ये मांकड़िया आदिवासी बरसों बाद आज फिर से नाच- गा रहे हैं. लेकिन इन गीतों की आवाज़ बामुश्किल कानों तक पहुँचती है. इनके नगाड़ों और ढोल का करारापन ग़ायब है और नगाड़े पर कसा गया चमड़ा ढीला पड़ चुका है.
शायद किनारे से गल भी गया है और उसमें सुराख़ हो गए हैं. जिन्हें टेप से ढका गया है. ढोल पर पड़ रही हाथों की थाप में कोई गति नज़र नहीं आती है.
ढोल बजाने वाला बेमन से थाप दे रहा है. नाचती इन महिलाओं और ढोल बजाते पुरूषों के पैर लय में चल रह हैं. लेकिन गति और ऊर्जा की कमी महसूस होती है, पता नहीं इन आदिवासियों के गीत और नाच के बारे में किसी संस्थान, लेखक या फिर एंथ्रोपोलोजिस्ट ने कुछ रिकॉर्ड किया है या नहीं किया है.
अगर नहीं तो फिर यह काम करने के लिए समय ज़्यादा नहीं है, अब ये आदिवासी नाचते नहीं हैं. इस मांकडिया बस्ती में भावविहीन चेहरे नज़र आते हैं, ना कोई आकांक्षा और ना ही जीने की कुछ ख़ास वजह.
सरकार ने जंगल से निकाल कर इंदिरा आवास योजना में एक छोटे कमरे का घर दे दिया है…जिसमें संपत्ति के नाम पर खाना बनाने के लिए एक दो बर्तन और चूल्हा मिलता है. राइट टू फ़ूड के तहत कम से कम पेट भर चावल मिल जाता है, जिस पर मुर्ग़े भी झपटते रहते हैं.
कुपोषण की वजह से की तरह की बीमारी इन आदिवासियों में जानलेवा साबित होती हैं. मांकडिया आदिवासी जंगलों में रहने और जीने वाले आदिवासी थे. जंगल में इन आदिवासियों का समय अपने परिवार के लिए खाना जुटाने में ही जाता था.
ऐसा नहीं था कि ये आदिवासी बाहरी दुनिया से बिलकुल कटे हुए थे. लेकिन यह संपर्क सीमित और ज़रूरत भर का था. रस्सी बनाने में माहिर ये आदिवासी जंगल में मिलने वाली बेलों की छाल उतार कर उससे रस्सी बनाते.
इन रस्सियों के ख़रीदार जंगल के आस-पास का खेतीहर समुदाय था. इन रस्सियों के बदले वो किसानों से धान या ज़रूरत की दूसरी चीजें लेते. इन आदिवासियों के खाने में जंगल में मिलने वाले जंगली आलू यानि कांदे और फल और कई तरह के पत्तों का साग शामिल था.
लेकिन ये आदिवासी मांसाहारी भी हैं. बंदर का मांस इनका पसंदीदा खाना था, यह भी कहा जाता है कि इसलिए ही इनका नाम भी मांकड़िया पड़ा है.
हमने ओडिशा और कई राज्यों में पीवीटीजी की श्रेणी में रखे गए आदिवासियों में मलेरिया, टीबी और कुपोषण के अलावा एक और बीमारी देखी है. यह बीमारी है अवसाद या डिप्रेशन.
लेकिन अफ़सोस की इस बीमारी की इन आदिवासियों के लिए योजना बनाने वालों को भनक तक नहीं है या फिर वो पूरी तरह से डिनायल मोड में हैं.
इन आदिवासियों की घटती जनसंख्या और डूबते समाज को बचाने की ज़िम्मेदारी सँभालने वाले इन आदिवासियों को मुख्यधारा में जोड़ने पर पूरा ज़ोर लगा रहे हैं. इसमें काफ़ी पैसा भी ख़र्च किया जा रहा है. सरकार यह ख़र्च वर्षों से कर रही है.
मसलन मांकडिया आदिवासी समुदाय के बच्चों को आधुनिक शिक्षा देने के लिए हॉस्टल युक्त स्कूल बनाए गए हैं. लेकिन इन आदिवासियों के बच्चों को स्कूल तक कैसे लाया जाए और कैसे उन्हें स्कूल में रोका जाए इसका उपाय किसी को नहीं सूझ रहा है.
मांकडिया और विशेष रूप से पिछड़े दूसरे आदिवासी समुदायों से मुलाक़ात में हमें ज़्यादातर समुदायों में अवसाद यानि डिप्रेशन एक कॉमन प्रॉब्लम नज़र आई. इसकी कुछ मोटी वजह गिनवाने की कोशिश करें तो सबसे पहली वजह समझ में आती है विस्थापन और जीवनशैली में बदलाव.
सिलसिलेवार देखें तो जंगल में खाने की तलाश में भटकने वाले इन आदिवासियों को सरकार ने एक स्थाई जीवन देने की कोशिश की है. इस कोशिश की तारीफ़ की जा सकती थी.
लेकिन इन्हें स्थाई जीवन देने के प्रयासों में आधे मन से किए गए. इनको खेती किसानी या नए रोज़गार की तरफ़ मोड़ने या फिर आधुनिक शिक्षा और बेहतर जीवन का सपना पालने के लिए प्रेरित करने से जुड़ी योजनाएँ बेईमानी और भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई हैं और यह सिलसिला बदस्तूर जारी है.
हालात यहाँ तक पहुँच गए हैं कि इन आदिवासियों की जनसंख्या में नकारात्मक वृद्धि दर दर्ज की जा रही है, 2011 के जनगणना आँकड़ों के अनुसार इनकी कुल जनसंख्या मात्र 2222 दर्ज हुई थी.
मांकडिया आदिवासी विस्थापित होकर उलझ गये है, विस्थापन की प्रकिया ने उनकी सोच,विश्वास जंगल के प्रति उनका लगाव ,उनकी जीवनशैली, उनके मन की चंचलता को छीन लिया है ,जो उनके नाच गानों में उभर कर दिखता है।
माकडिया आदिवासियों अपने अस्तित्त्व को बचाने के लिए संघर्ष कर रही है।उनकी भावनाओं को समझने की जरुरत है।उन्हें साथ देकर सरकारी योजनाओं को उनके गांव तक पंहुचाने की आवश्यकता है।