HomeAdivasi Dailyजम्मू-कश्मीर में गुज्जर-बकरवाल नाराज़, मणिपुर से सरकार ने सबक नहीं सीखा?

जम्मू-कश्मीर में गुज्जर-बकरवाल नाराज़, मणिपुर से सरकार ने सबक नहीं सीखा?

राज्य की आबादी में 40 फीसदी हिस्सेदारी पहाड़ी समुदाय की है. पहाड़ी भाषाई अल्पसंख्यक हैं. अगर पहाड़ी समुदाय को आरक्षण मिलता है तो यह भारत में किसी भाषाई समुदाय के लिए आरक्षण देने का पहला मामला होगा. इसके लिए केंद्र सरकार को आरक्षण में संशोधन करने की जरूरत होगी.

मणिपुर को हिंसा की आग में जलते हुए तीन महीने होने वाले हैं. एक समुदाय यानि मैतेई को आरक्षण देने की बात चली थी. दूसरे समुदाय यानि कुकी ने 3 मई को विरोध में मार्च निकाला था. उसके बाद दोनों समुदाय के बीच शुरू हुई हिंसा अब तक नहीं थमी है.

मणिपुर में जिस मुद्दे पर दो समुदायों में तनाव इतना बढ़ गया है वह मुद्दा सिर्फ उस राज्य तक ही सिमित नहीं है.

कई राज्यों में कई समुदाय खुद को जनजाति की सूचि में शामिल करने की मांग कर रहे हैं. इस बात का भी ख़तरा है कि कुछ और राज्यों में भी यह मुद्दा अशांति पैदा कर सकता है.

मसलन जम्मू-कश्मीर में भी पहाड़ी समुदाय को आरक्षण देने पर विवाद जारी है. गुज्जर-बकरवाल समुदाय के लोग इसके खिलाफ हैं.

वे केंद्र सरकार पर आरोप लगा रहे हैं कि वो दो समुदायों के लोगों को लड़ाना चाहती है. कई आदिवासी नेताओं ने केंद्र शासित प्रदेश में भी मणिपुर जैसी स्थिति पैदा होने की आशंका प्रकट की है. उनका कहना है कि अगर ऐसा होता है तो इसके लिए केंद्र की बीजेपी सरकार ज़िम्मेदार होगी.  

पहाड़ी लोगों को एसटी का दर्जा देने के केंद्र के कदम के खिलाफ आदिवासी गुज्जरों और बकरवालों ने पिछले कुछ दिनों में कई विरोध प्रदर्शन किए हैं. पूरे जम्मू-कश्मीर में गुज्जरों और बकरवालों का विरोध प्रदर्शन जोर पकड़ रहा है.

दरअसल, बीते साल अक्टूर में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने पहाड़ी समुदाय को अनुसूचित जनजाति कोटे के तहत आरक्षण दिए जाने की बात कही थी. अब कहा जा रहा है कि संसद के इस मॉनसून सत्र में इससे जुड़े बिल सदन में पेश किए जाएंगे.

जम्मू-कश्मीर में लगभग 10 लाख पहाड़ी आबादी है. राजौरी के कुछ हिस्सों के अलावा पुंछ और कश्मीर के हंदवाड़ा, कुपवाड़ा और बारामुला जिलों में पहाड़ी लोग रहते हैं.

ये भाषाई आधार पर पहाड़ी हैं. लेकिन इनमें कई समुदायों के लोग आते हैं. मसलन हिन्दुओं में ब्राह्मण, राजपूत. मुस्लिमों में सैयद, पठान, खान आदि.

हालांकि, गृहमंत्री अमित शाह समेत शीर्ष नेताओं के इस आश्वासन के बावजूद कि उनका आरक्षण कोटा बरकरार रहेगा और पहाड़ियों को अलग कोटा मिलेगा, गुज्जर समुदाय विधेयक का विरोध कर रहे हैं.

