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यवतमाल की ‘कुमारी माताएं’: आदिवासी लड़कियों के शोषण का लंबा सिलसिला

‘कुमारी माताओं’ की कहानी यवतमाल की आदिवासी लड़कियों पर यौन अत्याचार, शोषण, तिरस्कार और उपेक्षा की दास्तान है. ‘कुमारी माता’ यानि बिन ब्याही मां. 2009 में महाराष्ट्र के स्थानीय अख़बारों ने कुमारी माताओं का मामला रिपोर्ट किया. इसके बाद उसी साल राज्य के मानावधिकार आयोग ने इस मामले में जन सुनवाई की. फिर इस मुद्दे पर बहस शुरू हुई. स्थानीय मीडिया ने यवतमाल के आदिवासी इलाक़ों से रिपोर्ट किया कि यहां पर बड़ी तादाद में आदिवासी लड़िकयां हैं जिन्हें ‘कुमारी माता’ कहा जाता है. विदर्भ जन आंदोलन नाम के संगठन ने 2009 में ही रिपोर्ट किया कि यवतमाल में कम से कम 300 आदिवासी लड़कियां हैं जिन्हें कुमारी माता कहा जाता है.

दिसबंर 2013 में राष्ट्रीय महिला आयोग की एक सदस्य निर्मला सावंत ने यवतमाल के आदिवासी इलाक़े के झारी जमनी ब्लॉक का दौरा किया. इस ब्लॉक में इस तरह के मामलों की रिपोर्टिंग सबसे अधिक थी. कुल 300 मामलों में से 52 मामले इसी ब्लॉक से थे. निर्मला सावंत ने महाराष्ट्र सरकार से यवतमाल के 4 आदिवासी इलाक़ों में जांच कराने का आग्रह किया. ये 4 ब्लॉक थे झारी जमनी, वाणी, मरेगांव और पंढरकावड़ा. निर्मला सावंत ने राज्य सरकार से आग्रह किया कि कुमारी माताओं के मामलों की पुष्टि और पहचान के बाद उनके पुनर्वास पर काम होना चाहिए.

गोंड आदिवासियों में लड़कियों को अपना जीवनसाथी चुनने का अधिकार हासिल है

स्थानीय मीडिया और ग़ैर सरकारी संगठनों के दबाव में राज्य सरकार ने इस मामले की जांच शुरू कराई. पुलिस ने इस मामले की जांच मराठी अख़बार लोकसत्ता में छपी एक ख़बर से शुरू की. यह ख़बर मार्च 2014 में छपी थी. महाराष्ट्र के अतिरिक्त पुलिस कमिश्नर ने यवतमाल के एसपी को यह आदेश दिया कि वो इन मामलों की जांच और पुष्टि करें, और साथ ही इस तरह के अपराधों से निपटने के बारे में एक रिपोर्ट मुख्यमंत्री को भेजें. इस जांच के शुरू होते ही यवतमाल में महिला और बाल कल्याण अधिकारी ने रिपोर्ट किया कि यवतमाल में कुल 87 कुमारी माताएं हैं. इनमें से 39 झरी जमनी, 33 पंढरकावड़ा में, 9 मरेगांव में और 6 वाणी ब्लॉक में थीं. इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि इन 87 कुमारी माताओं में से 39 की शादी हो चुकी थी.

इसके बाद 2015 में महिला और बाल कल्याण अधिकारी ने कुल 157 कुमारी माताओं के बारे में रिपोर्ट किया. इस रिपोर्ट के अनुसार कोलम और गोंड दो आदिवासी समूहों में सबसे अधिक मामले थे. कुल 157 मामलों में से कोलम में 77 और गोंड समुदाय में 44 मामले पाए गए.

