HomeGround Reportफागुन और चैत्र महीने से त्रिपुरा की आदिवासी औरतें क्यों डरती हैं

फागुन और चैत्र महीने से त्रिपुरा की आदिवासी औरतें क्यों डरती हैं

फागुन और चैत्र का महीना त्रिपुरा में आदिवासी औरतों को डराता है. यह समय सूखे का होता है. इन दो महीनों में आदिवासी औरतों की मेहनत कई गुना बढ़ जाती है.

त्रिपुरा के पहाड़ी इलाक़ों में बसे आदिवासियों के लिए फ़रवरी और मार्च का महीना काफ़ी मुश्किल और मशक़्क़त भरा होता है. त्रिपुरा में यह सूखे का मौसम होता है जब झरने, नदी और कुएँ सब कुछ सूख जाता है.

इस राज्य में इन दो महीनों में पहाड़ों में बसे आदिवासी परिवारों की महिलाओं की मुसीबत बढ़ जाती हैं. क्योंकि उन्हें दिन के कई घंटे परिवार के लिए पीने का पानी जमा करने में ख़र्च करना पड़ता है.

इसके लिए उन्हें काफ़ी दूर तक पैदल चलना पड़ता है.  इस मौसम में आदिवासी औरतों को गढ्ढों में पानी तलाश करना पड़ता है. इन गड्ढों से पानी भर कर पहाड़ी रास्ते से घर लौटना भी काफ़ी मशक़्क़त भरा काम होता है.

त्रिपुरा राज्य में प्रकृति ने यहाँ के जंगल में बसे आदिवासियों के जीने के पर्याप्त इंतज़ाम किये हैं. उनके खाने पीने के लिए जंगल में कई तरह के फल-फूल और साग मिलते हैं.

इन जंगलों में बहुत ही अच्छी क्वालिटी का बांस भी मिलता है. बांस आदिवासी के घर बनाने से ले कर खाने तक के काम आता है. यहाँ के आदिवासी जंगलों से फल, सब्ज़ियां और बांस लाते हैं.

अन्य आदिवासी समुदायों की तरह त्रिपुरा में परिवार के लिए भोजन का इंतज़ाम करना महिलाओं के हिस्से में आता है. पीढ़ियों से ये महिलाएँ यहाँ के जंगलों से परिवार के लिए भोजन जुटाती रही हैं.

लेकिन फ़रवरी महीना आते आते आदिवासी महिलाओं का मुश्किल वक़्त शुरू हो जाता है. क्योंकि इस महीने से इन स्त्रियों के लिए परिवार का भोजन जुटाना ही नहीं बल्कि पीने का पानी लाना भी बड़ा काम हो जाता है. 

ढलाई ज़िले के एक गांव में रहने वाली अशिरंग रियांग कहती हैं, “चैत्र और फागुन के महीने में मुश्किल बहुत ज़्यादा बढ़ जाती है. उस समय पानी मिलना बहुत मुश्किल होता है. पानी के लिए जंगल में नदी किनारे जाना पड़ता है. वहां गड्डा खोद कर पानी निकालते हैं. हमारे गांव में एक पंप लगाया गया था लेकिन उस पंप का पानी तो पीने लायक ही नहीं है.”

इसी गांव की अलिरंग रियांग कहती हैं, “पानी की तलाश में बहुत दूर दूर तक जाना पड़ता है. कभी नदी किनारे गड्डा खोद कर तो कभी तालाब के किनारे गड्डा खोद कर पानी तलाश करना पड़ता है. कभी कभी तो ऐसा होता है कि सुबह पानी लेने जाते हैं और आते आते दोपहर हो जाती है. यह हर साल की कहानी है हमें पीने के पानी के लिए धक्के खाने ही पड़ते हैं. हम लोगों को मजदूरी के लिए जाना पड़ता है. इसलिए कई बार बच्चों को पानी भरने के काम पर लगाना पड़ता है. इसलिए हमारी सरकार से गुहार है कि हमारे गांव में पीने के पानी का इतज़ाम कर दे.ठ

और पढ़े: आदिवासी औरतों का संघर्ष: कस्टमरी लॉ बनाम मौलिक अधिकार

त्रिपुरा के आठ ज़िलों में से ढलाई और खोवाई में पीने के पानी का सबसे ज़्यादा संकट है. इन दोनों ज़िलों की जनसंख्या क़रीब 7 लाख है. इन दो ज़िलों में भी ढलाई ज़िले का संकट गंभीर रहता है. ढलाई ज़िले में 56 प्रतिशत जनजातीय जनसंख्या रहती है.

