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डोंगरिया कौंध : गाय पालते हैं दूध के लिए नहीं बल्कि..छोड़िए आप बुरा मान जाएँगे

हमने उस लड़के से पूछा कि क्या हम उनके साथ गाँव के पीछे वाले पहाड़ पर जा सकते हैं जहां दावत की तैयारी हो रही है. लड़का कुछ झिझक रहा था, उसने हमारे ड्राइवर को स्थानीय भाषा में कुछ बताया, तो ड्राइवर के भाव बता रहे थे कि वो भी सोच में पड़ गया है. मैंने उससे पूछा कि बात क्या है? उसने कहा कि लड़का आपको वहाँ ले जाने को तो तैयार है, लेकिन आप सोच लो कि क्या आप वहाँ जाना चाहते हैं ? मैंने उससे पूछा, क्यों नहीं जाना चाहेंगे? तब उसने बताया कि दरअसल गाँव और मेहमानों की दावत के लिए वहाँ पर गाय काटी गई है.

ओडिशा के कोरापुट ज़िले से आरकु लौटते हुए हम बालडा ना्म की एक जगह पर रूक गए थे. आरकु को कोरापुट से जोड़ने वाली सड़क किनारे बसा यह गाँव अब एक क़स्बे में तब्दील हो चुका है. जनवरी का महीना था लेकिन धूप इतनी तेज़ थी कि बर्दाश्त करना मुश्किल हो रहा था.

लेकिन इस चिलचिलाती धूप में स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया की यहाँ एक ब्रांच के बाहर सैकड़ों लोग लाइन में लगे थे. शायद मनरेगा (MNREGA) की मज़दूरी या फिर किसी सब्सिडी का पैसा खाते में आया था. 

हमें यहाँ से एक छोटे से गाँव में जाना था, सो रास्ता पूछने के लिए हम यहाँ पर रूक गए थे. सड़क किनारे टुक टुक (ऑटो रिक्शा) खड़े थे, सभी ड्राइवर एक ही टुक टुक में बैठे गप्प लगा रहे थे. वो शायद इंतज़ार कर रहे थे कि लोगों का बैंक में काम ख़त्म हो तो सवारी ले कर निकलें.

इन लोगों से जामगुड़ा का रास्ता पूछा तो पता चला कि वहाँ तक हमारी गाड़ी तो नहीं जा पाएगी. अलबत्ता टुक टुक से पहुँचने का प्रयास किया जा सकता है. 

कोई रास्ता ना देख हमने एक टुक-टुक के ड्राइवरों से कहा कि कोई ऐसा आदमी हमारे साथ चले, जो पहले उस गाँव जा चुका हो. उनमें से एक ड्राइवर आगे आया और उसके साथ 700 रूपये का भाड़ा तय हो गया.

हम अपनी गाड़ी वहीं छोड़ मुख्य सड़क से दाईं तरफ़ मुड़कर जामगुड़ा गाँव की तरफ़ निकल पड़े. कई छोटे छोटे गाँवों और बस्तियों से होते हुए हम कुछ देर बाद उजाड़ इलाक़े में दाख़िल हो चुके थे.

ज़मीन पथरीली थी और झाड़ चारों तरफ़ नज़र आ रहे थे. लेकिन बड़े पेड़ बहुत ज़्यादा नहीं थे. बीच बीच में कुछ धान के खेत भी दिखाई दे रहे थे लेकिन ये खेत साइज़ में काफ़ी छोटे थे.

आगे बढ़े तो एक गहरा नाला पड़ा जिसमें फ़िलहाल थोड़ा ही पानी बह रहा था. गाँव के लोगों ने इतना रास्ता बनाया हुआ था कि टुक टुक पार हो सकता था. नाले में उतरते हुए तो ठीक था, लेकिन जब चढ़ाई आई तो लग रहा था कि टुक टुक के फेफड़े जवाब दे जाएँगे और उसका दम निकल जाएगा.

लेकिन ऐसा हुआ नहीं और हम यह नाला भी पार कर गए. नाले को पार करने के बाद जामगुड़ा पहुँचने में बहुत देर नहीं लगी थी. 

जामगुड़ा में रास्ते के दोनों तरफ़ एक दूसरे सटी हुई झोपड़ी थीं. बल्कि इन्हें झोपड़ी कहना भी ग़लत ही होगा, इन्हें झुग्गी ही कहा जा सकता है. इस गाँव में कुल 10-12 परिवार होंगे. जब हम यहाँ पहुँचे तो बस्ती में पूरी तरह से सन्नाटा पसरा था.

