ओड़िशा के मल्कानगिरी ज़िले की पहाड़ियों में बसे बोंडा आदिवासियों में कोविड संक्रमण पहुँच गया है. इस ख़बर से भारत ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चिंता व्यक्त की जा रही है.
इसकी वजह है कि इस आदिम जनजाति की आबादी में गिरावट पहले से ही चिंता की बात रही है. अब कोरोना संक्रमण इनके अस्तित्व को ही ख़तरा पैदा कर सकता है.
बुधवार को बोंडा घाटी में पूरा प्रशासनिक अमला पहुँचा. यहाँ पहुँच कर कुछ बोंडा आदिवासियों का कोरोना टेस्ट किया गया.
इसके अलावा प्रशासन ने कहा कि इन आदिवासियों को बाहर ना जाना पड़े इसलिए उन्हें ज़रूरत की सारी चीजें घर पर ही पहुँचाई जाएँगी.
स्थानीय प्रशासन के अनुसार अभी तक बोंडा आदिवासियों में कोविड इंफ़ेक्शन के कम से कम 12 केस मिले हैं. प्रशासन ने जानकारी दी है कि इनमें से फ़िलहाल 8 केस एक्टिव हैं.
मल्कानगिरी के कलेक्टर वाई विजय ने पत्रकारों से बात करते हुए यह जानकारी दी है.
बोड़ा आदिवासियों की जनसंख्या पर लगातार चिंता ज़ाहिर की जाती रही हैं. एक समय आया जब इनकी आबादी लगातार कम होने लगी.
इन आदिवासियों के वजूद को ख़तरा पैदा हो गया. जनगणना आंकडों में बोंडा आदिवासियों की आबादी 1941 में 2565 रह गई.
लेकिन अगले दो दशक में इनकी जनसंख्या में बढ़ोतरी दर्ज हुई. 1961 में इनकी आबादी 4667 दर्ज हुई. 1971 में बोंडा आदिवासियों की कुल आबादी 5338 बताई गई.
![](https://mainbhibharat.co.in/wp-content/uploads/2020/07/14-1024x576.png)
जबकि 1981 की जनगणना में इनकी कुल आबादी 5895 दर्ज हुई.
यानि के 70 के दशक में एक बार फिर इनकी आबादी में वृद्धि दर सुस्त हुई. फ़िलहाल पहाड़ी बोंडा आदिवासियों की आबादी 8000 बताई जा रही है.
यह अफ़सोस की बात है कि मुख्यधारा से दूर पहाड़ों में बसे इस आदिम जनजाति को भी कोविड संक्रमण से नहीं बचाया जा सका है. हालाँकि अब प्रशासन सभी ज़रूरी कदम उठाने का दावा कर रहा है.
प्रशासन का कहना है कि अब इन आदिवासियों के घर घर जा कर टेस्ट किया जाएगा. अगर किसी को बुख़ार या सर्दी लगने की शिकायत है तो उसे बाक़ी परिवार से अलग निगरानी में रखा जाएगा.
बोंडा आदिवासियों की ज़्यादातर बस्तियाँ दुर्गम पहाड़ियों में बसी हैं. ये आदिवासी इन बस्तियों से सिर्फ़ आस-पास के जंगल ही जाते हैं. बाहरी दुनिया से उनका ज़्यादा संपर्क नहीं है.
लेकिन सप्ताह में एक बार मल्कानगिरी ज़िले के ख़ैरपुट में लगने वाले बाज़ार में ये आदिवासी कभी कभार ज़रूर आते हैं. इन बाज़ारों में वो अपनी ज़रूरत की चीजें ख़रीदने के लिए आते हैं.
प्रशासन को लगता है कि इन बाज़ारों से ही बोड़ा आदिवासी समुदाय तक कोरोना पहुँचा है.
बोंडा जैसे आदिम जनजाति समूहों को सरकार पीवीटीजी की श्रेणी में रखती है. इन आदिवासी समूहों की जनसंख्या या तो घट रही है या फिर उसमें ठहराव है.
इसलिए इन आदिवासियों पर जनसंख्या नियंत्रण के सामान्य नियम भी लागू नहीं किये जाते हैं. वैज्ञानिक कहते हैं कि क्योंकि ये आदिवासी अलग-थलग रहते हैं, इसलिए इन आदिवासियों की प्रतिरोधी क्षमता, मुख्यधारा कि तुलना में कम होती है.
कई बार मामूली बीमारी भी इस तरह के आदिवासी समूहों के लिए घातक हो सकती हैं. इस नज़र से देखें तो कोविड का इस आदिवासी समुदाय तक पहुँचने देना, लापरवाही नहीं बल्कि अपराध कहा जाना चाहिए, एक सभ्यता के ख़िलाफ़.
[…] शोध से पहले ही ख़बर आई थी की ओडिशा के बोंडा समुदाय में कोरोना का वायरस पहुँच चुका है. हालाँकि यहाँ […]