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‘भीम’ जिसने ‘जल जंगल ज़मीन’ के लिए जान दी, आदिवासी का आदर्श होना चाहिए

‘तुडुम’ की आवाज़ के साथ अन्दोलन की शुरुआत की गई. बाबेझारी और जोड़ेघाट में हमला करके गोंड सेना का विद्रोह आरंभ हुआ. इस विद्रोह के बारे में सुनकर निज़ाम सरकार भयभीत हो गयी और असिफाबाद कलेक्टर को भीम से समझौता करने को भेजा. 

“कोमाराम भीम” आदिवासी दिवस या अन्य महत्वपूर्ण आदिवासी समारोह में सामान्यतः हम यह नाम नहीं सुनते हैं. लेकिन शायद ही हम में से कोई उनके बारे में ज़्यादा जानता या समझता है. यह नाम दुर्लभ रूप में ही बिरसा मुंडा, बाबूराव शेडमाके, सिद्दू-कान्हू जैसे आदिवासी वीरों और नायकों के साथ लिया जाता है. 

जब कि आदिवासी स्वायत्तता के संघर्ष में कोमाराम भीम का एक महत्वपूर्ण योगदान रहा है. कोमाराम भीम आदिवासी स्वायत्तता के लिए ही शहीद भी हुए. किन्तु उनकी पहचान मुख्य रूप से केवल तेलंगाना/आंध्र प्रदेश की सीमाओं तक ही सीमित रही है. 

इसका एक कारण यह भी है कि उन पर लिखे ज्यादातर ऐतिहासिक लेख तेलुगु भाषा में है. अब तक उनका अनुवाद बहुत सीमित रहा है. ज़ाहिर है कि उनके इतिहास को भी बाकी आदिवासी नायकों  की तरह इतिहास की किताबों में उतनी जगह नहीं मिली है जितनी मिलनी चाहिए थी. 

हमारे देश में बहुत ही कम लोगों को यह बात पता है कि, ‘जल जंगल जमीन’ का नारा सबसे पहले कोमाराम भीम ने  ही 1940 में दिया था. निजाम के विरूद्ध उनके आंदोलन में उन्होंने तर्क दिया कि आदिवासियों को जंगल के सभी संसाधनों पर पूर्ण अधिकार दिया जाना चाहिए.

कोमाराम भीम गोंड समाज से थे और उनका जन्म संकेपल्ली, आदिलाबाद में 1900 इसवीं में हुआ था. आदिलाबाद जिला तेलंगाना की उत्तर दिशा में है और महाराष्ट्र की सीमा से सटा है. यह जगह गोंड समाज की महान नायिका जंगो रायतार  का जन्म स्थल भी है. 

जहाँ से उन्होंने गोंड समाज की रुढ़िवादी कुरीतियों के खिलाफ आन्दोलन छेड़ा और ‘रायतार’ नाम से प्रसिद्द हुईं. इस क्षेत्र में मुख्य रूप से गोंड समाज बसा हुआ है और यह पहले चांदा (चंद्रपुर, महाराष्ट्र) और बल्लालपुर के गोंड साम्राज्य के संप्रभुता के अधीन था.

भीम का बचपन बाहरी दुनिया से परे बीता, उन्होंने कोई औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं की और अपने समाज की कठिनाइयों और अनुभवों को देखते बड़े हुए. मैपति अरुण कुमार अपनी किताब ‘आदिवासी जीवना विद्धवंसम’ में लिखते हैं – भीम, जंगलात पुलिस (फ़ॉरेस्ट गार्ड), व्यवसायियों और ज़मीनदारों द्वारा गोंड और कोलाम आदिवासियों पर हो रहे शोषण को देखते हुए बड़े हुए. 

जीवन यापन के लिए वे एक स्थान से दूसरे स्थान भटकते और इस तरह खुद को व्यापारियों और अधिकारियों के शोषण और जबरन वसूली से भी खुद को बचाते. ‘पोडू’ खेती की फसल को निज़ाम के अधिकारी ले जाया करते थे और तर्क देते थे कि ये उनकी जमीन है. 

