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ओडिशा के आदिवासी: सत्ताधारी दलों की रेवड़ी या फिर न्याय की गारंटी का चुनाव

ओडिशा में लोकसभा चुनाव के साथ-साथ चार चरणों में विधानसभा चुनाव भी हो रहे हैं. 13 मई को पहले चरण की 28 विधानसभा सीटों पर वोटिंग होगी तो वहीं 20 मई को दूसरे चरण में 35 विधानसभा सीटों पर वोटिंग होगी.

ओडिशा में लोकसभा के साथ-साथ विधानसभा चुनाव भी हो रहे हैं. ओडिशा में कुल चार चरणों में चुनाव होंगे. पहले चरण के लिए 13 मई को मतदान होगा तो वहीं दूसरे चरण के लिए 20 मई को मतदान होगा. तीसरे चरण के लिए 25 और चौथे चरण के लिए 1 जून को मतदान होगा.

ओडिशा देश का वह राज्य है जिसमें सबसे ज़्यादा संख्या में आदिवासी समुदाय मौजूद हैं. अनुसूचित जनजाति में शामिल यहां पर 62 आदिवासी समुदाय रहते हैं.

ओडिशा लोकसभा चुनाव

ओडिशा, जो एक समय में कांग्रेस के नेतृत्व वाले UPA का गढ़ था, पिछले कुछ लोकसभा चुनावों में राज्य में भारी गिरावट देखी गई है. हालांकि, बीजेपी के लिए भी हालात बहुत सहज नहीं हैं क्योंकि 2008 में एनडीए से अलग होने के बाद नवीन पटनायक के नेतृत्व में बीजू जनता दल (BJD) ने ओडिशा राज्य को अपना किला बना लिया है.

ओडिशा की 21 लोकसभा सीटों में से 5 सीटें – सुंदरगढ़, क्योंझर, मयूरभंज, नबरंगपुर और कोरापुट अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं.

सुंदरगढ़ में 20 मई को, क्योंझर और मयूरभंज में 25 मई को चुनाव होगा.

सुंदरगढ़ लोकसभा सीट

सुंदरगढ़ जिला अपने घने जंगलों और पहाड़ों के लिए जाना जाता है. जनसंख्या के लिहाज से यह ओडिशा का पांचवां सबसे बड़ा जिला है.

सुंदरगढ़ लोकसभा सीट के तहत विधानसभा की 7 सीटें आती हैं. ये सीटें हैं- सुंदरगढ़, तलसारा, राजगांगपुर, बिरमित्रापुर, राउरकेला, रघुनाथपाली और बोनाई.

पिछले विधानसभा चुनाव में सुंदरगढ़ जिले की इन सातों सीटों में से 3 सीट पर बीजेपी को जीत मिली तो 2 सीटों पर बीजेडी और एक-एक सीट पर कांग्रेस तथा सीपीएम को जीत मिली थी.

इस जिले की कुल आबादी का लगभग 9 फीसदी अनुसूचित जाति और 51 फीसदी अनुसूचित जनजाति है. सुंदरगढ़ जिले की लगभग 65 फीसदी आबादी गांवों में रहती है जबकि 35 प्रतिशत आबादी का निवास शहरों में है.

धान सुंदरगढ़ जिले की मुख्य खेती है. खरीफ फसलों की सीजन में यहां के 75 फीसदी जमीन धान की फसल से लहलहाते हैं.

सुंदरगढ़ संसदीय सीट के राजनीतिक इतिहास को देखें तो यहां पर बीजेपी को लगातार जीत मिलती रही है. बीजेपी के जुआल ओराम पिछले 10 साल से सांसद हैं. इस सीट पर कांग्रेस और बीजेपी को जीत मिलती रही है जबकि बीजेडी को यहां पर अब तक जीत नहीं मिल सकी है.

90 के दशक के बाद के चुनाव में सुंदरगढ़ सीट पर कभी कांग्रेस तो कभी बीजेपी को जीत मिलती रही है. 1991 और 1996 के संसदीय चुनाव में कांग्रेस की फ्रिदा टोपनो को जीत मिली थी लेकिन 1998 के चुनाव में बीजेपी ने इस सीट पर जीत के साथ अपना खाता खोला. जुआल ओराम यहां से सांसद चुने गए.

जुआल ओराम ने 1999 और 2004 के संसदीय चुनाव में भी जुआल ओराम ने जीत हासिल करते हुए अपनी हैट्रिक पूरी की. 2009 के चुनाव में जुआल  ओराम को हार का सामना करना पड़ा.  कांग्रेस के प्रत्याशी हेमानंदा बिसवाल ने कड़े संघर्ष में जुआल ओराम को 11,624 मतों के अंतर से हरा दिया.