उन्होंने व्यापक समर्थन जुटाने के लिए एक महा पंचायत की घोषणा की है और समर्थन के लिए देश में गैर-भाजपा दलों के नेताओं के पास प्रतिनिधिमंडल भेजा है. वहीं एससी, एसटी और ओबीसी के अखिल भारतीय परिसंघ ने भी पहाड़ियों को एसटी का दर्जा देने का विरोध किया है.  

यह विरोध प्रदर्शन ऐसे समय में हो रहा है जब मणिपुर में एसटी दर्जे के लिए लड़ रहे बहुसंख्यक मैतेई लोगों और उनकी मांग का विरोध करने वाले अल्पसंख्यक कुकियों के बीच झड़पें देखी जा रही हैं.

गुज्जर नेता तालिब हुसैन ने कहा कि उनका मुद्दा बिल्कुल मणिपुर के संकट जैसा ही है. उन्हें डर है कि केंद्र के पास राजनीतिक लाभ हासिल करने के लिए जम्मू-कश्मीर में गुज्जरों और पहाड़ियों के बीच विभाजन को गहरा करने की “समान योजना” है.  

हुसैन ने एक मीडिया से कहा, “सरकार द्वारा बाहरी लोगों को शराब, खनन और अन्य ठेके दिए जाने के बाद भाजपा डोगराओं (जो हिंदू हैं और जम्मू में बहुसंख्यक हैं) के बीच समर्थन खो रही है. कई भाजपा नेता, जो पहाड़ी हैं सीटें जीतने के लिए पहाड़ी एसटी दर्जे के मुद्दे पर चुनाव लड़ना चाहते हैं.”

उन्होंने कहा, “हमारा मुद्दा मणिपुर जैसा ही है. पूर्वोत्तर राज्य की तरह बीजेपी राजनीतिक कारणों से यहां ऐसा कर रही है. लेकिन वे वास्तविक जनजातियों को नुकसान पहुंचा रहे हैं. इसके अलावा वे चाहते हैं कि मुसलमान-मुसलमानों (गुज्जरों और पहाडियों) के खिलाफ लड़ें.”

हुसैन ने दावा किया कि जस्टिस (सेवानिवृत्त) जी.डी. शर्मा, जिन्होंने इस आयोग का नेतृत्व किया था, जिसने पिछले साल पाडरी, गडा ब्राह्मणों और कोली (सभी हिंदू) के साथ पहाड़ियों के लिए एसटी दर्जे की सिफारिश की थी, जम्मू के गडा ब्राह्मण समुदाय के सदस्य हैं.

उन्होंने कहा, “आयोग में हमारे समुदाय से कोई सदस्य नहीं था. वह अपने ही समुदाय पर फैसला कैसे सुना सकते हैं?”

एक गुज्जर नेता, गुफ्तार चौधरी ने कहा कि आरक्षण में कोटा के भीतर कोटा का कोई प्रावधान नहीं है. यही कारण है कि उन्हें केंद्र के दावे पर भरोसा नहीं है कि उनका अपना कोटा बकरार रहेगा.

उन्होंने कहा, “आखिरकार वे उन्हें हमारे कोटे में मिला देंगे. वे संपन्न हैं और कोटा के लिए योग्य नहीं हैं. हम उनसे प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाएंगे और अंत में हार जाएंगे.”

गुफ्तार चौधरी, एक गुज्जर नेता, ने कहा कि आरक्षण में कोटा के भीतर कोटा का कोई प्रावधान नहीं था – यही कारण है कि उन्हें केंद्र के दावे पर भरोसा नहीं है कि उनका अपना कोटा बरकरार रहेगा।

चौधरी ने भी कहा कि उनका मुद्दा मणिपुर संकट जैसा ही है. लेकिन उन्होंने अपना विरोध शांतिपूर्ण रखने की कसम खाई है.

उन्होंने कहा, “हमारा आंदोलन शांतिपूर्ण रहा है और ऐसा ही रहेगा. लेकिन हम आने वाले दिनों में बड़े विरोध प्रदर्शन की योजना बना रहे हैं.”

