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आदिवासी भाषाओं का इस्तेमाल कोविड के ख़िलाफ़ जंग में बेहद अहम

महाराष्ट्र के सुदूर मेलघाट इलाक़े के एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र के डॉक्टर ने आदिवासियों को कोविड वैक्सीन लगवाने के लिए मनाने का एक सरल उपाय ढूंढा. कोरकू आदिवासियों से उन्हीं की भाषा में लगातार बात कर धीरे-धीरे उनका विश्वास जीतकर उन्हें मना लिया.

मीलों दूर गढ़चिरौली ज़िले के एक दुर्गम गांव में एक स्थानीय कोतवाल, तहसील राजस्व अधिकारी और आदिवासी विभाग के परियोजना अधिकारी ने मडिया समुदाय से हाथ मिलाकर वैक्सिनेशन की मुहिम शुरु की है.

मडिया एक आदिम जनजाति यानि पीवीटीजी है, और समुदाय के लोगों ने अपने विश्वासों के चलते पहले वैक्सीन लगवाने से मना कर दिया था. लेकिन समुदाय के मुखिया को मनाकर पहले उन्हें वैक्सीन लगाया गया. उसके बाद प्रक्रिया आसान रही.

आदिवासी भारत में उन्हीं की बोली में संदेश ज़्यादा लोगों तक पहुंचता है

उत्तरी महाराष्ट्र के आर्थिक रूप से पिछड़े नंदुरबार ज़िले में भी कुछ ऐसा ही देखने को मिला. ज़िला प्रशासन ने स्थानीय भाषा में तैयार किए गए जागरुकता अभियान और सामुदायिक संस्थानों की मदद से आदिवासी आबादी के बीच वैक्सिनेशन से जुड़ी ग़लतफहमियों को दूर किया. परिणाम स्वरूप कई दुर्गम, बिखरी हुई आदिवासी बस्तियों का पूरी तरह से वैक्सिनेशन हो चुका है.

इन मामलों से दो बातें साफ़ हैं – स्थानीय भाषाएं और बोलियां वैक्सिनेशन के फ़ायदों के बारे में आदिवासी और ग्रामीण आबादी को समझाने में सबसे ज़्यादा मददगार हैं. और दूसरा, किसी भी योजना के सफ़ल कार्यान्वयन के लिए समुदाय और उसकी संस्थाओं का साथ ज़रूरी है.

भारत में स्कूल ड्रॉपआउट रेट और उसके सामाजिक नतीजे एक बड़ी चिंता की बात हैं, ख़ासकर आदिवासी और ग्रामीण इलाक़ों में. इससे निपटन के लिए भी स्थानीय भाषाओं का इस्तेमाल किया जा सकता है.

कोविड महामारी के दौरान आदिवासी भारत से कई ऐसे उदाहरण देखने को मिले हैं, जहां राजनेता और सरकारी अधिकारी इस तरह की पहल कर रहे हैं, और विकेंद्रीकृत रणनीतियों को लागू कर रहे हैं. महामारी ने मुश्किलों से पार पाने के लिए समुदायों के साथ साझेदारी की अहमियत को बढ़ाया है.

कोविड की दूसरी लहर में वैक्सीन को लेकर आदिवासी भारत में हिचकिचाहट को दूर करने का शायद यही तरीक़ा है. वो भी ऐसे समय पर जब आदिवासी भारत में वैक्सिनेशन की दर बेहद धीमी है.

भारत में भाषा का एक गतिशील इतिहास रहा है. इंडो-आर्यन, द्रविड़ियन, ऑस्ट्रो-एशियाटिक और तिब्बती-बर्मन परिवारों से कई भाषाएं हमारे देश में बोली जाती हैं. इन स्थानीय भाषाओं को बढ़ावा देने और इनके संरक्षण के लिए ज़रूरत है विकेंद्रीकरण (Decentralisation) की.

कोविड के दौरान हो रही प्रशासनिक पहलों से यह संरक्षण संभव है, और इससे प्रशासनिक कार्रवाई की सफलता में भी मदद मिलेगी.

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