2015 की इस सरकारी रिपोर्ट में इन आदिवासी कुमारी माताओं में 5 लड़कियां ऐसी थीं जिनकी उम्र 18 साल से कम थी. इसके अलावा 100 लड़कियां 18 से 30 साल की उम्र की थीं. इसके अलावा इस रिपोर्ट में जो महत्वपूर्ण तथ्य थे उसमें इन लड़कियों कि आर्थिक पृष्ठभूमि की जानकारी थी. इस रिपोर्ट के अनुसार इन कुल 157 लड़कियों में से 151 ऐसे परिवार से थीं जो भूमिहीन थे. 82 परिवार ग़रीबी रेखा के नीचे जी रहे थे, और इनमें से 68 परिवार ऐसे थे जिनके पास राशन कार्ड तक नहीं था. कुल मिलाकर इन सभी लड़कियों के बारे में एक बात समान थी कि इनमें से 95 प्रतिशत लड़कियां बेहद ग़रीब परिवारों से आती थीं.

यवतमाल के आदिवासी इलाक़ों से सरकारी एंजेसी कुमारी माताओं की जो संख्या बताती हैं और जो संख्या मीडिया में रिपोर्ट हुई है या ग़ैर सरकारी संगठन जो दावा करते हैं उसमें भारी अंतर है. मसलन राष्ट्रीय महिला आयोग ने ही 2010 में यवतमाल में कम से कम इस तरह के मामलों की संख्या 300 बताई थी.

आदिवासी संस्कृति को बदनाम करने की कोशिश

आदिवासी लड़कियों के बिन ब्याही मां बनने की संख्या में यह अंतर सरकार की कोशिश और मंशा पर कई सवाल पैदा करता है. लेकिन इससे भी ज़्यादा चिंताजनक और शर्मनाक है इस तरह के अपराधों को दबा देने का काम. 2014 में पंढरकावड़ा पुलिस स्टेशन के एक सब इंस्पेक्टर की रिपोर्ट में बताया गया कि इस तरह के मामले में सिर्फ़ एक एफ़आईआर दर्ज हुई थी. इस एफ़आईआर के बारे में भी पता चला कि यह 1990 में दर्ज हुई थी. यानि क़रीब डेढ़ दशक में सैंकड़ों आदिवासी लड़कियों पर यौन अत्याचार के मामले हुए, लेकिन पुलिस में सिर्फ़ एक ही मामला दर्ज हुआ.

दरअसल इन आदिवासी लड़कियों के शोषण और उनपर अत्याचारों के लिए ज़्यादातर मामलों में गांव के ग़ैर आदिवासी, पैसे वाले और राजनीतिक प्रभाव रखने वाले लोग ज़िम्मेदार हैं. शोध और जांच में यह भी पाया गया कि आदिवासी गांवों और उनके आस़पास के ग़ैर आदिवासी ही ज़्यादातर अपराधों में लिप्त थे. लेकिन इसके अलावा आंध्रप्रदेश से आने वाले ठेकेदार और बिचौलिए भी इन अपराधों में लिप्त हैं.

यवतमाल में आदिवासी लड़कियों के यौन शोषण पर पर्दा डालने के लिए आदिवासी संस्कृति को बदनाम किया जा रहा है

आदिवासी समुदाय में बदनामी का डर, पैसे का ज़ोर और राजनीतिक प्रभाव इस तरह के मामलों को दबा दिए जाने की मुख्य वजह रही हैं. पुलिस जांच में जो तथ्य पेश किये गए उनके अनुसार इस तरह के मामले आदिवासी समुदाय अपने कस्टमरी लॉ के हिसाब से तय कर लेता है. इसलिए ये मामले पुलिस में रिपोर्ट नहीं होते हैं. लेकिन ये बात सच्चाई से बहुत दूर है. क्योंकि सच तो यह है कि आदिवासी समुदाय ऐसा करने के लिए मजबूर है.

