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अपना घर छोड़ पुरखों की ज़मीन पर पहुंचे आदिवासी, हाई कोर्ट में लड़ने को तैयार

अरकप्पू एक दुर्गम क्षेत्र है और वे बाकी दुनिया से कटे हुए थे. एक मेडिकल इमरजेंसी की स्थिति में उन्हें एक अच्छे अस्पताल तक पहुंचने के लिए 80 किलोमीटर से अधिक की यात्रा करनी पड़ती थी. इतना ही नहीं जरूरी सामान खरीदने के लिए उन्हें सबसे नजदीक के राशन की दुकान या किराने की दुकान तक पहुंचने के लिए चार से छह घंटे पैदल चलना पड़ता था.

एर्णाकुलम जिले में इडमलयार बांध से कुछ किलोमीटर दूर घने जंगल के बीच पत्थरों से बना एक मकान है. इस एक मंजिला की इमारत छत बारिश में टपकती है. पहली नजर में यह जंगल के बीच में एक सुनसान ढांचे जैसा लगता है. लेकिन यह इडमलयार का आदिवासी हॉस्टल है, जहां जुलाई से अब तक 38 आदिवासी रह रहे हैं. इन आदिवासियों में औरतें और बच्चे भी शामिल हैं.

इन लोगों को मजबूरी में अपना घर और रोजी-रोटी छोड़नी पड़ी है. फ़िलहाल ये लोग इस इमारत में रह रहे हैं, लेकिन इन्हें अपने रहने के लिए किसी बेहतर जगह की तलाश भी है.

अरकप्पू आदिवासी कॉलोनी के यह 12 परिवार कभी 2-10 एकड़ जमीन पर रहते थे. इन आदिवासियों ने अपनी इच्छा से अपना सब कुछ छोड़ दिया. लेकिन क्यों, और किस बात ने इन आदिवासियों को बेघर होने पर मजबूर किया? और यह जर्जर अवस्था में मौजूद हॉस्टल उनका अस्थायी नया घर कैसे बन गया?

अरकप्पू में जीवन

अरकप्पू इडमलयार रिज़र्व फॉरेस्ट के अंदरूनी हिस्सों में स्थित एक छोटा आदिवासी गांव है जो इडमलयार जलाशय के पार है. निवासियों के मुताबिक इस गांव में क़रीब 45 परिवार हैं जिनमें से कुछ लोग अब आदिवासी हॉस्टल में रह रहे हैं. करीब 30 परिवार अभी भी उसी बस्ती में रह रहे हैं.

यह गांव 1980 के दशक की शुरुआत में बसाया गया था. उस समय ये आदिवासी परिवार इडमलयार बांध के निर्माण के दौरान वैशाली गुफ़ा के पास अपने मूल घरों से वहां विस्थापित हुए थे. 

अरकप्पू एक दुर्गम इलाक़ा है और वे बाकी दुनिया से कटे हुए थे. मेडिकल इमरजेंसी की स्थिति में उन्हें एक अच्छे अस्पताल तक पहुंचने के लिए 80 किलोमीटर से ज़्यादा की यात्रा करनी पड़ती थी. इतना ही नहीं जरूरी सामान खरीदने के लिए उन्हें सबसे नजदीक की राशन की दुकान या किराने की दुकान तक पहुंचने के लिए चार से छह घंटे पैदल चलना पड़ता था. 

मन्नान आदिवासी समुदाय के सरदार तंकप्पन पंजाना कहते हैं, “हमारी कॉलोनी जंगल में पहाड़ी इलाकों में स्थित थी. डाउनस्ट्रीम इडमलयार जलाशय है और आसपास बड़ी चट्टानों और पत्थर के बड़े-बड़े टुकड़ों वाला एक पहाड़ी क्षेत्र है. इतना ही नहीं हर साल 2018 से कॉलोनी भूस्खलन की चपेट में है. बरसात के मौसम में हम डर के साये में रहते थे क्योंकि हम बांस या मेटल की चादरों से बने झोपड़ियों में रहते थे.”

