HomeAdivasi Dailyकेरल: खेत में खेलने के लिए तीन आदिवासी बच्चों की पिटाई

केरल: खेत में खेलने के लिए तीन आदिवासी बच्चों की पिटाई

बच्चों के परिवार ने आरोप लगाया है कि उन्हें उनके पड़ोसी राधाकृष्णन ने पीटा था. राधाकृष्णन, जिसकी उम्र 40 साल है, ने बच्चों को लाठी से पीटा. उसने आरोप लगाया कि बच्चों ने उसके धान के खेत को नष्ट किया.

केरल के पहाड़ी जिले वायनाड में उसके धान के खेत में घुसकर खेलने के लिए एक आदमी ने तीन आदिवासी बच्चों की जमकर पिटाई की. घटना 15 अगस्त की है, और पुनिस ने मंगलवार को यह जानकारी साझा की.

पुलिस ने बताया कि घटना 15 अगस्त को सुल्तान बत्तेरी के पास केनिचिरा थाना क्षेत्र में हुई, जब दो छह साल के और एक सात साल का लड़का अपने घर के पड़ोस के धान के खेत में खेल रहे थे.

पुलिस ने कहा कि बच्चों के परिवार ने आरोप लगाया है कि उन्हें उनके पड़ोसी राधाकृष्णन ने पीटा था. राधाकृष्णन, जिसकी उम्र 40 साल है, ने बच्चों को लाठी से पीटा. उसने आरोप लगाया कि बच्चों ने उसके धान के खेत को नष्ट किया.

घटना का खुलासा तब हुआ जब बच्चों को पास के चिकित्सा केंद्र में इलाज के लिए ले जाया गया. पुलिस के मुताबिक़ बच्चों की हालत गंभीर नहीं है.

अस्पताल प्रशासन से मिली सूचना के बाद पुलिस ने एक बच्चे की मां के बयान के आधार पर मामला दर्ज कर जांच शुरू कर दी है. घटना के तुरंत बाद आरोपी फरार हो गया.

राधाकृष्णन पर एससी / एसटी अत्याचार अधिनियम और आईपीसी की धारा 324 (स्वेच्छा से खतरनाक हथियारों या साधनों से चोट पहुंचाना) के तहत मामला दर्ज किया गया है.

मनंतावड़ी के उपाधीक्षक एएस चंद्रन के नेतृत्व में एक पुलिस दल मामले की जांच कर रहा है.

आदिवासियों पर अत्याचार और एक तरह से उनपर हुकूमत करना लोग शायद अपना अधिकार मानते हैं. लेकिन वो भूल गए हैं कि यह आदिवासी ही इस ज़मीन के मालिक हैं.

वायनाड के आदिवासी

सरकारी अनुमान के मुताबिक़ केरल में लगभग 5 लाख आदिवासी रहते हैं और इस आबादी के क़रीब आधे ने वायनाड के अंदरूनी हिस्सों को अपना घर बनाया है.

आदिवासी वायनाड क्षेत्र के मूल निवासी हैं, लेकिन जब ब्रिटिश राज ने इस क्षेत्र के लिए रास्ते खोल दिए और यहां व्यावसायिक वृक्षारोपण शुरू हो गया, तो बाहर से कई लोग आकर यहां बस गए. 1940 के दशक के दौरान हुए इस प्रवास ने इलाक़े के आदिवासियों को उनकी ही ज़मीन से विस्थापित कर दिया. जनजातियों ने अपनी ज़मीन खो दी और उनकी आबादी में लगातार गिरावट होने लगी. नतीजा यह हुआ कि आदिवासी अब ज़िले की कुल आबादी का सिर्फ़ 20 प्रतिशत हैं.

जिले के मूल आदिवासी कई अलग-अलग समुदायों के हैं, जैसे पनिया, कुरुमा, अदियार, कुरिचिया, ऊरलि, काट्टुनायकन और उराली कुरुमा.

अपनी ज़मीन पर अधिकार खो चुके आदिवासी अब खेत मज़दूरों की तरह काम करते हैं. पनिया, जिसका मलयालम में अर्थ है काम करने वाला, मानते हैं कि दूसरों के लिए काम करना ही उनकी ज़िंदगी का मक़सद है. पीढ़ी-दर-पीढ़ी खेत मज़दूरी करते आए यह आदिवासी भूल चुके हैं कि वो कभी इसी ज़मीन के मालिक होते थे.

के रामकृष्णन द्वारा लिखी गई एक कविता है, कुरति. इसमें कुरवा आदिवासी समुदाय की एक महिला कहती है,

याद है, तुम कैसे बने?

हमने तुम्हारे लिए जंगली कंद पकाए, हमने जंगली धाराओं से तुम्हे साफ़ पानी दिया.

जब तुम उन्हें खाकर सो गए, तो हमने तुम्हारी रक्षा की जंगली जानवरों से,

जबकि हम खुद उनके लिए शिकार बन गए.

हमने तुम्हारे लिए हाथियों, कुत्तों, गायों को वश में किया.

हमने तुम्हारे लिए पेड़ काटे और घर बनाए.

हम सोचते थे तुम हम में से ही एक हो, लेकिन जब हम सोए, तो हम फंस गए.

तुमने हमें अपना नौकर बनाया, हमारी पीठ जला दी, हमारे ज्ञान को त्याग दिया और अब तुम हमारे मालिक हो.

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