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मध्य प्रदेश: वन विभाग ने बरेला आदिवासियों को किया बेघर, एफ़आरए के नियमों के तहत कार्रवाई अवैध

आदिवासी कार्यकर्ताओं का आरोप है कि वनोपज, पशुपालन और छोटी किसानी पर निर्भर इन परिवारों ने वन अधिकार अधिनियम के तहत भूमि अधिकारों के लिए आवेदन किया हुआ है. ऐसे में वन विभाग की यह कार्यवाही अवैध है.

कोविड महामारी के बीच मध्य प्रदेश के खंडवा ज़िले के जामनिया इलाक़े के भील और बरेला आदिवासी समुदाय के 40 से ज़्यादा आदिवासी परिवार बेघर हो गए हैं. राज्य के वन विभाग ने 10 जुलाई को इन आदिवासियों के कई घरों पर बुलडोज़र चला दिया.

आदिवासी कार्यकर्ताओं का आरोप है कि वनोपज, पशुपालन और छोटी किसानी पर निर्भर इन परिवारों ने वन अधिकार अधिनियम के तहत भूमि अधिकारों के लिए आवेदन किया हुआ है. ऐसे में वन विभाग की यह कार्यवाही अवैध है.

घरों को तोड़ने के बाद वन विभाग ने चार आदिवासियों के साथ-साथ जागृत आदिवासी दलित संगठन (JADS) के सदस्यों को हिरासत में भी लिया. हिरासत में लिए गए आदिवासियों में एक 12 साल की बच्ची भी शामिल है.

आदिवासी कहते हैं कि 200 से ज़्यादा सुरक्षाबलों ने बिना किसी चेतावनी या सूचना के इलाक़े पर धावा बोला. उन्होंने  आदिवासियों को पीटा, और हिरासत में ले लिया. विभाग के अधिकारियों ने आदिवासियों को धमकाया और उन्हें गालियां दीं.

आरोप है कि वन विभाग ने आदिवासियों के खेतों पर ज़हर भी छिड़का (न्यूज़क्लिक में छपी तस्वीर)

बेघर हुए लोगों का यह भी आरोप है कि वन विभाग ने आदिवासियों को उनकी ज़मीन से पूरी तरह से बेदखल करने के इरादे से उनके खेतों पर ज़हर का छिड़काव किया, और बुलडोज़र से फसलों को नष्ट कर दिया. इन हालात में यह परिवार भूखे मरने की कगार पर हैं.

हिरासत में लिए गए कार्यकर्ताओं और आदिवासियों की रिहाई की मांग को लेकर समुदाय के सदस्यों ने खंडवा में एसपी कार्यालय के बाहर शनिवार रात धरना दिया. 300 से ज़्यादा लोग थाने के बाहर जमा हुए, जिसके बाद लोगों को रिहा किया गया.

कार्यकर्ताओं का मानना है कि वन विभाग की कार्रवाई वन अधिकार अधिनियम के साथ-साथ जबलपुर अदालत के फ़ैसले का भी पूरी तरह से उल्लंघन है. अदालत ने महामारी के बीच किसी भी तरह की बेदखली पर रोक लगा दी थी.

इसके अलावा परिवारों की भूमि अधिकारों के लिए लड़ाई भी चल रही है. एफ़आरए की धारा 4(5) के तहत किसी को भी जमीन से तब तक बेदखल नहीं किया जा सकता जब तक उसके दस्तावेज़ों और दावों की निगरानी नहीं हो जाती.

बेघर हुए आदिवासियों की चिंताएं अब बढ़ गई हैं. बारिश के मौसम में यह आदिवासी अब कहां जाएंगे, इस बात का किसी के पास कोई जवाब नहीं है.

जेएडीएस ने मांग की है कि इस अभियान को अंजाम देने वाले अधिकारियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए. इसके अलावा आदिवासी परिवारों को राहत दिए जाने की भी मांग है.

जनजातीय मामलों के मंत्रालय के आंकड़े

जनजातीय मामलों के मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार वन भूमि पर फ़रवरी 2021 के अंत तक देश भर में कुल 20 लाख से ज़्यादा दावे (20,01,919), जिसमें दोनों व्यक्तिगत और सामुदायिक अधिकार शामिल हैं, खारिज कर दिए गए थे. इतने ही दावे स्वीकार भी किए गए हैं. यह आंकड़ा कुल दावों का लगभग 45% है, जबकि 4.61 लाख दावे लंबित हैं.

जून के आखिरी हफ़्ते में जबलपुर हाई कोर्ट में सतना ज़िले की मवासी जनजाति की एक औरत ने एक जनहित याचिका (PIL) दायर की थी.

इस याचिका में आरोप लगाया गया कि ग्राम सभा के माध्यम से एफ़आरए, 2006 के नियमों के तहत किए गए दावे खारिज कर दिए गए, क्योंकि इन्हें एमपी वन मित्र पोर्टल पर अपलोड नहीं किया गया था.

जनहित याचिका में यह भी कहा गया है कि मध्य प्रदेश सरकार की प्रक्रिया ने एफ़आरए के प्रावधानों का उल्लंघन किया है, जिसमें वन भूमि पर दावों के निपटान के लिए सिर्फ़ एक पारदर्शी त्रि-स्तरीय निगरानी प्रणाली की परिकल्पना है.

1 COMMENT

  1. यह घटना निंदनीय है, सूचना तो 15 दिन पहले देनी ही चाहिए था। शहरों में कई जगह अवैध निर्माण होता रहता शासन उन्हें अनदेखी कर देता है।भोले-भाले आदिवासियों को हर तरह चोट पहुँचाया जाता है,, कोविड का समय है, और बारिश का मौसम है।
    महलो में रहने वालोंं को आदिवासियों की परेशानियां नहीं दिखती है।

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