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राजद्रोह (section 124A) पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का आदिवासियों के लिए क्या मायने हैं

आदिवासी इलाक़ों में ज़मीन अधिग्रहण और विस्थापन का संघर्ष पुराना है. आर्थिक तरक़्क़ी की रेस तेज़ होने के साथ ही ये मसले और ज़्यादा बढ़ रहे हैं. इसके अलावा आदिवासी इलाक़ों में विशेष संवैधानिक और क़ानूनी प्रावधान हैं. जब जब आदिवासी इन प्रावधानों और क़ानूनों के तहत अपने अधिकार माँगते हैं, राज्य और आदिवासियों के बीच संघर्ष होता है.

2017 में झारखंड के खूँटी ज़िले में आदिवासियों ने अपने गाँवों के बाहर बड़े बड़े पत्थर गाड़ दिए. इन पत्थरों पर भारत के संविधान की अनुसूची 5 ( Schedule 5) के प्रावधानों को लिखा गया था. यह एक आंदोलन था जिसके ज़रिए आदिवासी संविधान में दिए स्वायत्ता के अधिकार का इस्तेमाल कर रहे थे.

इस आंदोलन को पत्थलगड़ी (Pathalgadi) आंदोलन के नाम से जाना गया. जब आदिवासियों ने अपने संवैधानिक अधिकार और स्वायत्ता का इस्तेमाल किया तो पुलिस ने इस आंदोलन को कुचलने में पूरी ताक़त लगा दी.

इस क्रम में कम से कम 10 हज़ार लोगों के ख़िलाफ़ भारत के दंड विधान की धारा 124 ए (Section 124 A, Indian Penal Code ) के तहत मुकदमे दर्ज कर लिए गए. यानि इस आंदोलन में शामिल नेताओं, कार्यकर्ताओं के साथ साथ आम आदिवासी नागरिकों पर राजद्रोह का आरोप लगा दिया गया. 

2019 में झारखंड में विधानसभा चुनाव हुए और सत्ता बदल गई. नई सरकार ने अपने वादे के अनुसार पत्थलगड़ी से जुड़े ज़्यादातर मुक़दमे वापस ले लिये. लेकिन मुक़दमे झेल रहे लोगों को काफ़ी परेशान होना पड़ा. 

पत्थलगड़ी मामले में राजद्रोह क़ानून (Sedition Law) का इस्तेमाल राजनीतिक कारणों से हुआ था. झारखंड के विधानसभा चुनाव में सरकार बदल गई और इस कानून की मार झेल रहे आदिवासियों को राहत मिली.

राजद्रोह क़ानून की तलवार आदिवासी इलाक़ों में काम करने वाले नेताओं, कार्यकर्ताओं पर हमेशा लटकी रहती है. इन नेताओं और कार्यकर्ताओं में राजनीतिक और सामाजिक संगठन से जुड़े लोग शामिल हैं. 

राजद्रोह क़ानून और आदिवासी

11 मई 2022 को सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह क़ानून को होल्ड पर रख दिया. यानि जब तक केन्द्र सरकार इस क़ानून पर पुनर्विचार की प्रक्रिया पूरी नहीं कर लेती है तब तक इस भारतीय दंड विधान की धारा 124A यानि राजद्रोह क़ानून का इस्तेमाल नहीं हो सकता है. 

आदिवासियों के संदर्भ में इस क़ानून पर बहस बेहद ज़रूरी है. इस बात में कोई दो राय नहीं है कि इस क़ानून का इस्तेमाल लगभग सभी राज्यों की पुलिस खुल कर करती रही है. लेकिन आदिवासी इलाक़ों में दो कारणों से इस क़ानून पर चर्चा होनी ज़रूरी है.

पहला कारण है कि आदिवासी इलाक़ों में ज़मीन अधिग्रहण और विस्थापन का संघर्ष पुराना है. आर्थिक तरक़्क़ी की रेस तेज़ होने के साथ ही ये मसले और ज़्यादा बढ़ रहे हैं. इसके अलावा आदिवासी इलाक़ों में विशेष संवैधानिक और क़ानूनी प्रावधान हैं. 

