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सारंडा अभयारण्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रखा

झारखंड के प्रसिद्ध सारंडा जंगल में खनन गतिविधियों को लेकर चल रहे विवाद पर सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को कड़ा रुख अपनाया.

अदालत ने स्पष्ट कहा कि जिस क्षेत्र को वन्यजीव अभयारण्य घोषित करने का प्रस्ताव है, वहां किसी भी प्रकार की खनन गतिविधि की अनुमति नहीं दी जाएगी, चाहे वह सरकारी कंपनी ही क्यों न हो.

मुख्य न्यायाधीश बी. आर. गवई और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन की पीठ ने सुनवाई के दौरान कहा, “हम सारंडा या ससांगडाबुरु के 126 कम्पार्टमेंट्स में किसी भी तरह की माइनिंग गतिविधि की अनुमति नहीं देंगे. कानून सबके लिए समान है, चाहे केंद्र सरकार की कंपनी ही क्यों न हो.”

सारंडा को अभयारण्य घोषित करना चाहती है सरकार

झारखंड सरकार लंबे समय से सारंडा जंगल को वन्यजीव अभयारण्य (Wildlife Sanctuary) घोषित करने की दिशा में काम कर रही है.

यह क्षेत्र पश्चिमी सिंहभूम ज़िले में लगभग 310 वर्ग किलोमीटर में फैला है और यहां बड़ी संख्या में आदिवासी समुदाय रहते हैं.

जंगल के भीतर कई खनन ब्लॉक भी मौजूद हैं, जहां पहले लौह अयस्क की खुदाई होती रही है.

राज्य सरकार की दलीलें और अमाइकस क्यूरी की आपत्ति

राज्य सरकार की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने कोर्ट को बताया कि सरकार ने पहले ही अधिसूचना का एक मसौदा (Draft Notification) तैयार कर लिया है.

उन्होंने कहा कि जंगल के अंदर करीब छह एकड़ क्षेत्र में कुछ आदिवासी रहते हैं, इसलिए उस हिस्से को अभयारण्य की सीमा से बाहर रखा जाए.

सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त अमाइकस क्यूरी (सहायक वकील) और वरिष्ठ अधिवक्ता के. परमेश्वर ने सरकार की मंशा पर सवाल उठाए.

उन्होंने कहा कि सरकार बार-बार यह स्पष्ट नहीं कर रही कि जिन क्षेत्रों को बाहर रखने की बात हो रही है, उनमें खनन ब्लॉक मौजूद हैं या नहीं.

परमेश्वर ने कहा, “राज्य का असली उद्देश्य आदिवासियों की रक्षा नहीं, बल्कि खनन लॉबी के हितों को बचाना है.”

उन्होंने यह भी याद दिलाया कि राज्य सरकार ने पहले के हलफनामे में कहा था कि उस इलाके में कोई जनजातीय बस्ती नहीं है, इसलिए अब उसी क्षेत्र को “जनजातीय क्षेत्र” बताकर बाहर रखने की मांग विरोधाभासी है.

परमेश्वर ने यह भी सुझाव दिया कि सीईसी (Central Empowered Committee) से पूरे क्षेत्र का स्वतंत्र सर्वे कराया जाए ताकि वास्तविक स्थिति सामने आए.

सिब्बल ने आगे कहा कि अमाइकस द्वारा प्रस्तुत की गई खनन से जुड़ी रिपोर्टें 1968 की पुरानी अधिसूचनाओं पर आधारित हैं, जबकि 2025 में परिस्थितियां पूरी तरह बदल चुकी हैं.

उन्होंने बताया कि वर्तमान में क्षेत्र में कोई सक्रिय खनन गतिविधि नहीं चल रही है और केवल सेल (Steel Authority of India Limited (SAIL))  की कुछ खदानें प्रस्तावित अभयारण्य के एक किलोमीटर के दायरे में आती हैं.

राज्य ने सुप्रीम कोर्ट से अनुरोध किया है कि प्रस्तावित क्षेत्र को 310 वर्ग किलोमीटर से घटाकर 250 वर्ग किलोमीटर किया जाए.

सरकार के अनुसार, शेष 60 वर्ग किलोमीटर में जनजातीय बस्तियां, स्कूल और अन्य सामाजिक ढांचे हैं. इन्हें संरक्षण की आवश्यकता है.

SAIL का पक्ष और सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी

सेल (Steel Authority of India Limited) की ओर से पेश हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता  ने कहा कि कंपनी को कुछ खनन पट्टे (Mining Leases) मिले हुए हैं, लेकिन वे सक्रिय नहीं हैं.

उन्होंने आग्रह किया कि गैर-परिचालित खदानों को छूट दी जाए ताकि भविष्य में ज़रूरत पड़ने पर उन्हें चालू किया जा सके.

इस पर मुख्य न्यायाधीश ने कहा, “आपके पास कोई भी लीज़ हो, लेकिन कानून केंद्र सरकार और निजी कंपनियों के लिए अलग नहीं हो सकता. जहां अभयारण्य घोषित होगा, वहां कोई खनन नहीं होगा.”

जनजातीय समुदायों का पक्ष

जनजातीय आबादी की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता गौरव शर्मा ने कहा कि जंगल में रहने वाले समुदाय महुआ फूल, राल, शहद और अन्य वन उत्पादों से अपनी आजीविका चलाते हैं.

उन्होंने कहा कि अभयारण्य घोषित करने से उनके पारंपरिक वनाधिकार खत्म नहीं होते, उसी जंगल में सुरक्षा और स्थायित्व मिलता है.

इसलिए सरकार को आदिवासियों को बाहर रखने की जगह उनके अधिकारों को स्वीकार करना चाहिए.

कोर्ट की चेतावनी और अगला कदम

सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने झारखंड सरकार की बदलती और अस्पष्ट स्थिति पर नाराज़गी जताई.

अदालत ने पहले भी चेताया था कि अगर सरकार ने पुराने आदेशों का पालन नहीं किया,
तो राज्य के मुख्य सचिव को व्यक्तिगत रूप से पेश होकर बताना होगा कि कोर्ट की अवमानना (Contempt of Court) के लिए कार्रवाई क्यों न की जाए.

अदालत ने अब सभी पक्षों से कहा है कि वे शुक्रवार तक अपने लिखित तर्क (Written Submissions) जमा करें. कोर्ट ने इस मामले में फैसला सुरक्षित (Reserved) रखा है.

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