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तमिलनाडु में आदिवासियों के लिए बनेगा आयोग, पर कागज़ी शेर ना साबित हो

वेधियक को पढ़ने के बाद आदिवासी नेताओं और कार्यकर्ताओं को डर है कि प्रस्तावित आयोग महज़ एक नौकरशाही व्यवस्था बन कर रह जाएगा. इसलिए उन्होंने राज्य सरकार से आग्रह किया है कि राज्य का नया आयोग राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग (NCSC) की तर्ज़ पर काम करे.

तमिलनाडु की DMK सरकार अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के कल्याण के लिए एक राज्य आयोग की स्थापना के लिए विधेयक पारित करने को तैयार है. लेकिन प्रस्तावित विधेयक के बारे में दलित और आदिवासी नेताओं और कार्यकर्ताओं ने कई चिंताएं जताई हैं.

वेधियक को पढ़ने के बाद इन नेताओं और कार्यकर्ताओं को डर है कि प्रस्तावित आयोग महज़ एक नौकरशाही व्यवस्था बन कर रह जाएगा. इसलिए उन्होंने राज्य सरकार से आग्रह किया है कि राज्य का नया आयोग राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग (NCSC) की तर्ज़ पर काम करे.

डीएमके सांसद रविकुमार ने न्यू इंडियन एक्सप्रेस को बताया, “बिल के बारे में मुख्य चिंता यह है कि इस आयोग का अध्यक्ष हाई कोर्ट का ऐसा रिटायर्ड जज हो, जो अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति से हो. लेकिन इन समुदायों से कुछ ही हाई कोर्ट जज हुए हैं. ऐसे में, अधिकांश मानदंडों को पूरा नहीं किया जा सकता.”

इसके अलावा, प्रस्तावित बिल में यह भी कहा गया है कि आयोग के अध्यक्ष 70 साल की उम्र तक और बाकि सदस्य 65 साल की उम्र तक पद पर रह सकते हैं. आदिवासी कार्यकर्ता मानते हैं कि जब नीति आयोग और एनसीएससी में भी कोई ऊपरी आयु सीमा नहीं है, तो इस आयोग में क्यों हो.

उनका मानना है कि उम्र की सीमा लागू होने से योग्य व्यक्ति पद पर नहीं रह पाएंगे, और आयोग का काम प्रभावित होगा. इसलिए, राज्य सरकार से मानदंड बदलने पर विचार करने को कहा जा रहा है.

पूर्व विधायक और रिपब्लिक पार्टी ऑफ इंडिया के अध्यक्ष, से कू तमिलरासन ने कहा, “हालांकि आयोग की स्थापना में देरी हुई है, लेकिन हम इसका स्वागत करते हैं. लेकिन योग्यता मानदंड उचित नहीं हैं. विधेयक में प्रस्ताव है कि आयोग के सदस्य तीन साल के लिए पद पर रहेंगे, और एक और कार्यकाल के लिए फिर से नामांकित हो सकते हैं.”

तमिलरासन का कहना है कि सरकार को उन्हें या तो सीधे छह साल या सिर्फ़ तीन साल के लिए नियुक्त करना चाहिए, और फिर से नामांकन पर रोक लगानी चाहिए. वो मानते हैं कि फिर से नामांकित होने की संभावना राज्य की सरकारों को सदस्यों पर दबाव बनाने का मौक़ा देगी.

अधिकांश दलित और आदिवासी कार्यकर्ताओं का मानना है कि प्रस्तावित विधेयक के अनुसार बनाया जाने वाले आयोग के पास ज़्यादा शक्तियां नहीं होंगी. इसलिए उनका अनुरोध है कि डीएमके सरकार विधेयक में संशोधन करे.

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