इस पूरे मामले में सबसे अफ़सोसजनक और ख़तरनाक बात है प्रशासन और सरकारी एजेंसियों का रैवया. मसलन यवतमाल के महिला और बाल कल्याण अधिकारी की रिपोर्ट में यह कहा गया कि कुमारी माताओं के मामले को मीडिया ने बेवजह तूल दिया है. इस बात को साबित करने के लिए आदिवासी संस्कृति और कस्टमरी लॉ को ढाल बनाने की कोशिश भी की गई. अपनी बात को साबित करने के लिए अधिकारी की रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘लिव इन रिलेशनशिप्स’ आदिवासियों में आम बात है और सेक्स के लिए उनमें शादी की अनिवार्यता नहीं है.

आदिवासी संस्कृति की यह अवधारणा सिर्फ़ अज्ञानता नहीं मानी जा सकती, बल्कि यह एक आपराधिक कृत्य है. दरअसल, यह मानसिकता पीड़ित को और प्रताड़ित करने वाली मानसिकता है. इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि अगर कुमारी माताओं के लिए सरकार कोई कल्याणकारी योजना शुरू करती है, या उन्हें किसी तरह की मदद दी जाती है तो इस तरह के मामलों की संख्या बढ़ सकती है. इसके पीछे रिपोर्ट में तथ्य यह है कि उस स्थिति में आदिवासी लड़कियां पहले सहमति से शारीरिक संबंध बनाएंगी, क्योंकि वैसे भी वो इस तरह के संबंधों को ग़लत नहीं मानतीं, और बाद में सरकारी योजनाओं के फ़ायदे के लिए इस तरह के मामले रिपोर्ट करेंगी.   

इस पूरे मामले में आदिवासी संस्कृति और उनके सामाजिक संस्थानों को ना सिर्फ़ ढाल बनाकर इस्तेमाल करने की कोशिश की गई है, बल्कि इन आदिवासी संस्थानों को बदनाम करने का भी मक़सद है.

2011 की जनगणना के अनुसार महाराष्ट्र के यवतमाल ज़िले में आदिवासियों की कुल आबादी 5,14,057 दर्ज की गई थी. यानि इस ज़िले की कुल आबादी का क़रीब 19 प्रतिशत आदिवासी है. लेकिन ज़िले के दो ब्लॉक झारी जमनी और पंढरकावड़ा में आदिवासी आबादी क़रीब 37 प्रतिशत है. इन दो ब्लॉक में ही आदिवासी कुमारी माताओं की संख्या भी सबसे अधिक है. यहां गोंड, कोलम, अंध, प्रधान, पारधी, भील और कोली आदिवासी समुदाय हैं. इनमें से कोलम को पीवीटीजी की श्रेणी में रखा गया है. यानि ये आदिवासी अभी भी आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर हैं.

आमतौर पर गोंड समुदाय के घोटुल संस्था को ग़ैर आदिवासी समाज में फ़्री सेक्स की जगह की तरह ही देखा जाता है. लेकिन इस संस्था से जुड़े गोंड समुदाय के क्या नियम हैं, और यहां क्या-क्या होता है, इसके बारे में जानकारी और समझ दोनों गड़बड़ हैं.

कुमारी माताओं के मामले में इस शब्द से ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इन आदिवासी लड़कियों के चरित्र पर उंगली उठाई जा रही है. इन लड़कियों में से ज़्यादातर शादी ही नहीं कर पाती हैं. जिन लड़कियों की शादी होती भी है उन्हें शादी से पहले पैदा हुआ बच्चा अपने मां-बाप के पास ही छोड़ना पड़ता है.

दरअसल आदिवासी बहुल इलाक़ों में भी आर्थिक संसाधनों पर ग़ैर आदिवासी समुदायों का क़ब्ज़ा है. आदिवासी समुदाय रोज़गार और कर्ज़ दोनों के लिए ग़ैर आदिवासी समुदाय पर निर्भर रहता है. यह पूरी व्यवस्था ग़ैर आदिवासी पुरुषों को आदिवासी महिलाओं के शोषण का रास्ता देती है. ये आर्थिक रिश्ते ग़ैर आदिवासी आबादी को आदिवासी आबादी पर प्रभुत्व प्रदान करते हैं, जिसके दम पर इन पीड़ित आदिवासी लड़कियों के मामलों को आदिवासी समुदायों की पंचायतों में ही निपटवा दिया जाता है. आदिवासी आबादी पर ग़ैर आदिवासियों के आर्थिक प्रभुत्व की ताक़त के दम पर आदिवासी समुदाय के स्थानीय पटेलों और मुखियाओं पर दबाव बनाया जाता है या उनके साथ सांठ-गांठ कर ली जाती है.