आदिवासी की ज़मीन का अधिग्रहण और विस्थापन देश के कई राज्यों में बड़ा मसला है.

जब जब आदिवासी इन प्रावधानों और क़ानूनों के तहत अपने अधिकार माँगते हैं, राज्य और आदिवासियों के बीच संघर्ष होता है. 

दूसरा कारण है कि आदिवासी इलाक़ों में शिक्षा और संसाधनों की कमी है. आदिवासी आबादी की अदालतों तक पहुँच कम है. इसके अलावा अदालतों में लड़ाई पेचीदा और महँगी होती है. आदिवासी इन दोनों ही मोर्चे पर मार खाते हैं.

हाल ही में आंध्र प्रदेश के जेल महानिदेशक की रिपोर्ट से पता चलता है कि आदिवासियों को इंसाफ़ मिलना कितना मुश्किल है. इस रिपोर्ट से पता चलता है कि कई आदिवासी जो 13-14 साल से जेल में हैं उन्हें एक बार भी पैरोल नहीं मिली है.

इस तरह के कै़दियों में से ज़्यादातर क़ानून के तहत किए गए प्रावधानों के बारे में जानते ही नहीं हैं. दूसरा मसला इस रिपोर्ट में बताया गया है कि जो क्रिमिनल जस्टिस व्यवस्था की जो पेचीदगी है उससे आदिवासी निपट ही नहीं पाते हैं. 

आदिवासी ना तो बड़े वकीलों का इंतज़ाम कर पाते हैं और ना ही ज़मानत के लिए ज़रूरी शर्तों को पूरा कर पाते हैं. इस रिपोर्ट में और भी कई तथ्य हैं जिनसे पता चलता है कि आदिवासी कैसे मामूली मामलों में भी सालों तक जेलों में सड़ते रहते हैं. 

यह एक रिपोर्ट है जिसका हम यहाँ ज़िक्र कर रहे हैं. लेकिन देश में जेलों में बंद सारे आँकड़े इस से भी भयावह तस्वीर पेश करते रहे हैं. इस पृष्ठभूमि में हमने यह समझने की कोशिश की है कि क्या सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला आदिवासियों, उनके नेताओं या फिर आदिवासियों में काम करने वाले कार्यकर्ताओं, सामाजिक संगठनों और पत्रकारों के लिए कुछ मायने रखता है.

सोनी सोरी क्या कहती हैं

सोनी सोरी पर 2011 में राजद्रोह का मुक़दमा लगाया गया था. उन पर आरोप था कि वो माओवादियों के लिए पैसा इकट्ठा करती हैं. क़रीब 11 साल तक सोनी सोरी ने यह मुक़दमा झेला. दो महीने पहले ही एक अदालत ने सोनी सोरी को इस मामले में बरी कर दिया. 

सोनी सोरी बेशक अपने आप को निर्दोष साबित करने में कामयाब रहीं हैं. लेकिन उन्होंने इसकी बड़ी क़ीमत चुकाई है. सोनी सोरी पर हिरासत में जो पुलिस अत्याचार की कहानी है वो व्यवस्था के प्रति घिन पैदा कर देती है. 

सोनी सोरी एक अध्यापक थी जो स्कूल में बच्चों को पढ़ाती थी. एक महिला जो समाज और बच्चों के लिए एक आदर्श थी उसे पुलिस ने देशद्रोही बना दिया. सोनी सोरी ने हिम्मत नहीं हारी और वो लड़ती रहीं. लेकिन क्या यह सबके लिए संभव है.

सोनी सोरी ने 11 साल तक राजद्रोह का मुक़दमा लड़ा

अब जब सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह क़ानून के इस्तेमाल पर रोक लगा दी है तो सोनी सोरी क्या कहती हैं. MBB से बात करते हुए सोनी सोरी ने कहा, “ यह हम जैसे आदिवासी कार्यकर्ताओं के लिए एक अच्छी ख़बर है. लेकिन हमें यह ध्यान रखना होगा कि सुप्रीम कोर्ट ने समय समय पर कई गाइडलाइन जारी की हैं. लेकिन पुलिस इन गाइडलाइन्स को नहीं मानती है. जब हम पुलिस के सामने यह बताते हैं कि सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइन क्या हैं तो भी वो सुनते नहीं हैं.”

