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छत्तीसगढ़ में बैगा जनजाति को मिला पर्यावास अधिकार (Habitat Rights), इसके मायने क्या हैं

सोमवार यानी 9 तारीख को बैगा जनजातियों को पर्यावास अधिकार मिला है. इसके साथ ही बैगा जनजाति ऐसी दूसरे जनजाति है जिससे यह अधिकार मिला है. इस अधिकार से बैगा जनजाति को वन बचाव के लिए भी अधिकार मिलेगा.

बैगा आदिवासी को विशेष रुप से पिछड़ी जनजाति की श्रेणी में रखा गया है. यानि ये आदिवासी अभी भी सामाजिक-आर्थिक तौर पर पिछड़े माने जाते हैं.

यह पाया जाता है कि इन आदिवासियों के इलाकों में मूलभूत सुविधाओं का भी अभाव रहता है. लेकिन जब चुनाव आता है तो तब कम से कम इन जनजातियों की चर्चा ज़रूरी होती है.

ऐसा ही चुनावी राज्य छत्तीसगढ़ (Chhattisgarh) में देखा गया है. जहां अगले महीने होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले बैगा जनजातियों (Baiga Tribe) को राज्य में आवास अधिकार मिला है.

सोमवार यानी 9 अक्टूबर को बैगा विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह (PVTG) को राज्य में पर्यावास अधिकार (Habitat rights) मिला है. जिसके बाद यह कमार पीवीटीजी के बाद राज्य में आवास अधिकार पाने वाला दूसरा समूह बन गया.

यह विशेष अधिकार इस समुदाय के कुल 19 बैगा गांवों को मिला है और इन गांवों में लगभग 2,085 परिवार रहते हैं, जिनकी आबादी 6,483 है.

गौरेला-पेंड्रा-मरवाही (GPM) जिला प्रशासन द्वारा आयोजित एक विशेष कार्यक्रम में गौरेला ब्लॉक के इन गांवों, पारा या टोलों को अधिकार प्राप्त हुए है.

बैगा समुदाय मुख्य रूप से राज्य के राजनांदगांव, कवर्धा, मुंगेली, गौरेला-पेंड्रा-मरवाही (जीपीएम), मनेंद्र-भरतपुर-चिरमिरी और बिलासपुर जिलों में निवास करता है. मध्य प्रदेश में बैगा समुदाय निकटवर्ती जिलों में भी रहता है.

क्या है आवास अधिकार

आवास अधिकार के अंतर्गत समुदायों को उनके निवास के पारंपरिक क्षेत्र, सामाजिक-सांस्कृतिक प्रथाओं, आर्थिक और आजीविका के साधनों, जैव विविधता और पारिस्थितिकी के बौद्धिक ज्ञान, प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग के पारंपरिक ज्ञान के साथ-साथ उनकी प्राकृतिक और सांस्कृतिक विरासत की सुरक्षा और संरक्षण पर अधिकार प्रदान करता है.

यह अधिकार जनजातियों को अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम की धारा 3 (1) (ई) के तहत पीवीटीजी को आवास अधिकार 2006 के अंतर्गत दिया जाता है. इस अधिकार को एफआरए (FRA) यानी वन अधिकार अधिनियम भी कहते हैं.

इसके साथ ही एफआरए की धारा 2 (एच) के मुताबिक आवास में आरक्षित वनों और संरक्षित वनों में आदिम जनजातीय समूहों और पूर्व-कृषि समुदायों और अन्य वन निवासी अनुसूचित जनजातियों के प्रथागत आवास और ऐसे अन्य आवास शामिल हैं.

पर्यावास अधिकार पीढ़ियों से चले आ रहे पारंपरिक आजीविका और पारिस्थितिक ज्ञान की रक्षा और प्रचार करते हैं. वे पीवीटीजी समुदायों को उनके आवास विकसित करने के लिए सशक्त बनाने के लिए विभिन्न सरकारी योजनाओं और विभिन्न विभागों की पहलों को एकजुट करने में भी मदद करते हैं.

आवास अधिकार को मान्यता देने वाले राज्य

भारत में 75 पीवीटीजी में से सिर्फ तीन समूह के पास ही पर्यावास अधिकार हैं. मध्य प्रदेश में भारिया पीवीटीजी को पहले से ये अधिकार मिला हुआ है. इसके बाद छत्तीसगढ़ की कमार जनजाति और अब बैगा जनजाति इस सूची में शामिल हो गई है.

छत्तीसगढ़ में सात पीवीटीजी हैं. जो राज्य के 33 जिलों में से 17 में रहते हैं. इन सब के नाम कमार, बैगा, पहाड़ी कोरबा, अबूझमाड़िया, बिरहोर, पंडो और भुजिया है.
सर्वेक्षण के हिसाब से 2015-2016 में छत्तीसगढ़ में पीवीटीजी जनजातियों की कुल जनसंख्या 2.50 लाख है. जबकि 2011 की जनगणना के अनुसार छत्तीसगढ़ में आदिवासियों की जनसंख्या 78.22 लाख है.

सरकार की पर्यावास निर्धारण प्रक्रिया

दरअसल यूएनडीपी (UNDP) यानी संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के परियोजना प्रमुख बिभोर कुमार देव, जो पर्यावास अधिकार (Habibat rights) कानून को लागू करने के लिए प्रशासन को तकनीकी सहायता प्रदान कर रहे हैं.