आदिवासियों में यहाँ पर त्रिपुरी, रियाज़, कोलों और चकमा समुदाय के लोग रहते हैं. त्रिपुरा के इन दो ज़िलों में जनवरी से लेकर मार्च महीने तक 1.44 सेंटीमीटर से 6.48 सेंटीमीटर तक ही बारिश होती है.

अप्रैल के महीने में स्थिति सुधरनी शुरु होती है जब क़रीब साढ़े 14.91 सेंटीमीटर तक बारिश होती है. यहाँ पहाड़ी ढलानों पर पानी ठहरता नहीं है, लेकिन कम से कम झरनों और तालाबों में पानी भर जाता है.

मुख्यमंत्री माणिक साहा ने साल 2023 में केंद्रीय जल शक्ति मंत्रालय की तरफ़ से त्रिपुरा राज्य में पीने के पानी के लिए 2000 करोड़ रुपये के प्रावधान को ऐतिहासिक बताया था.

उन्होंने यह भी बताया था कि राज्य में कम से कम 56 प्रतिशत घरों में पाइप के ज़रिए पीने का पानी पहुँचा दिया गया है. राज्य सरकार का यह दावा भी है कि वह वक़्त अब चला गया जब ग्रामीण इलाक़ों में महिलाओं को पीने के पानी के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती थी.

इस सिलसिले में सरकार ने यह माना था कि फ़रवरी मार्च में पहाड़ी इलाक़ों में पानी का गंभीर संकट रहता है. सरकार ने इस बारे में दावा किया था कि 36 ग्राम पंचायतों में 100 प्रतिशत घरों में पीने का पानी पाइप के ज़रिये पहुँचा दिया गया है और जल्दी ही हर घर तक नल से पानी पहुँच रहा होगा.

खोवाई ज़िले के बिलाईहम कामी गाँव में लोग फूल झाड़ू बनाते हैं. क्योंकि यह सूखे का मौसम होता है तो खेतों में कोई और काम नहीं रहता है. यह फूल झाड़ू बना कर लोग बाज़ार में बेचते हैं. इ

इससे उनको कुछ आय हो जाती है. गाँव में कुल 150 परिवार हैं और सभी झूम खेती पर निर्भर हैं. इस गाँव में भी पानी की सप्लाई का इंतज़ाम किया गया था. लेकिन गाँव के लोगों का कहना है कि पानी पीने के लायक़ नहीं है.

यहां के कोसोराई रियांग कहते हैं, “इस गाँव में क़रीब 150 परिवार रहते हैं. यहाँ पर पानी की सप्लाई है लेकिन यह पानी पीने के लायक़ नहीं है. मैं कई बार इस पानी के सैंपल पानी सप्लाई ऑफिस में ले गया हूँ. लेकिन उसके बाद भी यहाँ पर कोई सुधार नहीं हुआ है. मजबूरी में हमें गड्डा खोद कर पानी लाना पड़ता है. क्योंकि सप्लाई का पानी पीने लायक़ नहीं है.”

त्रिपुरा में अभी भी सैंकड़ों ऐसे जनजातीय गाँव हैं जहां पर घरों तक सुरक्षित पीने का पानी नहीं पहुँचा है. उन्हें मजबूरी में गड्डों से पानी पीना पड़ता है. लेकिन अफ़सोस की बात ये है कि जहां पीने का पानी पहुँचा भी है वह पीने लायक़ नहीं है.

ऐसा लगता है कि पीने के पानी के लिए जो बोरिंग लगाए गए हैं उनका मक़सद ठेकेदारों को लाभ पहुँचाना ज़्यादा और आदिवासियों को पीने का पानी पहुँचाना शायद ज़्यादा रहा है.

सरकार जल सेवा विभाग के लोग यह मानते हैं कि कई गाँवों में जो पीने का पानी है उसको पीने लायक़ बनाने के लिए वॉटर ट्रीटमेंट प्लांट लगाना ज़रूरी है. लेकिन यह काम हो नहीं रहा है, जबकि कई गाँवों में हमें लोगों ने यह बताया कि उन्होंने अपने गाँव में सप्लाई के पानी का सैंपल विभाग के कार्यालय में जमा कराया है.

फ़िलहाल राज्य में लोकसभा चुनाव के लिए नया गठबंधन बन रहा है और जनजातीय लोगों के अधिकार और सुविधाओं की बातें हो रही हैं….लेकिन जब हमने DWS यानि Department of Water Supply के अधिकारियों से बात करने की कोशिश की तो वे कन्नी काट गए. 

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