देश के अलग अलग आदिवासी इलाक़ों में मैं जहां भी गया, बहुत ही गर्मजोशी के साथ लोग मेरी टीम से मिले. झारखंड में उराँव आदिवासियों की पड़हा व्यवस्था पर लोगों से मिलने के दौरान पगड़ी पहना कर मेरा और मेरी टीम का स्वागत हुआ.
झारखंड में ही सरहूल पर्व के दौरान राँची ज़िले के एक गाँव में ढोल बाजे से हमारा स्वागत हुआ. असम के राभा और बोडो समुदाय से मिलने पहुँचे तो गमछा पहना कर परंपरागत तरीक़े से हमारा सम्मान किया गया.
अरुणाचल प्रदेश और नागालैंड में भी हर समुदाय ने बड़े प्रेम और गर्मजोशी के साथ मैं भी भारत की टीम का स्वागत किया था.
अरूणाचल प्रदेश के निशी समुदाय के नेता ने एक टोपी मुझे भेंट की तो नागालैंड के आओ समुदाय के आओला यानि चीफ़ ने एक परंपरागत दाव मुझे भेंट किया.
वहीं नागालैंड के ही कोनियाक चीफ़ जिन्हें अंग कहा जाता है उन्होंने भी परंपरागत टोपी पहना कर हमारा मान रखा.
दक्षिण भारत में आंध्रप्रदेश के विशाखापत्तनम की आरकु घाटी पहुँचे तो फूलों से हमारा स्वागत हुआ. इन आदिवासियों ने हमारे स्वागत में परंपरागत नाच-गाना भी किया था.
इसके साथ ही ओड़िशा में पॉरजा और धुरवा आदिवासियों ने भी परंपरागत अंदाज़ में मेरी टीम का गर्मजोशी से वेलकम किया था.
लेकिन फिर भी इस सफ़र में कुछ ऐसा भी घटता रहा जिसके लिए मुझे आदिवासी समाज से माफ़ी माँगनी है. खासतौर से आदिवासी महिलाओं से मैं माफ़ी माँगना चाहता हूँ.
इन घटनाओं को थोड़ा सिलसिलेवार तरीक़े से रखने की कोशिश करता हूँ. तब शायद मेरे लिए कहना आसान होगा और आपके लिए समझना आसान होगा.
असम के कोकराझार के संथाल, मुंडा और खड़िया जैसे आदिवासी समुदाय यहाँ 100 बरस से भी अधिक समय से बसे हैं.
चाय बाग़ानों में मज़ूदरी करने और जंगल काटने के लिए लाए गए ये आदिवासी खेती किसानी भी करते हैं. असम में रहने वाले इन आदिवासियों ने अब असमिया या बोडो भाषा बोलना समझना सीख लिया है.
लेकिन उनके खान-पान, समाजिक धार्मिक आस्थाएँ अभी भी मज़बूत हैं. इन गाँवों में आपको लगेगा कि आप झारखंड के ही आदिवासियों के बीच हैं. लेकिन इन आदिवासियों को अभी भी यहाँ जनजाति का दर्जा नहीं मिला है.
असम की राजनीति में इन आदिवासियों की काफ़ी पूछ होती है….राजनीतिक दलों की तरफ़ से इन आदिवासियों को जनजाति का दर्जा देने का वादा किया जाता है.
लेकिन यह एक उलझा हुआ और पेचीदा मामला है. इसलिए टलता रहता है. इन आदिवासियों का यह दावा कितना मज़बूत है इसकी पड़ताल के सिलसिले में हमने इन आदिवासियों के कई गाँवों में इनकी जीवनशैली को रिकॉर्ड किया.
कई गाँवों और चाय बाग़ानों में चर्चा का आयोजन किया. कई जनप्रतिनिधियों को इन आयोजनों में दावत दी और वो आए भी.
इसी तरह के एक आयोजन में संथाल आदिवासियों ने जनप्रतिनिधियों और और हमारी टीम का स्वागत परंपरागत नाच-गाने से किया. लेकिन इस कार्यक्रम की शुरुआत में सबसे पहले संथाल महिलाओं ने सभी मेहमानों के पैर धोए.
जब ये महिलाएँ पैर धोने के लिए आगे बढ़ीं तो मैं काफ़ी असहज महसूस कर रहा था. मैंने वहाँ गाँव के लोगों से कहा भी कि क्या यह ज़रूरी है.
तो उनका जवाब हाँ में था. उनका कहना था कि यह उनकी परंपरा का हिस्सा है और अगर हम उनकी परंपरा को दिखा ही रहे हैं तो हमें यह भी रिकॉर्ड करना चाहिए और दिखाना चाहिए.
असम के चायबागानों में काम करने वाले आदिवासियों के बाद कुछ ऐसी ही पशोपेश की स्थिति झारखंड में आई. हाल ही में हम झारखंड गए थे और वहाँ ट्राइबल किचन में कई आदिवासी परिवारों से आपकी मुलाक़ात हमने कराई थी.