हम जिस समय यहाँ पहुँचे थे तो हमें बहुत ज़्यादा लोगों के मिलने की उम्मीद भी नहीं थी. क्योंकि दिन के क़रीब 12 बजे थे और इस वक़्त ज़्यादातर लोग बस्ती की बजाए जंगल में मिलते हैं. 

लेकिन बस्ती में कोई नज़र ही नहीं आएगा यह तो हमने नहीं सोचा था. हम बस्ती के एक कोने पर खड़े सोच रहे थे कि अब यहाँ तक आ तो गए लेकिन किया क्या जाए? 

जामगुड़ा डोंगरिया कौंध आदिवासियों का गाँव है. डोंगर पहाड़ को कहा जाता है और कौंध इस जनजाति का नाम है. क्योंकि ये आदिवासी पहाड़ी जंगलों में रहते आए हैं इसलिए इनका नाम डोंगरिया कौंध हो गया है.

हम लोग आपस में बात ही कर रहे थे कि किसी घर में झांका जाए या फिर आवाज़ लगाई जाए, दाईं तरफ़ के घरों के पीछे की तरफ़ के पहाड़ से एक लड़का उतरता दिखाई दिया. वो सीधा हमारी तरफ़ ही चला आ रहा था. 

हमारे पास पहुँचा तो थोड़ा सा हैरान नज़र आ रहा था. उसने बताया कि वो टुक टुक की आवाज़ सुन कर आ गया है. उसे लगा था कि उनके मेहमान आ गए हैं. हमने उससे पूछा कि क्या वो मेहमानों का इंतज़ार कर रहे थे.

उसने हाँ में जवाब देते हुए बताया कि आज बस्ती में दावत है और उसकी तैयारी बस्ती के पीछे की पहाड़ी पर चल रही है. गाँव के सभी मर्द वहीं पर जमा हैं. गाँव की ज़्यादातर औरतें जंगल गई हैं दोने और पत्तल बनाने के लिए पत्ते लाने.

हमने उस लड़के से पूछा कि क्या हम उनके साथ गाँव के पीछे वाले पहाड़ पर जा सकते हैं जहां दावत की तैयारी हो रही है. लड़का कुछ झिझक रहा था, उसने हमारे ड्राइवर को स्थानीय भाषा में कुछ बताया, तो ड्राइवर के भाव बता रहे थे कि वो भी सोच में पड़ गया है.

मैंने उससे पूछा कि बात क्या है? उसने कहा कि लड़का आपको वहाँ ले जाने को तो तैयार है, लेकिन आप सोच लो कि क्या आप वहाँ जाना चाहते हैं ? मैंने उससे पूछा, क्यों नहीं जाना चाहेंगे? तब उसने बताया कि दरअसल गाँव और मेहमानों की दावत के लिए वहाँ पर गाय काटी गई है. 

यह कहने के बाद वो हमारी तरफ़ देखता रहा था. मैंने अपने टीम के कैमरामैनों की तरफ़ देखा, दोनों ने कहा चलते हैं सर…मिल लेते हैं. फिर हम उस लड़के के साथ बस्ती के पीछे जंगल में पहुँच गए. 

बस्ती से सटी इस पहाड़ी ढलान पर झाड़ काट कर डाले गए थे, जिस पर मांस के ढेर लगाए गए थे. एक आदमी मीट के अलग अलग टुकड़ों की ढेरी बना कर रख रहा था. पत्थरों से बनाए गए कई चूल्हों पर मीट पकाया जा रहा था.

लेकिन कोई बड़ा पतीला नहीं था. घर में इस्तेमाल होने वाले पतीलों में ही मांस पक रहा था. प्याज़, लहसुन या फिर मसालों के नाम पर कुछ ख़ास नहीं था. नमक, हल्दी और मिर्ची थी. तेल भी इस्तेमाल नहीं किया जा रहा था. 

यहाँ पर गाँव के लोगों से बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ तो पता चला कि गाँव के एक परिवार की लड़की शादी के बाद पहली बार घर लौट रही है, इसलिए गाँव के लिए दावत रखी गई है.