वो आगे कहती हैं, “ मुझे उम्मीद है कि इस मामले में ऐसा नहीं होगा. मेरा अपना अनुभव तो यही कहता है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की भी अवहेलना कर दी जाती है. सरकार ने ना जाने कितने आदिवासियों को राजद्रोह और यूएपीए (UAPA) के तहत गिरफ़्तार करके जेल में डाला हुआ है.”

सोनी सोरी कहती हैं, “ सरकार को आदिवासियों की ज़मीन चाहिए. जब आदिवासी विरोध करते हैं तो उन्हें राजद्रोह और दूसरे सख़्त क़ानूनों के तहत गिरफ़्तार कर जेल में डाल दिया जाता है. आदिवासी कम पढ़ा लिखा होता है इसलिए अपने लिए लड़ ही नहीं पाता है. हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक तो उनकी पहुँच ही नहीं है. आदिवासी 10-15 साल के लिए जेल चला जाता है और सरकार को माइनिंग के लिए ज़मीन मिल जाती है.

MBB से बात करते हुए सोनी सोरी ने कहा कि कई मामलों में तो पुलिस आदिवासियों पर राजद्रोह के मुक़दमे क़ायम कर देती है. लेकिन उन मामलों में कोई जाँच तक नहीं होती है. 

बेला भाटिया और दूसरे वकील क्या कहते हैं

बेला भाटिया एक जानी मानी मानवाधिकार कार्यकर्ता और वकील हैं. बेला भाटिया ज़मीन अधिग्रहण, विस्थापन और आदिवासियों के ख़िलाफ़ अत्याचारों पर लिखती बोलती रही हैं. इसके अलावा आदिवासियों की क़ानूनी लड़ाई में भी वो शामिल रहती हैं.

बेला भाटिया

राजद्रोह के सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर MBB ने उनकी प्रतिक्रिया माँगी. उनका कहना था, “मैं इस फ़ैसले का स्वागत करती हूँ और साथ ही यह उम्मीद करती हूँ की अब अंग्रेजों का बनाया यह क़ानून हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएगा. मुझे यह भी उम्मीद है कि इसी तरह से कई और काले क़ानून मसलन UAPA या फिर छत्तीसगढ़ का CSPSA पर भी इसी तरह का फ़ैसला हो. तभी बस्तर के हज़ारों विचाराधीन आदिवासी क़ैदियों को राहत मिल सकेगी.”

बेला भाटिया ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद अब इस तरह के मामलों में उनके जैसे वकील जो आदिवासियों के लिए लड़ते हैं अदालतों में इस फ़ैसले का हवाला दे सकेंगे. 

झारखंड में सामाजिक कार्यकर्ता और वकील रोहित ठाकुर राजद्रोह के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से बहुत ज़्यादा उत्साहित नहीं हैं. वो कहते हैं कि फ़ैसला अच्छा है लेकिन इसका ज़मीन पर बदलाव में कोई भूमिका होगी, ऐसी उम्मीद वो नहीं करते हैं.

वो कहते हैं कि बेशक एक वकील के तौर पर अब अदालत में कम से कम वो राजद्रोह के मामलों में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का हवाला दे सकते हैं. लेकिन वो साथ साथ कहते हैं कि आपने देखा है कि बड़े नेता और कार्यकर्ता कब से जेल में पड़े हैं.

हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट कहीं से उन्हें ज़मानत नहीं मिल रही है. 

1 COMMENT

  1. Report me apne jis sarkari rukh aur policia tareka ka ullekh kiya hai ye asobhniya lekin satya hai..adiwasi sadev hi loote aur chale gaye hai…siksha aur kranti hi iska ekmatra upay hai ….kyunki neyay bewastha par vishwas to hai..lekin wahan tak jane se pehle hi bina janch ke aap kaal kothri me dhakel diye jayenge.

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