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केरल: बढ़ते वन्यजीव संघर्ष के बीच विस्थापित आदिवासी परिवार भूमि आवंटन का कर रहे हैं इंतजार

आदिवासियों के पुनर्वास के लिए 523 एकड़ जमीन का सीमांकन किया गया है लेकिन वन विभाग जमीन बांटने से इनकार कर रहा है. विभाग के मुताबिक, जमीन तभी आवंटित की जा सकती है जब कॉलोनी के सभी निवासी अपनी हिस्सेदारी छोड़ दें.

बढ़ते मानव-वन्यजीव संघर्षों ने केरल के कुट्टमपुझा जंगल के निवासियों को अपनी पारंपरिक भूमि जोत छोड़ने और जंगल के किनारे की ओर पलायन करने के लिए मजबूर किया. भूमि आवंटन में सरकार की  उदासीनता उन्हें अपनी ही भूमि में शरणार्थी बनकर रहने को मजबूर कर रही है.

मार्च 2023 में वरियाम और उरीयमपेट्टी के लगभग 80 परिवार, जो कुट्टमपुझा पंचायत के पंथापरा के जंगल के किनारे चले गए थे, पिछले एक साल से बांस की नरकट और तिरपाल शीट से बनी फूस की झोपड़ियों में रह रहे हैं.

अगर वन विभाग पंथपरा में प्रत्येक को दो एकड़ जमीन आवंटित करेगा तो परिवारों ने जंगल के अंदर अपनी जमीन छोड़ने की इच्छा व्यक्त की.

वैसे आदिवासियों के पुनर्वास के लिए 523 एकड़ जमीन का सीमांकन किया गया है लेकिन वन विभाग जमीन बांटने से इनकार कर रहा है. विभाग के मुताबिक, जमीन तभी आवंटित की जा सकती है जब कॉलोनी के सभी निवासी अपनी हिस्सेदारी छोड़ दें.

समुदाय के सदस्यों का कहना है कि चुनाव के समय राजनेता बस्तियों का दौरा करते हैं और वादों की बौछार करते हैं. लेकिन चुनाव ख़त्म होते ही वे वादे भूल जाते हैं.

दरअसल, जिस 523 एकड़ जमीन की पहचान की गई है, वह सागौन बागान का हिस्सा है और अगर जमीन आवंटित कर भी दी गई तो भी लाभार्थी जमीन पर खेती नहीं कर पाएंगे क्योंकि विभाग ने पेड़ों की कटाई पर प्रतिबंध लगा दिया है.

वरियाम कॉलोनी से स्थानांतरित हुए एक आदिवासी शख्स ने कहा, “हमें जंगल छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा क्योंकि जंगली जानवर फसलों को नष्ट कर रहे थे. जंगली हाथी और गौर खेतों में घूम रहे हैं और हाल के वर्षों में जंगली जानवरों के हमलों में कई लोग मारे गए हैं.”

आदिवासियों का कहना है कि वो पंथपरा के राशन की दुकानों के माध्यम से मिलने वाले 30 किलोग्राम चावल पर जीवित हैं. वो फूस की झोपड़ियों में रहते हैं और बिजली सहित कोई बुनियादी सुविधा नहीं है. हालांकि हाल ही में पाइपलाइन बिछाई गई थी लेकिन हर दो दिन में केवल एक बार पानी वितरित किया जाता है.

ग्रामीणों ने कहा कि जिला प्रशासन ने कुछ शौचालय बनवाए हैं जो हमारी एकमात्र विलासिता है.

उरीयमपेट्टी के मुथु सिवन की कॉलोनी कुट्टमपुझा से 16 किलोमीटर दूर स्थित है और एक जीप को बस्ती तक पहुंचने में चार घंटे लगते थे, जिसमें बीहड़ इलाके को पार करना पड़ता था.

सिवन ने बताया कि किसी बीमार व्यक्ति को अस्पताल पहुंचाना सबसे चुनौतीपूर्ण काम है. हमें कॉलोनी तक पहुंचने के लिए जीप किराए पर लेने के लिए 4,500 रुपये का भुगतान करना होगा. जंगली जानवरों की मौजूदगी के कारण रात के समय यात्रा करना असंभव है. अगर जीप बीच रास्ते में खराब हो गई तो हम बिना मोबाइल कनेक्टिविटी के जंगल के बीच में फंस जाएंगे.

कुट्टमपुझा पंचायत की उपाध्यक्ष मैरी कुरियाकोस ने कहा कि स्थानीय संगठन विस्थापित आदिवासी परिवारों के लिए भूमि आवंटन के लिए लड़ रहा है.

उन्होंने कहा कि उनके बच्चों को पिनावूरकुडी, नेरियामंगलम, इडुक्की और एट्टुमानूर में छात्रावासों में ले जाया गया है. उनमें से कुछ तो पांच वर्ष तक के बच्चे है. अगर इन परिवारों को पंथपरा में भूमि आवंटित की जाती है तो बच्चे अपने माता-पिता के साथ रह सकेंगे और कुट्टमपुझा के स्कूलों में पढ़ सकेंगे.

पंथापरा में परिवारों को आवंटित भूमि पर 67 घरों में से 57 पूरे नहीं हुए हैं क्योंकि गोथरा जीविका योजना के तहत निर्माण कर रही सहकारी समितियों ने कोरोना महामारी के दौरान काम छोड़ दिया था. दस परिवारों ने काम के लिए अपनी जेब से भुगतान किया और नए घरों में चले गए.

एर्नाकुलम आदिवासी कल्याण अधिकारी अनिल भास्कर ने कहा कि मापिलापारा और मीनकुलम कॉलोनियों के 19 परिवारों के लिए भूमि आवंटन के आवेदनों को उप-विभागीय समिति द्वारा मंजूरी दे दी गई है. वे अब कलेक्टर की अध्यक्षता वाली जिला स्तरीय समिति के पास लंबित हैं. उन्हें ज़मीन आवंटित की गई क्योंकि पूरी कॉलोनी ने जंगल में अपनी ज़मीन खाली कर दी थी.

अनिल ने कहा कि सरकार ने 57 घर बनाने के लिए प्रत्येक को 52 हज़ार रुपये अतिरिक्त आवंटित किए थे. फंड मिलने के बाद काम छोड़ने वाली दोनों सहकारी समितियों के खिलाफ विभाग कानूनी कार्रवाई पर विचार कर रहा है.

उन्होंने कहा कि घरों के निर्माण में लगी पांच सहकारी समितियों में से तीन ने धन का उचित उपयोग किया. वे इस परियोजना को पूरा करने में लगे रहेंगे.

(Photo credit: The New Indian Express)

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