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कोंडा दोरा आदिवासियों से मुलाक़ात और ख़ास अंदाज़ में बने चिकन का स्वाद

आंध्र प्रदेश की आरकु घाटी में बसे आदिवासियों में से एक है कोंडा दोरा (Konda Dora). कोंडा यानि पहाड़ और दोरा माने राजा. इस आदिवासी समुदाय के नाम से ही साफ़ हो जाता है कि यह पहाड़ों में बसने वाला एक समुदाय है.

जनवरी महीने में क़रीब 10 दिन इन आदिवासियों के बीच बिताने का मौक़ा मिला था. इस दौरान इन आदिवासियों के गाँव में कई बार आना जाना हुआ. आंध्र प्रदेश का यह हिस्सा ओडिशा से लगा हुआ है.

ओडिशा के कई ज़िलों में भी इस समुदाय के लोग बसे हुए हैं. इन आदिवासियों की भाषा पर भी ओडिया का काफ़ी असर है. दरअसल ये आदिवासी जो भाषा बोलते हैं उसे देसिया ओडिया कहा जाता है. जिसमें ओडिया के साथ साथ कई शब्द तेलगू के भी शामिल हैं.

इन आदिवासियों में से ज़्यादातर खेती किसानी ही करते हैं. लेकिन इस इलाक़े में कॉफी बाग़ानों ने यहाँ कुछ मज़दूरी के मौक़े पैदा किये हैं. इन आदिवासियों के खाने में भी ओडिशा और आंध्र प्रदेश दोनों ही राज्यों का मिलाजुला स्वाद होता है.

खाने में इमली का इस्तेमाल ज़रूर किया जाता है. यहाँ के एक गाँव पैदलाबुड़ु में एक परिवार के साथ खाना बनते देखने और खाना खाने का भी अवसर हमें मिला. इस परिवार ने हमारे लिए ख़ासतौर पर देसी मुर्ग़ा पकाया.

इस मुर्ग़े को बनाने में किसी गरम मसाले का इस्तेमाल नहीं था. लेकिन उसके बावजूद यह मुर्ग़ा इतना स्वादिष्ट बना था कि क्या कहने. आप यह मुर्ग़ा बनते हुए देखना चाहें तो इसका वीडियो उपर देख सकते हैं.

जब खाना बन रहा था तो औरतों से बातचीत का मौक़ा मिला. इस बातचीत में हमें फिर एक बार लगा कि आदिवासी समाज की महिलाएँ अपने समुदाय के मसलों को बहुत ही बेहतर तरीक़े से समझती हैं.

यह बात सही है कि आदिवासी औरतें बाहरी लोगों से बातचीत में शरमाती हैं. लेकिन जब वो आपके साथ बातचीत में सहज हो जाती हैं तो अपने समुदाय के बारे में ज़्यादा संजीदगी से बातचीत करती हैं.

इन औरतों ने हमें बातचीत में बताया कि इस इलाक़े में खेती बारिश के भरोसे ही होती है. खेती में उत्पादन कम होता है. इसलिए सभी परिवारों में से लोग रोज़गार की तलाश में अब बाहर यानि शहरों को जाते हैं.

इन औरतों की बातचीत में हमें यह भी अहसास हुआ कि वो शिक्षा की क़ीमत को समझ रही हैं और चाहती हैं कि उनके बच्चों को पढ़ाई लिखाई के बेहतर अवसर मिलने चाहिएँ. इन महिलाओं में से एक सुशीला ने देसिया भाषा में बात करते हुए मुझसे कहा था, ” बाबू, खेत मज़दूर हैं हम तो. हमारे पास तो ज़्यादा ज़मीन नहीं है, थोड़ी बहुत ज़मीन है उसमें परिवार के लिए कुछ धान बो दिया जाता है”.

इन औरतों से बातचीत में ही पता चला कि बेशक आरकु एक बड़ा टूरिज़्म सेंटर बन रहा है. लेकिन अभी आदिवासी समुदाय के लड़के लड़कियों के लिए रोज़गार के अवसर कम ही हैं. यहाँ जो भी होटल बन रहे हैं या फिर कैंप लगाये जाते हैं, वो सभी ग़ैर आदिवासियों के हैं.

सुशीला चाहती हैं कि उनके बच्चे पहाड़ और जंगल में संघर्ष करने की बजाए आधुनिक और सुविधाजनक ज़िंदगी जीएँ. लेकिन इस बात का भरोसा उन्हें कम ही है.

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