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ऑनलाइन के दौर में आदिवासी बच्चों का घाटा, जो सीखा था वो भी भूल गए हैं

दुम्बी गांव में करीब 300 की आबादी है, जिसमें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की मिश्रित आबादी है. जिनमें से अधिकांश आजीविका के लिए दैनिक मजदूरी के काम में लगे हुए हैं. उनके लिए शिक्षा देने की चुनौती बहुत बड़ी है. ई-लर्निंग के बारे में जागरूकता की कमी, स्मार्टफोन, कंप्यूटर, लैपटॉप जैसे उपकरणों की कमी और 'डेटा पैक' खरीदने में असमर्थता जैसे मुद्दे उन्हें परेशान करते हैं जिससे अक्सर परिवार परेशान रहते हैं.

झारखंड के लातेहार जिले के दुम्बी गांव की धनेश्वरी देवी कहती हैं, ”काश 16 महीने तक बंद रहने के बाद हमारे बच्चों के लिए प्राथमिक विद्यालय के दरवाजे खुल जाते और ऐसा नहीं हुआ तो युवा पीढ़ी हमेशा के लिए शिक्षा व्यवस्था से बाहर हो जाएगी.” यह कहानी है रांची से 130 किमी पश्चिम में स्थित एक आदिवासी बस्ती दुम्बी नक्सल प्रभावित संघर्ष क्षेत्र की जो पिछड़ेपन की निरंतर पकड़ का सामना कर रहा है.

धनेश्वरी देवी ने स्कूलों को फिर से खोलने की आवश्यकता पर जोर दिया है. क्योंकि उनका बेटा सुजीत जो तीसरी कक्षा का छात्र है उसकी पढ़ाई में गुणात्मक गिरावट देख रही हैं. कक्षाओं की दैनिक दिनचर्या प्रभावित होने के चलते वह अपने स्कूल की किताबों को भी पढ़ना भूल गए हैं.

सुजीत की स्थिति दूर-दूर तक फैली कोरोना महामारी के चलते अनिश्चितकालीन स्कूल बंद होने का परिणाम है. मार्च 2020 में देश के महामारी की चपेट में आने के बाद से पूरे भारत में स्कूल बंद कर दिए गए थे और सभी बच्चों की डिजिटल यानि ऑनलाइन पढ़ाई शुरू की गई.

(प्रतिकात्मक फोटो)

लेकिन धनेश्वरी जैसे गरीब परिवार डिजिटल विभाजन से बहुत प्रभावित हैं क्योंकि कक्षाएं ऑनलाइन हो गई हैं. धनेश्वरी के पति जो बैंगलोर में काम करते हैं और इस सीजन में घर में पैसे भेजने में असमर्थ हैं. ऐसे में उनके लिए ऑनलाइन कक्षाओं के लिए स्मार्टफोन उपलब्ध कराने का सवाल ही नहीं उठता. सुजीत जैसे बच्चों के लिए स्कूल में पढ़ने के दिन गए और कक्षा में शिक्षक के सामने शारीरिक रूप से उपस्थित होने के बजाय बच्चे हर दिन समूहों में घूम रहे हैं.

जैसा कि महामारी की दूसरी लहर कम होती दिख रही है. ऐसे में देश की कई राज्य सरकारों ने प्रतिबंध और लॉकडाउन हटा दिया है. इसे देखते हुए कई लोगों ने हाल ही में यह सवाल उठाया है कि स्कूल अभी भी बंद क्यों है.

19 जुलाई को नई दिल्ली में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS) के निदेशक ने कहा कि भारत को स्कूलों को फिर से खोलने पर विचार करना चाहिए. इसके बाद 4 अगस्त को विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की कोविड-विशेषज्ञ समिति की डॉ कैथरीन ओ ब्रायन ने कहा कि बच्चों के लिए स्कूल खोले जाएं.

(प्रतिकात्मक फोटो)

साथ ही उन्होंने कहा कि किशोरों या बच्चों को स्कूल जाने के लिए टीकाकरण की कोई आवश्यकता नहीं है…यह उनके आसपास के वयस्कों की सुरक्षा के बारे में है जिनको बीमारी जोखिम अधिक है.

दुम्बी गांव में करीब 300 की आबादी है, जिसमें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की मिश्रित आबादी है. जिनमें से अधिकांश आजीविका के लिए दैनिक मजदूरी के काम में लगे हुए हैं. उनके लिए शिक्षा देने की चुनौती बहुत बड़ी है.

ई-लर्निंग के बारे में जागरूकता की कमी, स्मार्टफोन, कंप्यूटर, लैपटॉप जैसे उपकरणों की कमी और ‘डेटा पैक’ खरीदने में असमर्थता जैसे मुद्दे उन्हें परेशान करते हैं जिससे अक्सर परिवार परेशान रहते हैं.