गर्भवती महिलाओं की दुर्गति  

यहां तक कि बीमार लोगों को भी जिन्हें इलाज की जरूरत होती है उन्हें मलक्कपारा पहुंचने के लिए इस उबड़-खाबड़ इलाके को पार करना पड़ता है. उसके बाद चालकुडी तक पहुंचने के लिए 80 किलोमीटर और यात्रा करनी पड़ती है जहां एक ठीक ठाक अस्पताल है.

जनजाति के एक दूसरे सदस्य चेलप्पन कहते हैं, “कल्पना कीजिए कि बीमारों को ले जा रहे हैं और बीमार को लेकर जाने वाले लोगों को पहाड़ी के ऊपर और नीचे ट्रेकिंग करनी पड़ती है. ऐसे कई उदाहरण हैं जहां बीमार व्यक्ति को ले जाने वाले लोग रास्ते में खुद ही बीमार पड़ गए.”

महिलाओं को ज्यादा मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. रानी मणिकुट्टन कहती हैं, “इस समस्या के चलते गर्भधारण एक बुरा सपना है. 2018 में मेरी भाभी ने अपना बच्चा खो दिया क्योंकि उसे समय पर अस्पताल नहीं ले जाया जा सका.” 

इस वजह से डिलीवरी की तारीख से हफ्तों पहले गर्भवती महिलाओं और उनके परिवारों को अस्पताल के पास कमरे किराए पर लेकर रहने के लिए मजबूर होना पड़ता है. रानी कहती हैं, यह उनके लिए बहुत बड़ा खर्च है. कॉलोनी के दो लोगों की जान चली गई क्योंकि उन्हें समय पर अस्पताल नहीं ले जाया जा सका था.

इलाके में कोई स्कूल भी नहीं है

भूस्खलन, परिवहन की कमी और स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच न होने के अलावा कुछ और महत्वपूर्ण चीजों ने 12 परिवारों को अपना घर छोड़ने का फैसला करने के लिए प्रेरित किया. वो थी अपने बच्चों के भविष्य की चिंता. 

क्योंकि इस क्षेत्र में कोई स्कूल नहीं था इसलिए कक्षा 1 से ही बच्चों को आदिवासी हॉस्टल में रहना पड़ता था. अंजलि रंजीत, जिनका बच्चा कक्षा 2 में पढ़ रहा है, कहती हैं, “हमारे बच्चों को वह जीवन जीने की ज़रूरत नहीं है जो हमने जिया था. यही मुख्य वजह है कि हमें वो जगह छोड़नी पड़ी.”

अंजलि की आँखों में आँसू आ जाते हैं, जब वो कहती हैं, “जब दूसरे बच्चे अपने माता-पिता की देखरेख में रहते हैं तब बुरा लगता है कि स्कूल जाने के लिए सिर्फ हमारे बच्चों को हमसे अलग होना पड़ता है. मैंने अलग-अलग हॉस्टल में रहकर 12वीं तक पढ़ाई की. हम जानते हैं कि बच्चे अपने माता-पिता से दूर होने पर क्या दर्द महसूस करते हैं.”

जब से राज्य में पिछले साल कोविड-19 महामारी के कारण स्कूल बंद हुए आदिवासी कॉलोनी के छात्र डिजिटल डिवाइस न होने के चलते अपनी शिक्षा को जारी रखने में असमर्थ रहे हैं. अंजलि कहती हैं, “क्योंकि ऑनलाइन कक्षाएं चल रही हैं इसलिए हमारे बच्चे पिछले एक साल से कक्षाओं में शामिल नहीं हो पाए हैं. कोई भी अरईकप में यह देखने नहीं आया कि हमारे बच्चों की कक्षाओं तक पहुंच है या नहीं.”

हमें जिंदा रहते हुए मदद की जरूरत है’

2018 के बाद से जब इस क्षेत्र में भूस्खलन ज़्यादा गंभीर हो गया तो इन परिवारों ने कई बार राज्य सरकार से संपर्क किया है और अरईकप से स्थानांतरित होने की गुहार लगाई है. लेकिन ग्रामीणों का आरोप है कि सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की.