उसमें तीन नाम सलोनी, अनुरंजना और दीप्ति तिर्की आपको याद होंगे. क्योंकि ये तीनों ही महिलाएँ कितनी ख़ूबसूरत बातचीत कर रही थीं.
आप सबने इनकी खूब तारीफ़ भी की है. सलोनी एक स्कूल में पढ़ाती हैं, दीप्ति तिर्की पढ़ लिख कर नौकरी करना चाहती हैं.
अनुरंजना ने बताया कि हर महीने 26 तारीख़ को उनके गाँव में ग्राम सभा होती हैं. इन महिलाओं के मन में एक बेहतर भविष्य की आकांक्षा हैं. वो सजग हैं. इन महिलाओं और ख़ासतौर से अनुरंजना से भी मैं माफ़ी माँगता हूँ.
हजाम गाँव में अनुरंजना के घर पर महिलाओं ने गीत गा कर हमारा स्वागत किया. उसके बाद मुझे बैठा कर मेरे हाथ धोए गए. तौलिए से इन महिलाओं ने मेरे हाथ पोंछे.
मैंने अनुरंजना से आग्रह किया था कि शायद इसकी ज़रूरत नहीं है, लेकिन उन्होंने मुझे समझाया कि आप इससे असहज ना हों…क्योंकि यह आदिवासी परंपरा है. इस स्वागत के बाद अनुरंजना से खाना बनाते हुए बातचीत हुई थी. वो एक पढ़ी लिखी और अपने परिवार, गाँव और समुदाय के अधिकारों के प्रति काफ़ी सचेत भी हैं.
मेरे लिए यह कहना मुश्किल है कि आदिवासी परंपरा में मेहमानों के पैर धोना महिलाओं की ज़िम्मेदारी में कब और कैसे शामिल हुआ होगा. लेकिन मुझे लगता है कि अब यह सिलसिला थम जाना चाहिए.
जिस आदिवासी समाज में महिलाओं की बराबरी का दावा किया जाता है उस समुदाय में इस परंपरा को कैसे सही ठहराया जा सकता है. मुझे लगता है कि यह सिलसिला काफ़ी समुदायों में अब थम भी गया है.
ओडिशा के हो आदिवासी किसी ज़माने में आज के झारखंड के सिंहभूम से पलायन कर आए थे. हाल ही में मेरी उनसे मुलाक़ात हुई और वहाँ मैंने यह बदलाव नोटिस किया.
बालेश्वर ज़िले के नीलगिरी ब्लॉक के गोविंदपुरा गाँव में जब हम एक हो आदिवासी परिवार से मिले तो यहाँ भी हमारा परंपरागत तरीक़े से ही स्वागत हुआ.
बस एक छोटा सा फ़र्क़ था, यहाँ हमें एक लोटे में पानी ला दिया गया. पानी दे कर मामी सिंह ने हमें जोहार से अभिवादन किया.
इसके बाद हमने अपने हाथ पैर धोए और उसके बाद पानी पिया. लेकिन इस छोटे से फ़र्क़ को मैं एक बड़े बदलाव के तौर पर देखता हूँ. इस परिवार ने अपनी महिलाओं को परंपरा के नाम पर मेहमान के पैर धोने के लिए नहीं कहा.
मुझे आज लगता है कि मुझे असम में या झारखंड में आदिवासी महिलाओं को परंपरा के नाम पर मेरे हाथ पैर धोने से रोकना चाहिए था.
शायद मुझे अड़ जाना चाहिए था. मैंने ऐसा नहीं किया. इसके लिए मैं माफ़ी माँगता हूँ, लेकिन क्या मेरे अड़ जाने से कोई फ़र्क़ पड़ता…शायद नहीं. मुझे लगता है कि किसी भी समुदाय को अपना उद्धार ख़ुद ही करना होता है.
इस सवाल पर भी आदिवासी समुदाय को ही तय करना है कि क्या परंपरा के नाम पर अपने समुदाय की महिलाओं से मेहमानों के पैर धुलवाने की प्रथा को अब बंद नहीं कर दिया जाना चाहिए.
आदिवासी समाज में पैर धोना,हाथ धोना व पोछ्ना तथा लोटा में पानी देना ,ये तीनोंं प्रक्रिया किया जाता है, घर पर आए मेहमानों को अगर इस तरीके से स्वागत नहीं किया जाए तो बुजुर्गो का मानना है कि हमारा मान सम्मान व इज्जत नहीं किये शायद हमारा मेहमान जाना उन्हें पसन्द नहीं आया ऐसा मानते है ,और अगली बार मौका मिलने पर भी उनके घर जाना नहीं चाहते हैं।
पैर धोना,हाथ धोना या लोटे पर पानी देना अपनो को आत्मियता से जोड़ता है।
सर आप हताश मत होइए ,आपको और आपकी टीम को वो लोग साो –साल तक नहीं भूलेंगे।