अवैध रूप से पेड़ों को काटने के इल्ज़ाम में वे आदिवासी बच्चों की उंगलियाँ तक काट देते थे. टैक्स की जबरन वसूली की जाती थी, अन्यथा फर्जी मुकदमे दायर कर दिए जाते थे. खेती के बाद हाथ में कुछ भी नहीं बचने पर लोग गाँव से पलायन करते लगे. 

कुमारम भीम जल जंगल और ज़मीन के संघर्षों के प्रतीक हैं

इन परिस्थितियों में, आदिवासियों के अधिकार के लिए लड़ने के कारण फारेस्ट अधिकारियों ने भीम के पिता की हत्या कर दी. अपने पिता की हत्या के बाद भीम बेहद क्रोधित थे. उनकी पिता की हत्या के बाद उनका परिवार संकेपल्ली से सरदारपुर चला गया।

उनके बारे में एक घटना का ज़िक्र ज़रूरी है. 1940 में अक्टूबर के महीने की बात है, एक दिन पटवारी लक्ष्मण राव निज़ाम पट्टादार सिद्दीकी अन्य 10 लोगों के साथ गाँव में आये और लोगों को गालियाँ देने लगे व खेती के बाद जबरन टैक्स वसूली के लिए परेशान करने लगे. लोगों ने इसका विरोध किया और इस संघर्ष में कोमाराम भीम के हाथों सिद्दीकी की मौत हो गयी.

इस घटना के बाद भीम अपने साथी कोंडल के साथ पैदल चलते हुए चंद्रपुर चले गए. वहां एक प्रिंटिंग प्रेस के मालिक ‘विटोबा’ ने उनकी मदद की और दोनों को अपने साथ ले गए. विटोबा उस समय निज़ाम और अंग्रेजों के खिलाफ एक पत्रिका चला रहे थे. 

विटोबा के साथ रहकर भीम ने अंग्रेजी, हिंदी और उर्दू सीखी. कुछ समय बाद, पुलिस ने विटोबा को गिरफ्तार कर लिया और प्रेस को बंद कर दिया. उसके बाद भीम मंचरियल (तेलंगाना) रेलवे स्टेशन में मिले एक युवक के साथ चाय बागान में काम करने के लिए असम चले गए. 

वहां उन्होंने साढ़े चार वर्षों तक काम किया और कार्यरत होते हुए चाय बागान के मजदूरों के अधिकारों के लिए मालिकों के खिलाफ विरोध भी किया. इस संघर्ष के दौरान भीम गिरफ्तार कर लिए गए. चार दिनों के बाद वे जेल से निकलने में कामयाब हुए और मालगाड़ी में सवार होकर बल्लारशाह (चंद्रपुर के पास एक जगह) स्टेशन पहुंचे.  

असम में रहने के दौरान उन्होंने अल्लूरी सीतारामराजू के बारे में सुना था, जो कि (आंध्र प्रदेश) में आदिवासियों के संघर्ष का नेतृत्व कर रहे थे.  उन्होंने रामजी गोंड से भी प्रेरणा पाई थी जिन्होंने आदिलाबाद में निज़ाम के अत्याचारों के खिलाफ आवाज़ उठायी थी. लौटने के बाद उन्होंने आदिवासियों के भविष्य के संघर्ष की योजना बनानी और लोगों को संगठित करना शुरू कर दिया.

वर्तमान तेलंगाना पहले निज़ाम के हैदराबाद राज्य का हिस्सा था. निज़ाम के शासनकाल के दौरान असह्य टैक्स लगाये जाते थे और आदिवासी समाज बड़े पैमाने पर जमींदारों के शोषण और अत्याचार का शिकार था.  