केरल का मॉडल आदर्श हो सकता है

महाराष्ट्र की ही तरह केरल में भी आदिवासी लड़कियों के ऐसे मामले सामने आए. यहां पर शादी से पहले बच्चों को जन्म देने वाली आदिवासी लड़कियों को ‘अविवाहितर अम्मा’ कहा जाता था. लेकिन इन मामलों के संज्ञान में आने के बाद केरल में सरकार ने बेहद संवेदनशील तरीक़े से इन मामलों को समझा और प्रभावी क़दम उठाए. केरल सरकार ने 1996 में ऐसी आदिवासी लड़कियों की पहचान के लिए इडुक्की और वायनाड ज़िलों में एक कमेटी का गठन किया.15 दिसंबर को इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट दी. इस रिपोर्ट में इस मुद्दे की तह तक पहुंचने की संवेदनशील कोशिश नज़र आई. कमेटी ने अपनी इस रिपोर्ट में कुल 34 सिफ़ारिशें की थीं. इस रिपोर्ट में आदिवासी लड़कियों के शोषण, भेदभाव और उपेक्षा पर फ़ोकस किया गया. इसके साथ ही आदिवासी लड़कियों के ख़िलाफ़ अपराध करने वालों के ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्रवाई के उपाय भी सुझाए गए.

इस कमेटी की रिपोर्ट के बाद केरल सरकार ने सबसे पहले इन लड़कियों और इनके बच्चों के साथ भेदभाव और उपेक्षा के मामले में क़दम उठाया. यह सुनिश्चित किया गया कि आंगनवाड़ी में इन आदिवासी लड़कियों के बच्चों के साथ किसी तरह का भेदभाव ना हो सके. इसके अलावा इन लड़कियों के लिए 1000 रूपए के मासिक भत्ते की व्यवस्था की गई. इस भत्ते के अलावा राज्य सरकार ने इन लड़कियों को अपने जीवन यापन के लिए दुधारू गाय, बकरी, राशन की दुकानें और दूसरे संसाधन दिए.  

केरल में यह संभव हो पाया क्योंकि वहां पर आदिवासियों के मज़बूत संगठन हैं, और उन्होंने आदिवासी लड़कियों के मसले पर बहस छेड़कर यह सुनिश्चित किया की सरकार पर पर्याप्त दबाव बने. इन संगठनों के दबाव और कमेटी की रिपोर्ट के बाद आदिवासी इलाक़ों से ग़ैर आदिवासियों को बाहर निकाला गया. इसके अलावा इस तरह के मामलों में क़ानूनी कार्रवाई भी की गई.

लेकिन महाराष्ट्र के यवतमाल के मामले में यह साफ़ था कि दशकों से आदिवासी लड़कियों का ग़ैर आदिवासियों के द्वारा शोषण होता रहा है. अफ़सोस की बात ये है कि जब यह मामला बहस में भी आया तो उस बहस के अपेक्षित परिणाम नहीं आए. सरकार ने केरल जैसी संवेदनशीलता दिखाने की बजाए इन शोषित लड़कियों को ही दोषी ठहराने और आदिवासी संस्कृति को बदनाम करने की कोशिश की. इसकी एक बड़ी वजह आदिवासियों के मज़बूत संगठन की ग़ैर मौजूदगी भी रही है.

(इस लेख में आंकड़े और कुछ तथ्य EPW पत्रिका में छपे प्रशांत बंसोड़े (Prashant Bansode) के लेख Stigmtisation and Exclusion of Tribal ‘Kumari Matas’ in Yavatmal से लिए गए हैं)

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