जम्मू-कश्मीर में अनुसूचित जनजाति के आरक्षण का इतिहास

साल 1991 में कई समितियों की समीक्षाओं के बाद केंद्र सरकार द्वारा गुज्जर और बकरवाल जनजातियों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिला. अनुसूचित जनजातियों के लिए जम्मू-कश्मीर में सरकारी नौकरियों और शिक्षा में 10 फीसदी का आरक्षण तय किया गया.

जम्मू-कश्मीर में गुज्जर और बकरवाल के अलावा भी कई जनजातीय समूह हैं. लेकिन सबसे ज्यादा फायदा गुज्जर और बकरवाल जनजातियों को है. इसकी वजह है उनकी आबादी. साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, जम्मू-कश्मीर की जनजातियों में सबसे ज्यादा आबादी गुज्जर और बकरवालों की है. जनगणना के मुताबिक जम्मू-कश्मीर में कुल जनजातीय आबादी करीब 15 लाख है. इनमें करीब 13 लाख की आबादी सिर्फ गुज्जर और बकरवाल समुदाय के लोगों की है.

जब गुज्जर-बकरवालों को आरक्षण मिला तब से ही पहाड़ी समुदाय सहित कुछ और भी समुदाय ST कोटे के तहत आरक्षण की मांग कर रहे थे. सामाजिक और आर्थिक स्थितियों की समीक्षा के बाद इन्हें आरक्षण से दूर रखा गया. साल 2014 में फिर मांग उठी. लेकिन तब उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली नेशनल कॉन्फ्रेंस की सरकार ने समीक्षा करने से इनकार कर दिया.

इसके बाद जस्टिस जीडी शर्मा (रिटायर्ड) के नेतृत्व में एक आयोग बना. इस आयोग का गटन जम्मू-कश्मीर के उप-राज्यपाल मनोज सिन्हा ने किया था. आयोग को तय करना था कि किन मापदंडों के आधार पर जम्मू-कश्मीर में किसी समुदाय को सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा हुआ माना जाएगा. आयोग ने केंद्र सरकार को एक रिपोर्ट सौंपी. जिसमें पहाड़ी समुदाय को आरक्षण देने की सिफारिश की गई.

अमित शाह ने की थी आरक्षण की घोषणा

अक्टूबर, 2022 में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह जम्मू-कश्मीर के दौरे पर थे. 4 अक्टूबर को राजौरी में एक जनसभा को संबोधित करते हुए उन्होंने पहाड़ी समुदाय के लिए आरक्षण की घोषणा की थी. शाह ने कहा था कि इससे गुज्जर और बकरवाल समुदाय को दिया जा रहा आरक्षण बिल्कुल भी प्रभावित नहीं होगा.

इस दौरान उन्होंने कहा था, “(आर्टिकल) 370 हटने के बाद आरक्षण की प्रक्रिया को मंजूरी दी गई. जीडी शर्मा आयोग ने रिपोर्ट भेजी थी और गुज्जर, बकरवाल और पहाड़ी समुदायों के लिए आरक्षण की सिफारिश की थी. इन सिफारिशों को मान लिया गया है और कानूनी प्रक्रिया पूरी होने के बाद बहुत जल्द इसका लाभ दिया जाएगा.”

इसके बाद जम्मू और शोपियां में गुज्जर और बकरवाल समुदाय के लोगों ने पहाड़ी समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने के खिलाफ प्रदर्शन किया था. हालांकि अमित शाह ने अपनी घोषणा में ये कहा था कि पहाड़ियों को आरक्षण मिलने से गुज्जर और बकरवाल समुदाय के एसटी कोटे में एक फीसदी की भी कटौती नहीं होगी.

विरोध क्यों हो रहा है?

गुज्जर और बकरवालों का आरोप है कि पहाड़ियों को आरक्षण देने में आरक्षण के संवैधानिक मापदंडों का पालन नहीं किया गया.

गुज्जर-बकरवाल समुदाय का कहना है कि ये लोग किसी भी तरह से पिछड़े नहीं हैं. ये लोग संपन्न है और इन्हें आरक्षण देने का कोई तुक नहीं है.