अपने ऊपर चल रहे इन अत्याचारों के बीच, भीम ने निज़ाम सरकार के खिलाफ वृहद् आन्दोलन की शुरुआत  की और उनकी सेना के खिलाफ गोरिल्ला वारफेयर (युद्ध) की तकनीक को अपनाया. जोड़ेघाट को अपने संघर्ष का केंद्र बनाते हुए उन्होंने 1928 से 1940 तक गोरिल्ला युद्ध जारी रखा.

असम से लौटने के बाद वे अपनी माँ और भाई सोमू के साथ काकनघाट चले गए. वहां उन्होंने लच्छू पटेल के साथ काम किया जो की देवदम गाँव के मुखिया थे. लच्छू ने भीम के शादी की जिम्मेदारी भी ली और उनका विवाह सोम बाई से करवाया. 

भीम ने लच्छू के जमीन से सम्बंधित मुकदमे को असिफाबाद के अमीनसाब के सामने रखने में मदद की. इस घटना ने भीम को आस पड़ोस के गाँव में लोकप्रिय बना दिया. कुछ समय बाद भीम अपने परिवार के साथ भाबेझारी चले गए और खेती के लिए जंगल की जमीन को साफ़ किया. 

पटवारी, जंगलात, चौकीदार फिर से फसल की कटाई के समय गाँव पहुंचे और उन्हें परेशान करने लगे. यह निज़ाम सरकार की जमीन है कहकर उन्होंने, भीम और उनके परिवार को वहां से निकलने की धमकी दी. इस सिलसिले में भीम ने निज़ाम से मुलाकात करने का फैसला किया ताकि वह आदिवासियों पर हो रहे अत्याचारों पर चर्चा कर सकें और न्याय की गुहार मांगें.

लेकिन भीम को उनसे मिलने की अनुमति नहीं मिली. बिना हतोत्साहित हुए भीम जोड़ेघाट लौटे और उन्हें महसूस हुआ कि निज़ाम सरकार के खिलाफ ‘क्रांति’ ही एकलौता समाधान बचा था. उन्होंने बारह गाँव (जोड़ेघाट, पाटनपुर, भाबेझारी, टोकेन्नावडा, चलबरीदी, शिवगुडा, भीमानगुंदी, कल्लेगाँव, अंकुसपुर, नरसापुर, कोषागुडा, लीनेपट्टेर) के आदिवासी युवाओं और आम लोगों को संगठित किया. 

इसके साथ ही भूमि अधिकारों के संघर्ष के लिए एक गुरिल्ला सेना का गठन किया. उन्होंने इस क्षेत्र को एक स्वतंत्र गोंडवाना राज्य घोषित करने की योजना को भी प्रस्तावित किया. कोमाराम भीम की यह मांग स्वतंत्र गोंडवाना राज्य की मांगों की श्रंखला में पहली थी.

‘तुडुम’ की आवाज़ के साथ अन्दोलन की शुरुआत की गई. बाबेझारी और जोड़ेघाट में हमला करके गोंड सेना का विद्रोह आरंभ हुआ. इस विद्रोह के बारे में सुनकर निज़ाम सरकार भयभीत हो गयी और असिफाबाद कलेक्टर को भीम से समझौता करने को भेजा. 

निज़ाम ने आश्वासन दिया कि आदिवासियों को भूमि पट्टा दिया जाएगा और अतिरिक्त भूमि कोमरम भीम को स्वशासन हेतु दी जाएगी.  लेकिन भीम ने उनके प्रस्ताव को नकार दिया और कहा कि उनका संघर्ष न्याय के लिए है. भीम ने झूठे आरोपों से गिरफ्तार किये गए लोगों को छोड़ने की मांग की, साथ ही सेल्फ-रूल (स्व शासन) की मांग को आगे रखते हुए निज़ाम को गोंड लोगों के स्थान से निकल जाने को कहा.

