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चूल्हे पर मटन बटाटा और सुनीता की गहरी बातें

महाराष्ट्र का यह क्षेत्र उत्तरी और पश्चिमी दिशा के सह्याद्री पर्वतमालाओं के बीच बसे ठाणे और पालघर ज़िले हैं. मैं भी भारत की टीम ने पिछले 10 दिन इन ज़िलों के जंगलों में बसे आदिवासी गाँवों में बिताए.

इन ज़िलों में वारली, धोड़िया, कातकरी और महादेव कोली समुदाय के लोगों से इस दौरान लंबी बातचीत हुई. हमने इस दौरान इन आदिवासी समुदायों की ज़िंदगी को कुछ क़रीब से देखा. यहाँ के वारली समुदाय की चित्रकारी तो दुनिया भर में मशहूर है. 

एक समय में दीवारों पर बनाए जाने वाली यह पेंटिंग अब कैनवास और कपड़ों पर भी की जा रही है. हम वारली आदिवासियों के कई गाँवों में गए. पेंटिंग के अलावा हमने इन आदिवासियों की ज़िंदगी के कई और पहलुओं को भी समझने की कोशिश की है. 

यहां के लोगों की आजीविका का मुख्य आधार खेती किसानी है. खेती अभी भी जंगलों के बीच भूमि साफ़ करके की जाती है. धान यहाँ की मुख्य फ़सल है. खेती पूरी तरह से बारिश के भरोसे है तो ये आदिवासी किसान एक ही फ़सल ले पाते हैं. कुछ परिवार जिनके पास पानी के साधन हैं, वो अब मिर्च की खेती भी कर रहे हैं. 

लेकिन इस दौरान हमें वारली समुदाय के खान पान को भी समझने का मौक़ा मिला. इस सिलसिले की शुरूआत राणशेत नाम के एक गाँव से हुई. यहाँ हमारी मुलाक़ात चैत्य लक्ष्मण के परिवार से हुई. चैत्य लक्ष्मण वारली चित्रकारी में माहिर हैं.

उनकी पत्नी सुनीता माडा से भी मुलाक़ात हुई. लक्ष्मण से वारली पेंटिंग के बारे में लंबी बातचीत हुई और वहीं पर दोपहर हो गई. उनकी पत्नी सुनीता ने ज़ोर दे कर कहा कि हमें उनके साथ खाना खा कर ही निकलना चाहिए.

हम उनके आग्रह को टाल नहीं पाए. उन्होंने झटपट मटन आलू की भाजी की तैयारी शुरू कर दी. यह पूरा प्रोसेस आप वीडियो में देख सकते हैं. खाना बनाते हुए सुनीता से बातचीत होती रही. 

सुनीता ने बताया कि उनके चार बच्चे हैं जिनमें दो लड़की और दो लड़के हैं. बड़ी लड़की को पढ़ाई नौवीं क्लास के बाद छोड़नी पड़ी. सुनीता ने बताया कि दरअसल उनकी बड़ी बेटी नौवीं कक्षा में फेल हो गई थी. उसके बाद उसने पढ़ाई छोड़ दी.

उनसे बातचीत में पता चला कि गाँव में ज़्यादातर बच्चे स्कूल की पढ़ाई भी पूरी नहीं कर पाते हैं. ज़्यादातर परिवार बच्चों को काम पर लगा देते हैं. मसलन उनकी बड़ी बेटी एक डायमंड कारख़ाने में काम करती है.

सुनीता ने बताया कि उनकी बड़ी बेटी की उम्र 18 साल हो चुकी है. शायद उन्हें यह पता है कि पत्रकारों को लड़की की उम्र शादी और नौकरी के मामले में इतनी ही बताई जानी चाहिए. क्योंकि सुनीता को अपनी ही उम्र का अंदाज़ा नहीं है.

जब हमने उनसे पूछ कि आदिवासी छात्रों के लिए हॉस्टल वाले बोर्डिंग स्कूल बने हैं. इन स्कूलों में खाना, रहना और पढ़ना फ़्री है. उन्होंने माना कि यह बात सही है, लेकिन साथ ही जोड़ा की बच्चे इन स्कूलों में ठहरते ही नहीं हैं.

उन्होंने कहा कि बच्चे इस बात को नहीं समझते हैं. वो स्कूल की बजाए जंगल में ज़्यादा खुश रहते हैं. जब हमने पूछा कि कम से कम माँ बाप को तो यह बात समझनी ही चाहिए. जवाब में सुनीता कहती हैं कि बात तो आपकी सही है लेकिन माँ बाप भी नहीं समझते हैं.

हालाँकि मुझे यह सवाल पूछते हुए ख़ुद ही लग रहा था कि इस सवाल का क्या ही मतलब है. क्योंकि जिन माँ बाप को अपनी ही उम्र का अंदाज़ा नहीं है, वो भला कैसे ही इस बात को समझेंगे.

इसके अलावा आदिवासी समुदायों में कम उम्र में शादी की परंपरा अभी भी क़ायम है. शायद इसलिए भी माँ बाप चाहते हैं कि बच्चे जितना जल्दी हो सके कमाने लगें. 

सुनीता से जो बातें हुईं, उन बातों के सहारे आदिवासी समुदाय से जुड़े कई मसलों पर दिमाग़ ने नए सिरे से सोचना शुरू किया है. जब कुछ स्पष्टता आएगी तो उस बारे में ज़रूर लिखूँगा. फ़िलहाल आप आलू मटन या मटन बटाटा या फिर मटना ची भाजी का वीडियो देखिए और आनंद लीजिए. 

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