथ काम करने वाले विशेषज्ञों का मानना है कि यह एक अच्छी पहल है लेकिन यह पीवीटीजी में बच्चों और औरतों को मिलने वाले भोजन के अंतर को पाटने के मुद्दे को संबोधित नहीं कर सकती है.  लेकिन यह पहल पोषण संबंधी अंतर को पाटने की प्रक्रिया में ब्रिज का काम कर सकती है.

SCSTRTI के पूर्व निदेशक एबी ओटा ने कहा, “पीवीटीजी की ज्यादातर बस्तियाँ अगम्य क्षेत्रों (जहां पहुंचना बेहद मुश्किल हो) में स्थित हैं. ये बस्तियाँ भी बिखरी हुई हैं और यहाँ सिर्फ 10 से 15 घरों वाले गाँव हैं. ऐसी जगह पर आंगनवाड़ी केंद्र स्थापित करना संभव नहीं है.”

ओटा ने कहा कि बच्चों के लिए बांटा गया राशन/भोजन आम तौर पर परिवार के भोजन में नहीं मिलता है क्योंकि पूरा परिवार खाद्य असुरक्षित है. इस तरह पीवीटीजी बच्चों के पोषण अंतर को पाटने के लिए क्रेच और स्पॉट फीडिंग केंद्र स्थापित करना जरूरी है.

प्रारंभिक बाल देखभाल

जन्म के बाद के शुरुआती वर्षों विशेष रूप से पहले पांच वर्ष, पांच वर्ष से कम उम्र के किसी भी बच्चे के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है. जिसमें बढ़िया पोषण स्वस्थ विकास को बढ़ावा देता है और ज्ञान संबंधी विकास में सुधार करता है.

कंधमाल जिले के बेलघर ब्लॉक के देवगड़ा गांव में संजुली मांझी जंगल में लघु वन उपज इकट्ठा करने से पहले तीन बच्चों को क्रेच में छोड़ जाती हैं.

बेलघर कुटिया नाम की बस्ती में कोंध पीवीटीजी जनजाति के लोग रहते हैं. इस तरह की बस्तियों में क्रेच सुविधा न सिर्फ बच्चों पोषण सुधार की ज़रूरत को पूरा करती है, बल्कि छोटे बच्चों को एक सुरक्षित माहौल भी देती है. इन बस्तियों में अक्सर  माता-पिता के साथ बच्चे जंगलों में चले जाते जहां उन्हें कीड़े या सांप के काटने का खतरा रहता है.

यहां की संजुली नाम की महिला के तीन साल, दो साल और आठ महीने के बच्चों का वजन कम था. उन्होंने कहा कि जब उन्हें सेंटर में नामांकित किया गया था तो उन्हें बताया गया कि वे रेड जोन में हैं. अब वे ग्रीन जोन में हैं और उनकी सेहत में काफी सुधार हुआ है.

6 महीने से 3 साल की उम्र के छोटे बच्चों के लिए सेंटर पर बच्चों को तीन वक्त का भोजन, प्रशिक्षित क्रेच श्रमिकों की देखरेख और ध्यान मिलता है, जो पीवीटीजी स्वयं सहायता समूह से चुने गए सदस्य हैं.

बेलघर में न्यूट्रिशन मैनेजर, जशोदा बदनयाले ने कहा कि क्रेच हफ्ते में छह दिनों के लिए 7 से 8 घंटे काम करते हैं और कैलोरी और प्रोटीन से भरपूर खाद्य पदार्थों पर ध्यान देने के साथ दो स्नैक्स और एक गर्म पका हुआ भोजन देते हैं. लगभग 60 से 70 प्रतिशत कैलोरी और 75 से 100 प्रतिशत प्रोटीन की आवश्यकता का ध्यान रखा जाता है.

कार्यक्रम के मुताबिक, चयनित गांवों के बच्चों को कई तकनीकी तरीके के माध्यम से कुपोषण के लिए स्कैन किया जाता है और गंभीर तीव्र कुपोषण से पीड़ित पाए जाने वालों की पहचान की जाती है और रोगनिवारक भोजन और तकनीकी सहायता के साथ इलाज किया जाता है.

बच्चों के पोषण की स्थिति का मूल्यांकन और आकलन करने के लिए मासिक लॉग और ग्रोथ चार्ट बनाए रखा जाता है. परिवर्तनों का आकलन करने की प्रक्रिया के रूप में मिड-अपर आर्म की परिधि और वजन हर महीने सभी बच्चों के लिए मापा जाता है, जबकि हाइट हर चार महीने में मापी जाती है.

सभी बच्चों के लिए एक सामुदायिक विकास चार्ट बनाए रखा जाता है, जिसमें सभी सुधारों को हरे रंग में चिह्नित किया जाता है. जिन्हें अभी भी में देखभाल की आवश्यकता होती है पीले रंग और जिन बच्चों को ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता होती है उन्हें लाल रंग से चिह्नित किया जाता है.

अप्रैल 2022 से तीन साल से कम उम्र के बच्चों के लिए 61 क्रेच को चालू कर दिया गया है, जिसमें तीन साल से कम उम्र के लगभग 1,000 बच्चों की देखभाल की जा रही है. इसके अलावा 46 नए मैटरनल स्पॉट फीडिंग सेंटर सह क्रेच तैयार किए जा रहे हैं और जल्द ही स्थापित किए जाएंगे.

योजनाओं के लिए पैसे और निगरानी एक चुनौती

ओडिशा में पोषण बजट का हिस्सा राज्य के कुल बजट का 20.05 प्रतिशत था, जबकि 2022-23 में यह सकल राज्य घरेलू उत्पाद का 5.03 प्रतिशत है. 2021-22 की तुलना में 2022-23 के लिए न्यूट्रिशन स्पेसिफिक कॉम्पोनेमशट्स में 5.61 प्रतिशत और न्यूट्रिशन सेंसिटिव कंपोनेंट्स में 28.46 प्रतिशत की वृद्धि हुई है.

ओपीएनआईपी के लिए 2020-21 में पोषण बजट 6.37 करोड़ रुपये था, जो 2021-22 में घटकर 3.3 करोड़ रुपये हो गया. लेकिन 2022-23 के लिए इसे फिर से संशोधित कर 7 करोड़ रुपये कर दिया गया है.

विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि सांस्कृतिक रूप से प्रासंगिक होने पर इस तरह के हस्तक्षेप बेहतर परिणाम दे सकते हैं. 

लेकिन किसी भी योजनाओं के लिए ख़र्च का इंतज़ाम और निगरानी दोनों ही बेहद ज़रूरी हैं. इन दोनों में से एक में भी कमी किसी भी योजना को असफल करने के लिए काफी है.

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