विद्रोह की शुरुआत  होते ही गोंड आदिवासियों ने अत्यंत उत्साह और जुनून के साथ अपने जमीन की रक्षा की. भीम के वक्तृत्व कौशल ने लोगों को जल-जंगल-जमीन के आन्दोलन से जुड़ने के लिए प्रोत्साहित किया.  आदिवासियों ने अपने भविष्य को बचाने के लिए लोगों ने आखरी सांस तक लड़ने का निश्चय किया. इसी समय कोमाराम भीम ने ‘जल – जंगल – जमीन’ का नारा भी दिया.

निज़ाम सरकार ने भीम की मांगों को ठुकरा दिया और गोंड आदिवासियों पर उत्पीड़न जारी रहा. इसके साथ ही निज़ाम सरकार, भीम को मारने की साजिश करने लगी. तहसीलदार अब्दुल सत्तार ने इस क्रूर षड्यंत्र को अंजाम दिया और कप्तान एलिरजा ब्रांड्स के साथ 300 सैनिकों को लेकर बाघेजारी और जोडेघाट की पहाड़ियों में भेज दिया. 

निज़ाम सरकार की सेना भीम और उनकी सेना को पकड़ने में नाकाम रही. इसलिए उन्होंने कुडु पटेल (गोंड) को  रिश्वत देकर उसे निजाम सरकार का मुखबिर बना लिया. जिसने उन्हें भीम की सेना के बारे में जानकारी प्रदान की।

1 सितम्बर, 1940 की सुबह में जोड़ेघाट की महिलाओं ने गाँव के आस पास कुछ सशस्त्र पुलिस कर्मियों को देखा था, जो कोमरम भीम की खोज में थे. भीम, जो अपने कुछ सैनिकों के साथ वहां ठहरे हुए थे, पुलिस के आने की खबर सुनकर सशस्त्र तैयार हो गए. हालांकि ज्यादातर सैनिक कुल्हाड़ियाँ, तीर-धनुष, बांस की छड़ी आदि ही जुटा पाए. 

आसिफाबाद तालुकदार – अब्दुल सत्तार ने एक दूत भेजकर भीम को आत्मसमर्पण कराने का प्रयास किया. तीसरी बार आत्मसमर्पण की मांग को ठुकराने पर, सत्तार ने सीधा गोली चलाने के आदेश दे दिए. भीम और उनके सैनिक बन्दूक के आगे असहाय थे और ज्यादा कुछ न कर सके. 

इस घटना में भीम के अलावा 15 सैनिक शहीद हुए. मारू और भादू, भीम के निकट सहयोगी बताते हैं कि, “पूर्णिमा के दिन हुई इस घटना से पूरे आदिवासी समाज में उदासी छा गई और मातम का माहौल बन गया.” 

शहीदों की लाश को बिना मृत्यु संस्कार के जला दिया गया था, इसलिए बहुत ही कम लोगों को शहीदों को देखने का मौक़ा मिला था. पूर्णिमा की उस रात में भीम के सैकड़ों अनुयायियों ने धनुष, तीर और भाले से पुलिस का बहादुरी से सामना किया और अपने जान की कुर्बानी दी.

कोमरम भीम के बारे में मौजूदा ऐतिहासिक लेखको का दावा है कि कोमाराम भीम एक “राष्ट्रवादी वनवासी” नेता थे जिन्होंने निज़ाम सरकार के खिलाफ संघर्ष किया. ये लोग दावा करते हैं कि भीम की नाराज़गी ‘हिन्दुओं’ पर हो रहे इस्लामी (निज़ाम) शोषण से थी, जिससे कि हिन्दू संस्कृति का ऱ्हास हो रहा था. 

लेकिन कोमाराम भीम के बारे में इस तरह की धारणा पूरी तरह से राजनीति से प्रेरित हैं. क्योंकि उनका संघर्ष प्राकृतिक संसाधनों यानि जल, जंगल और ज़मीन पर आदिवासी के अधिकार का था. उन्होंने निज़ाम से संघर्ष धार्मिक आधार पर नहीं किया था. 