उन्होंने कहा है कि यह प्रक्रिया एमओटीए द्वारा 2014 में इस उद्देश्य के लिए दिए गए विस्तृत दिशानिर्देश पर आधारित होता है.

इसके साथ ही उन्होंने कहा है की MoTA दिशानिर्देशों के आधार परजनजाति के पारंपरिक आदिवासी नेताओं से उनकी संस्कृति, परंपराओं, व्यवसाय की सीमा के बारे में परामर्श किया जाता है और सरकार द्वारा इसकी पुष्टि की जाती है. इसके बाद फिर एक पर्यावास घोषित किया जाता है.

इसके साथ ही चार राज्य-स्तरीय विभाग (Four state-level departments) जो की वन, राजस्व, जनजातीय और पंचायती राज है. यह सारे विभाग यूएनडीपी (UNDP) टीम के साथ समन्वय कर रहे हैं ताकि यह पता लगाया जा सके कि निवास स्थान किसे कहा जा सकता है.

छत्तीसगढ़ में पीवीटीजी को आवास अधिकार देने की प्रक्रिया कब शुरू हुई?

सूत्रों के मुताबिक इन अधिकारों को देने के लिए पहला परामर्श दिसंबर 2021 में शुरू हुआ. पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर सरकार ने कमार जनजातियों के साथ शुरुआत की गई. यह एक लंबी और थकाऊ प्रक्रिया है.

लेकिन पायलट प्रोजेक्ट के बाद यह प्रक्रिया और तेज़ हो सकती है. पीवीटीजी अंतर्मुखी और आरक्षित हैं. संबंध बनाना और उनसे प्रतिक्रिया प्राप्त करना काफी मुश्किल काम है. वे अपनी ही दुनिया में रहते हैं और वे बहुत ही बुनियादी जीवनशैली अपनाकर खुश हैं.

चार जिलों में कमार जनजातियों की आबादी 26 हज़ार 622 है. अब तक धमतरी जिले के मगरलोड विकासखंड के मगरलोड उपक्षेत्र के लगभग 2500 लोगों की आबादी वाले 22 टोलों को आवासा अधिकार मिल चुका है. साथ ही 88 हज़ार 317 बैगा जनजातियों में से 6 हज़ार 483 को यह मिल चुका है.

क्या खनन पर पर्यावास अधिकार का कोई असर होगा?

भारत के सर्वोच्च न्यायालय में एक वकील और केंद्रीय जनजातीय मामलों के मंत्रालय के पूर्व कानूनी सलाहकार शोमोना खन्ना ने कहा है कि यह बात तो है की आवास अधिकार पीवीटीजी को उनके आवास के लिए हानिकारक विकासात्मक गतिविधियों से बचाने में मदद करेंगे. क्योंकि भले ही जनजातियों का जमीन पर अधिकार ना हो पर अगर जमीन पर कुछ भी बनेगा तो ग्राम सभा की भी राय और अनुमति लेनी पड़ेगी.

इसके साथ ही उन्होंने यह भी बताया है की वन अधिकारों को वन संरक्षण अधिनियम, 2013 के भूमि अधिग्रहण कानून और यहां तक कि एससी/एसटी अत्याचार निवारण कानून के तहत कानूनी सुरक्षा प्राप्त है. कार्यवाही करना वन अधिकार अधिनियम के तहत आवास अधिकार प्रदान करना कानूनी सुरक्षा की एक अतिरिक्त परत प्रदान करता है.

कौन है बैगा

बैगा जनजाति एक पीवीटीजी (PVTG) यानी विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह है. इन्हें पांडा नाम से भी जाना जाता है और यह एक जातीय समूह हैं.

यह जनजाति ख़ासतौर पर मध्य भारत के मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ राज्य में रहते हैं. इसके अलावा यह जनजाति आसपास के और भी कई राज्यों में रहते है. जिसमें उत्तर प्रदेश और झारखंड शामिल है.

यह जनजाती मध्य प्रदेश के डिंडोरी ज़िले और बालाघाट ज़िले के बैगा-चक में रहते हैं और पूर्वी भाग के घने पहाड़ी जंगलों में भी निवास करते हैं.

इस जनजाति की उपजातियां भी हैं. वह बिझवार, नरोतिया, भरोतिया, नाहर, राय भैना और कध भैना आदि है. 2011 की जनगणना के मुताबिक इनकी संख्या 17 हज़ार 387 है.

बैगा जनजाति की जीवन शैली

बैगा जनजाति वन क्षेत्रों में झूम खेती करती हैं और इनका यह मानना है कि उन्होंने कभी धरती को नहीं जोता क्योंकि यह उनकी मां की छाती को खरोंचने के समान होता है.

वे अपनी मां यानि बार-बार धरती के एक ही टुकड़े से भोजन पैदा करने के लिए नहीं कह सकते क्योंकि वह कमज़ोर हो जाती है.

इसके चलते बैगा अर्ध-खानाबदोश जीवन जीते है और बेवार या ‘दहिया’ खेती करते थे. मतलब आक्रामकता से नहीं बल्कि सम्मान से खेती-किसानी करते हैं. ये तकनीकें जिन्हें ‘स्विडन’ कृषि के रूप में भी जाना जाता है.

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