गाँव के लोगों के अलावा लड़की की ससुराल से भी कुछ मेहमान आएँगे. इन लोगों से बातचीत में पता चला कि ये आदिवासी त्यौहार या फिर शादी ब्याह के सामूहिक भोज में गाय या सूअर का मीट पकाते हैं. 

क़रीब 5 साल पहले जब हम कोरापुट आए थे तो यह बात हमें यहाँ के आदिवासी समुदायों पर शोध कर पीसी महापात्रा ने बताई थी. उनसे हमने पूछा था कि आख़िर यहाँ के आदिवासी समुदायों के लिए चलाई जा रही इतनी योजनाओं के बावजूद उनकी हालत बदलती क्यों नहीं है.

इसके जवाब में उन्होंने कहा था कि दरअसल जो योजनाएँ आदिवासियों के लिए बनती हैं उसमें आदिवासी समुदायों की जीवनशैली और सामाजिक व्यवस्था का ध्यान नहीं रखा जाता है.

उन्होंने कहा आगे कहा था कि जब योजना बनाने वालों को पता चलता है कि कोरापुट में विशेष रूप से पिछड़ी जनजाति जिन्हें आदिम जनजाति भी कहा जाता है, गाय पालते हैं तो उन्हें दुधारू गाय देने का फ़ैसला कर लिया जाता है.

उन्होंने डिडायी आदिवासी समुदाय का उदाहरण दिया था. लेकिन योजना बनाने वाले यह नहीं समझ पाते हैं कि ये आदिवासी दूध नहीं पीते हैं, वो मानते हैं कि गाय का दूध उसके बछड़े और बछिया के लिए होता है. 

ये आदिवासी समुदाय खेत में इस्तेमाल करने के लिए या फिर मांस के लिए गाय बैल पालते हैं. अन्य समुदायों की तरह यहाँ दुधारू पशु नहीं पाले जाते हैं. यहाँ जैसे भेड़ बकरी पाली जाती है वैसे ही गाय बैल भी पाले जाते हैं. दुधारू पशुओं के रख रखाव के लिए जो किया जाता है वैसा इन समुदायों में नहीं मिलता है. 

उन्होंने जो कहा था वो हम देख रहे थे. उनकी यह बात बिलकुल सही थी कि यह समाज दुधारू पशु नहीं पालता है. क्योंकि हमें इस गाँव में या किसी और आदिवासी गाँव में कोई नाँद या खोर नज़र नहीं आई जो पशुओं को चारा डालने के लिए बनाई गई हो.

डोंगरिया कौंध आदिवासियों के इस गाँव में हम पूरा दिन रहे, इनसे ख़ूब बातें हुईं. इस बातचीत में जो हमें समझ में आया, उसमें दो बातें थी. पहली कि ये आदिवासी अभी भी मुख्यधारा कहे जाने वाले समाज से एक दूरी बनाने की कोशिश करते हैं.

क्योंकि उन्हें लगता है कि मुख्यधारा का समाज उनको स्वीकार करने की बजाए उन पर अपने जीवन मूल्य थोपने की कोशिश करता है और वो क्या खाते हैं, उस आधार पर उनके बारे में राय बनाता है. 

दूसरी बात यह समझ में आई कि जब तक यह दूरी बनी रहेगी, इन आदिवासियों को मुख्यधारा में शामिल करने या फिर इनके लिए रोज़गार के स्थाई साधन (sustainable livelihood means) पैदा करना चुनौती बना रहेगा.   

3 COMMENTS

  1. Shyam Sundar ji bahut sahi baat aap ne kahi hai…unki parampara aur riwaz, khaan-paan ye sab unki bahumulya dharohar hai jise ve kisi keemat me chodna nahi chahte…aur hamari mukhya dhara bahut chaudi hai aur unki bhara bahut patli, par unke liye mulyawan…kyu ki agar wo mukhya dhara se judenge to unki ye dhara hamesha ke liye samapt ho jayegi..
    Naamo nishan mit jayega lakho saal purani sanskriti aur riwazo ka….

  2. I don’t want to comment on their lifestyle like what they eat? what they wear?how they react to outsiders? But I really want appreciate your work Shyam Sundar ji,I do watch all your episodes of Tribal Kitchen,in today’s time when people having power wants to colour every Indian in same color,when there is constantly attack on diversity of India,you are the best among those who are trying to show and keep our unity in diversity. Thanks a lot,Jai Hind

  3. Its the reality of mulicultural India where one should not be judged merely on the basis of their fooding and living habits.

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