गोंड समाज के नज़रिए से देखने पर, भीम का इतिहास हमें एक अलग ही चित्र दिखता है. यह बताता है कि ऐतिहासिक तथ्यों से छेड़छाड़ करके, भीम को ‘हिन्दू राष्ट्रवादी विचारधारा से जोड़ना कुछ इतिहासकारों का महज एक प्रोपगेंडा रहा है.

इन इतिहासकारों ने भीम को एक स्वतंत्र गोंड आदिवासी नेता के रूप में कभी स्वीकार नहीं किया. जबकि वास्तव में कोमाराम भीम का संघर्ष पूर्ण रूप से आदिवासियों पर हो रहे शोषण और अत्याचार के खिलाफ था, यह संघर्ष जल जंगल जमीन के अधिकार के लिए था. अपने लोगों की कल्पना में, भीम केवल अपने लोगों को ‘दिकु’ (बाहरी लोगों) से मुक्त कराने, उन्हें न्याय दिलाने और स्वशासन स्थापित करने के लिए संघर्ष कर रहे थे.

जमीन के अधिकार के लिए दशकों से चलते आ रहे आदिवासिओं के संघर्ष में कोमरम भीम के आन्दोलन का एक महत्वपूर्ण योगदान रहा है.  भीम हम सब के लिए एक क्रन्तिकारी मिसाल हैं। गौरतलब है कि, गोंड समाज में कोमाराम भीम की अत्यंत सम्मानजनक स्थिति है और उन्हें ‘पेन’ के रूप में स्वीकारा गया है. 

अश्वयुजा पूर्णिमा के दिन हर साल गोंड समुदाय कोमाराम भीम की पुण्यतिथि मनाता है और इस अवसर पर उनके जीवन और संघर्ष को याद करने के लिए जोड़ेघाट में एक समारोह का आयोजन किया जाता है. 

उनकी मृत्यु के 72 साल बाद, 2012 में भीम की मूर्ती को टैंक बैंड, हैदराबाद में स्थापित किया गया. आज हमारे समक्ष चल रही जल जंगल जमीन की लड़ाई में भीम सदैव आदिवासियों के लिए एक आदर्श रहेंगे.

(इस लेख में सभी विचार लेखक के निजी हैं.)

2 COMMENTS

  1. ” मैं भी भारत ”
    ‘मैं भी भारत टीम’ एवं ग्राउंड रिपोर्टर सम्मानीय श्री श्याम सुंदर जी को 2022 की महान पर्व दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ।
    महोदयजी मैं मध्यप्रदेश राज्य के जबलपुर संभाग के जिला मण्डला से हूं ।आप और आप की टीम को मण्डल जिला में आमंत्रित करना चाहता हूं।आप हमारा नियंत्रण सहर्ष स्वीकार करने की कृपा करें। मण्डला बाहुल्य आदिवासी जिला है यहाँ मुख्य रूप से गौड़, बैगा, प्रधान एवं माड़िया जनजाति निवासरत है। इस जिले में गौड़वंश राजा महाराजाओं के किले-महल विद्यमान हैं। राजाओं में – राजा शंकर शाह,राजा रघुनाथ शाह, राजा हृदय शाह ,राजा दलपत शाह, वीरांगना रानी दुर्गावती आदि रानी-राजाओं का गढ़ अनादिकाल में
    रहा आज भी राजाओं के पुरातात्त्विक स्मारक स्थित हैं।

  2. जहा तक मैं जानता हु की जल जमीन और जंगल का नारा कोमाराम भीम ने नही दिया है बल्कि रामजी गोंड ने दिया है इसके आधार पर एक मूवी भी बनी है जो की फिल्म के टाइटल के समय में ही बताया गया है की जल जमीन और जंगल का नारा रामजी गोंड ने दिया है आप लोग इस फिल्म के माध्यम से देख सकते है

    फिल्म का नाम है…. राजाकार..

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