शुभम जो पांचवीं कक्षा का लड़का है वो गांव का एकमात्र बच्चा था जो अपनी किताब की पंक्तियों को धड़ल्ले से पढ़ सकता था. लेकिन टेक्नोलॉजी की कमी के चलते उसकी पढ़ाई नहीं हो पा रही है. धान के पौधे बोने के बाद खेतों से लौटे उनके पिता राम जतन कहते हैं कि वित्तीय संकट हमारे बच्चों की पढ़ाई में बाधा बन रहा है. शुभम के माता-पिता अब उसकी बंद की गई स्कूली शिक्षा को फिर से शुरू करने के तरीकों की तलाश कर रहे हैं.

(प्रतिकात्मक फोटो)

पूर्व केंद्रीय शिक्षा मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने पिछले साल संसद के पटल पर लंबे दावों के के साथ कहा था कि ऑनलाइन असुविधाओं के चलते कोई भी शिक्षा से वंचित नहीं रहा. लेकिन ऑनलाइन शिक्षा से सामाजिक रूप से हाशिए के बच्चों को हो रही दिक्कतें लगातार इस तरह के दावों को सिरे से खारिज करती हैं.

दुम्बी प्राइमरी स्कूल के शिक्षक मोहम्मद अलीमुद्दीन, जिन्हें दिसंबर 2020 में नियुक्त किया गया था वो स्कूल के बंद होने पर गहरी चिंता व्यक्त करते हैं. उनका कहना है कि लॉकडाउन के बाद बंद हुए स्कूलों के चलते बच्चे अपनी किताबों को पढ़ने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. बच्चे लंबे वक्त से बंद स्कूल के चलते सभी सीख भूल गए हैं.

गांव में 62 बच्चे प्राथमिक विद्यालय में नामांकित हैं और करीब सभी बुनियादी शिक्षा भूल गए हैं. साथ ही झारखंड में स्कूल छात्रों को पका हुआ भोजन और अंडे देकर पोषण में सुधार के प्रयास भी किए जा रहे थे. लेकिन पोषण वितरण का यह तरीका भी रुका हुआ है.

गांव वालों का कहना है कि राज्य सरकार ने किताबें, सूखा राशन जैसे चावल और नकदी उधार देने की कोशिश की है लेकिन ये उनकी आवश्यकताओं की तुलना में शायद ही पर्याप्त हैं.

नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन 2014 (NSSO) की रिपोर्ट में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि 32 मिलियन बच्चे महामारी से पहले ही स्कूल से बाहर थे. उनमें से अधिकांश देश में सामाजिक रूप से वंचित वर्गों से संबंधित थे. आने वाले वर्षों में इसके और खराब होने की आशंका है.

भारत स्थित कल्याण अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज ने स्कूल बंद होने के प्रभाव का विश्लेषण करने के लिए दुम्बी में प्राथमिक स्कूल के बच्चों का घर-घर जाकर सर्वेक्षण किया. न्यूज़क्लिक के साथ एक खास बातचीत में उन्होंने कहा, “उन बच्चों तक पहुंचने की कोशिश किए बिना 16 महीने तक स्कूल बंद करना जो ऑनलाइन अध्ययन करने में असमर्थ हैं एक बड़ा अन्याय है. स्कूली शिक्षा के इस निलंबन ने एकमात्र आशा को तोड़ दिया है कि गरीब माता-पिता को अपने बच्चों के जीवन में कुछ सुधार करना है. जैसा कि दुम्बी का अनुभव बताता है कि कई गरीब बच्चों ने स्कूल में पहले जो कुछ भी सीखा है उसे भूल रहे हैं.”

गांव का स्कूल बंद होने से बच्चों की पढ़ाई बहुत प्रभावित हुई है. गांव वालों का कहना है कि अगर स्कूल खुले होते तो बच्चे रोज कुछ न कुछ नया सीखते और कम से कम एक बार भोजन तो करते. लेकिन अब उनकी रोजाना की पढ़ाई की आदत भी खत्म हो गई है. पढ़ाई के लिए गैर-गंभीर माहौल ने उन्हें परिवार के काम का बोझ साझा करने के लिए प्रेरित किया है. बच्चे अब स्कूल न जाकर कामकाज में अपने माता-पिता की मदद कर रहे हैं.

संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि कम से कम 24 मिलियन बच्चे स्कूल छोड़ देंगे और महामारी के चलते लाखों बच्चे बाल श्रम में फंस सकते हैं. स्कूल जाने वाले लड़के परोक्ष रूप से घर के कामों में लगे हुए हैं जबकि लड़कियां घर की महिलाओं के साथ-साथ रोजमर्रा के कामों में भी हाथ बंटा रही हैं. महामारी के बाद से स्कूल नामांकन भी कम हो गए हैं. 

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