खैरापुट के हाट की भीड़ में भी बोंडा अकेले क्यों हैं ?

ये महिलाएँ इस बाज़ार में आती हैं तो ख़ुद को पूरा कवर कर लेती हैं. इसके लिए वो पुरानी मैक्सी पहनती हैं. पुरानी मैक्सी ख़रीदने और पहनने की दो वजह हैं. एक तो ये मैक्सी 20-30 रूपए में मिल जाती हैं. दूसरी बात कि इन मैक्सियों का उनकी बस्तियों या घरों में कोई काम नहीं है.

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ओडिशा के मलकानगिरि ज़िले की खैरापुट तहसील में यह गोविंदापल्ली गाँव हैं. यह ज़िला आदिवासी बहुल है और यहाँ कि कुल आबादी में क़रीब 58 प्रतिशत लोग आदिवासी समुदाय के हैं. यहाँ के इस बाज़ार में दुकानदार और ग्राहकों में भी ज़्यादातर आदिवासी ही हैं.

इस बाज़ार में अभी भी ज़्यादातर कारोबार वस्तुओं की अदलाबदली के भरोसे ही चलता है. आदिवासी इस बाज़ार में अपने खेतों से सब्ज़ियाँ और फल लेकर पहुँचते हैं. इसके अलावा सरसों, रागी और काँगड़ी जैसी वस्तुएँ भी ये आदिवासी यहाँ लाते हैं. ये आदिवासी इन चीजों को बाज़ार में बेच कर अपनी ज़रूर की चीज़ें ख़रीदते हैं.

इस बाज़ार में यहाँ के बड़े आदिवासी समुदायों के लोगों के अलावा यहाँ पर आप बोंडा समुदाय के लोगों से भी टकरा जाते हैं. आदिम जनजाति समुदाय की महिलाएँ अपना सिर मुंडवा कर रखती हैं. ये औरतें ख़ास तरह के आभूषण पहनती हैं. ये आदिवासी कभी कभार ही ऊँची पहाड़ियों और घने जंगल की अपनी बस्तियों से इस बाज़ार में आ जाते हैं.

जब ये आदिवासी औरतें अपनी बस्तियों में होती हैं तो उनके बदन पर कपड़े ना के बराबर होते हैं. ये अपने छाती के हिस्से को बारीक पोतों की रंगीन मालाओं से ढकती हैं.

लेकिन जब ये महिलाएँ इस बाज़ार में आती हैं तो ख़ुद को पूरा कवर कर लेती हैं. इसके लिए वो पुरानी मैक्सी पहनती हैं. पुरानी मैक्सी ख़रीदने और पहनने की दो वजह हैं. एक तो ये मैक्सी 20-30 रूपए में मिल जाती हैं. दूसरी बात कि इन मैक्सियों का उनकी बस्तियों या घरों में कोई काम नहीं है. 

इस बाज़ार में बांस से बनी टोकरी काफ़ी बिकती हैं. बांस से बनी ये इन टोकरियों की दो ख़ास बात होती हैं. पहली कि ये टोकरी आदिवासी महिलाएँ हाथों से तैयार करती है और दूसरी कि ये पर्यावरण को बचाने में मदद करती हैं. यानि ये पूरी तरह से इकोफ्रेंडली हैं. 

इस बाज़ार का एक हिस्सा है जो थोड़ा बाहर की तरफ़ लगता है. इस हिस्से को आप ओपन बार कह सकते हैं. यहाँ पर आदिवासी महिलाएँ ताड़ी बेचती हैं. ताड़ी पीने वाले ज़्यादातर लोगों में आदिवासी पुरूष शामिल होते हैं.

लेकिन महिलाओं के ताड़ी पीने पर कोई पाबंदी नहीं है. यहाँ आपको कई महिलाएँ ताड़ी पीती नज़र आती हैं. ताड़ी पीने और बेचने वाली ये महिलाएँ इस बाज़ार में बेफ्रिक और बेधड़क होती हैं. यहाँ ताड़ी बेच रही महिलाओं में से ज़्यादातर कोया, भूमिया या फिर परजा आदिवासी समुदाय की हैं.

मैदानी बोंडा भी अब इन आदिवासी समुदायों में ही घुल मिल गए हैं. इसलिए उनकी अलग से पहचान नज़र नहीं आती हैं. 

मलकानगिरि ज़िला राज्य और देश के सबसे पिछड़े ज़िलों में से एक है. इस ज़िले के बाशिंदों में आदिवासी समुदाय सबसे पिछड़े हैं. आदिवासियों में भी पहाड़ी बोंडा समुदाय की हालत काफ़ी ख़स्ता है.

मानव विकास सूचकांक तो छोड़िए, यह समुदाय ख़ुद को ज़िंदा भर रखने की लड़ाई में फँसा है. ये आदिवासी इन बाज़ारों में बाहरी दुनिया के संपर्क में ज़रूर आते हैं. लेकिन ख़ुद को बहुत सहज नहीं बना पाते हैं. 

इस बाज़ार में ये भीड़ के बीच भी ज़्यादातर अकेले ही रहते हैं. यहाँ ये किसी से बात करते हुए या घुलते मिलते नज़र नहीं आते हैं. इनकी झिझक तो समझ आती है लेकिन दूसरी तरफ़ से भी कोई कोशिश कहां दिखती है. 

यह बाज़ार यहाँ के सामाजिक ताने-बाने, अंतर्विरोधों और बदलाव को समझना आसान कर देता है. इस बाज़ार से आपको यहाँ की सीमित आर्थिक गतिविधियों को समझने में भी मेहनत नहीं करनी पड़ती. 

दिन ढलने लगता है तो बाज़ार से ये आदिवासी घरों की तरफ़ रवाना हो जाते हैं. मैदानी इलाक़ों के कुछ गाँवों के नज़दीक से बसें गुज़रती हैं. लेकिन पहाड़ी और जंगल की बस्तियों तक पैदल ही जाना पड़ता है.

8-10 किलोमीटर की चढ़ाई करने के बाद ये आदिवासी अपने घर पहुँचते हैं. हाँ कभी कोई ट्रक या टेंपो जैसा वाहन उधर जा रहा हो और ड्राइवर को देने के लिए जेब या थैले में कुछ हो तो बात ही क्या है. 

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