रानी कहती हैं, “हम मॉनसून के दौरान अपने जीवन को अपने हाथों में लेकर चलते हैं. देखिए हाल ही में पेटीमुडी में क्या हुआ. आपदा में लोगों की मौत के बाद लाखों रुपये देने से क्या फायदा? हमें जिंदा रहते हुए मदद की जरूरत है. हम जानते हैं कि लोगों के पुनर्वास के लिए सरकारों की परियोजनाएं हैं. फिर हम क्यों भुगत रहे हैं? इसलिए हमने विरोध के रूप में बाहर निकलने का फैसला किया.”

वैशाली गुफा में प्रवास

6 जुलाई, 2021 को मुदुवान जनजाति के एक परिवार के साथ मन्नान जनजाति के 11 परिवार अपना सारा सामान अपने साथ लेकर अरईकप के अपने घरों से निकल गए. सामान में थोड़े से कपड़े, स्कूल की किताबें और चावल शामिल थे. मुदुवान परिवार जो समूह के साथ आया था पिछले 20 वर्षों से दूसरे आदिवासी बस्तियों से अलग-थलग रह रहा था. जब जोड़े को एक-दूसरे से शादी करने के लिए उनके समुदाय ने बहिष्कार कर दिया गया था.

छोटे बच्चों समेत इन 38 लोगों का पलायन सुबह तड़के शुरू हुआ, उन्हें जंगल के दुर्गम इलाकों में ले गया और अगले दिन वैशाली गुफा के पास पहुंचने पर ही खत्म हुआ. उन्होंने इस जगह तक पहुंचने के लिए अरकप्पू से करीब 28 किलोमीटर की दूरी पैदल तय की. मन्नान जनजाति के लोग कहते हैं कि वैशाली गुफा एक ऐसा क्षेत्र है जहां सड़क मार्ग से आसानी से पहुंचा जा सकता है और जहां उनके पूर्वज रहते थे.

तंकप्पन कहते हैं, “इडमलयार बांध के निर्माण के दौरान हमारे पूर्वज विस्थापित हो गए थे और इसलिए हम अरईकप में रहने लगे. मैं तब बच्चा था. आप अभी भी वैशाली गुफा के पास हमारे मंदिर के खंडहर देख सकते हैं.”

हालांकि आदिवासी लोगों द्वारा वैशाली गुफा में झोपड़ियों के निर्माण की कोशिशों को अधिकारियों द्वारा बाधित किया गया था जो उनके यहां आने की खबर के बाद मौके पर पहुंचे थे. 

अनिश्चित भविष्य

राज्य में आदिवासी कार्यकर्ताओं की मदद से यहां रह रहे आदिवासियों ने 27 अगस्त को वैशाली गुफ़ा क्षेत्र पर कब्जा करने की अनुमति के लिए केरल उच्च न्यायालय का रुख किया. तंकप्पन कहते हैं कि हालांकि राज्य सरकार ने अभी तक अंतिम निर्णय के बारे में सूचित नहीं किया है, उन्होंने उम्मीद नहीं छोड़ी है.

इस बीच निवासियों का कहना है कि अरईकप में अभी भी करीब 30 परिवार रह रहे हैं. रानी कहती हैं कि वो भी अरईकप छोड़ने के लिए तैयार हैं लेकिन इस बात का इंतजार कर रहे हैं कि विरोध का क्या नतीजा निकलेगा. 

इस बीच राज्य के जनजातीय विभाग के अधिकारियों का कहना है कि वैशाली गुफ़ा क्षेत्र में निवासियों का पुनर्वास संभव नहीं है, क्योंकि इस क्षेत्र में जंगली जानवरों का आना-जाना लगा रहता है. 

(यह आर्टिकल द न्यूज़ मिनट में अंग्रेज़ी में छपा था.)

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