गुज्जर-बकरवालों की और भी कई चिंताएं हैं. मसलन, उनको लगता है कि पहाड़ी समुदाय के शामिल हो जाने से उन्हें मिल रहा आरक्षण का फायदा बेमानी हो जाएगा. इसके पीछे उनका तर्क है कि पहाड़ी समुदाय, उनसे कहीं अधिक शिक्षित और आर्थिक रूप से मजबूत है.

इनका कहना है कि अगर 60 से अधिक जातियों वाले ये समूह एसटी के दायरे में आते हैं तो वे वास्तविक जनजातियों को प्रतिस्पर्धा से बाहर कर देंगे. जो गरीबी, अशिक्षा और सामाजिक भेदभाव का सामना करने वाले कमजोर वर्ग हैं.

गुज्जर-बकरवाल, जीडी शर्मा आयोग की रिपोर्ट से भी सहमत नहीं हैं. उनका कहना है कि ये रिपोर्ट ‘पहाड़ी समुदाय की जमीनी सच्चाई पर आधारित नहीं है. रिपोर्ट मनगढ़ंत है’. दोनों समुदायों के नेताओं का कहना है कि उनकी आबादी, जनगणना में बताई गई आबादी से कहीं ज्यादा है. और आरक्षण में पहाड़ियों के शामिल हो जाने से एक ही कोटे में आपसी संघर्ष बढ़ेगा.

पहाड़ी समुदाय का पक्ष

पहाड़ी समुदाय का भी अपना पक्ष है. उनका कहना है कि साल 1991 में जब दूसरी जातियों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिला तो उन्हें नजरअंदाज किया गया. उनका कहना है कि उन्हें भी बिजली, पानी, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी सुविधाएं सही और सुचारू रूप से नहीं मिलती है. वे भी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से उतना है कमजोर हैं जितना आरक्षण प्राप्त दूसरी जनजातियां हैं इसलिए उन्हें भी आरक्षण की उतनी ही जरूरत है.

राज्य की आबादी में 40 फीसदी हिस्सेदारी पहाड़ी समुदाय की है. पहाड़ी भाषाई अल्पसंख्यक हैं. अगर पहाड़ी समुदाय को आरक्षण मिलता है तो यह भारत में किसी भाषाई समुदाय के लिए आरक्षण देने का पहला मामला होगा. इसके लिए केंद्र सरकार को आरक्षण में संशोधन करने की जरूरत होगी.

वर्तमान में जम्मू और कश्मीर में 12 समुदाय हैं जिन्हें एसटी के रूप में अधिसूचित किया गया है.

देश में किसी समुदाय को अनुसूचित जनजाति सूची में शामिल किए जाने के मापदंड

. समुदाय में आदिम लक्षण होने चाहिए. वो आधुनिक रीति-रिवाज और रहन-सहन को मानने वाला न हो.

. उसकी अपनी विशेष सभ्यता हो.

. वो भौगोलिक रूप से अलग-थलग रहता हो.

. आर्थिक रूप से पिछड़ा हो और बाकी समाज से संपर्क रखने में संकोच करता हो.

देश के कई राज्यों में अलग अलग समुदाय खुद को अनुसूचित जनजाति की सूचि में शामिल करने की मांग कर रहे हैं. संसद में भी यह मामला बार-बार उठा है.

मणिपुर के हालातों से सबक सीखते हुए यह बेहतर होगा कि सरकार इस मुद्दे को अपनी राजनीतिक प्राथमिकता की दृष्टि से नहीं बल्कि एक स्थायी समाधान देने की मंशा से देख.

इस मुद्दे पर एक व्यापक नीतिगत पहल की ज़रूरत है.

1 COMMENT

  1. मैंने ये आप को फेसबुक पर भी भेजा था पर अपने उत्तर नहीं दिया ‌ ।

    कि पनिका समुदाय को छत्तीसगढ़ में OBC तथा मध्य प्रदेश में और देश के बाकी हिस्सों में St में क्यों रखा गया है।

    मैं वापस कहता हूं आप के पास इस समुदाय पर कोई जानकारी हो तो मदद करें

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