2014 के संसदीय चुनाव में बीजेपी ने एक बार फिर जुआल ओराम को मैदान में उतारा. उन्होंने बीजेडी के उम्मीदवार और भारतीय हॉकी टीम के पूर्व कप्तान दिलीप कुमार टिर्की को 18,839 मतों के अंतर से हराया था. कांग्रेस के सांसद हेमानंद बिसवाल तीसरे स्थान पर खिसक गए थे.

2019 के चुनाव में भी बीजेपी ने यह सीट बचाए रखी. जुआल ओराम ने इस बार अपनी बड़ी जीत हासिल की. उन्होंने 2,23,065 मतों के अंतर से बीजेडी को हराया.

क्योंझर लोकसभा सीट

अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित क्योंझर संसदीय सीट पर बीजू जनता दल का कब्जा है. इस क्षेत्र में लगभग आधी आबादी अनुसूचित जनजाति की है. ओडिशा के केंदुझार और मयूरभंज जिले में फैले इस क्षेत्र की लगभग 87 फीसदी आबादी गांवों में रहती है, जबकि 13 फीसदी जनसंख्या का निवास शहरों में है.

2011 की जनगणना के मुताबिक यहां की कुल आबादी 1,801,733 थी, जिसमें पुरुषों की संख्या 9,06,487 थी जबकि महिलाओं की संख्या 8,95,246 थी.

2011 की जनगणना के मुताबिक जिले में आदिवासी आबादी 8 लाख 18 हज़ार 878 है.

आदिवासी बहुल क्योंझर राज्य के प्रमुख खनिज उत्पादक जिलों में से एक है. यहां पर लौह अयस्क, मैंगनीज अयस्क, क्रोमेट, क्वार्टजाइट, बॉक्साइट, सोना, पाइरोफिलाइट और चूना पत्थर प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं.

इस जिले में इंजीनियरिंग और धातु आधारित उद्योग के साथ-साथ प्लास्टिक उद्योग और कृषि और समुद्री आधारित उद्योग हैं. इसके अलावा जिले में उगाई जाने वाली प्रमुख फसलों में धान, मक्का, तिल और अरहर आदि फसलें हैं.

क्योंझर सीट के तहत विधानसभा की सात सीटें आती है. ये सीटें हैं – करंजिया, चम्पुआ, पटना, क्योंझर, तेलकोई, रामचंद्रपुर और आनंदपुर.

क्योंझर लोकसभा सीट के संसदीय इतिहास को देखें तो कभी यहां पर कांग्रेस और जनता दल को जीत मिलती रही थी. लेकिन 1990 के बाद की राजनीति में बदलाव आ गया. 1989 में जनता दल के गोविंद चंद्र मुंडा को जीत मिली. वह 1991 में फिर से चुनाव जीतने में कामयाब रहे थे. 1996 के चुनाव में कांग्रेस ने 10 साल बाद फिर से जीत हासिल की और माधब सरदार सांसद चुने गए.

1998 के चुनाव में बीजेपी का इस सीट से खाता खुला. बीजेपी के उपेंद्र नाथ नायक पहली बार सांसद बने. फिर 1999 में अनंत नायक बीजेपी के टिकट पर फिर से चुने गए. फिर 2004 के लोकसभा चुनाव में भी अनंत नायक को जीत मिली. 2004 के बाद से बीजेपी को यहां पर जीत नहीं मिली. पिछले 3 चुनावों से लगातार बीजेडी के अलग-अलग प्रत्याशियों को जीत मिल रही है.

मयूरभंज लोकसभा सीट

मयूरभंज जिला अपनी खूबसूरती, हरियाली और खनिज संशाधनों के लिए जाना जाता है. मयूरभंज जिले में 7 विधानसभा सीटें आती हैं और इनमें से 6 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं.

यह जिला उत्तर-पूर्व में पश्चिम बंगाल के मेदिनीपुर जिले, उत्तर-पश्चिम में झारखंड के सिंहभूम जिले, दक्षिण-पूर्व में बालेश्वर जिले और दक्षिण-पश्चिम में केंदुझार से घिरा हुआ है.

इस जिले में कुल क्षेत्र का 39 प्रतिशत से अधिक हिस्सा जंगल और पहाड़ियों से घिरा हुआ है. जिले में 4 सब डिवीजन, 26 ब्लॉक, 404 ग्राम पंचायतें और 3966 गांव आते हैं.

मयूरभंज संसदीय सीट के राजनीतिक इतिहास पर नजर डालें तो यहां पर पिछले 25 सालों में किसी एक दल का खास दबदबा नहीं रहा है. 1999 से लेकर अब तक 5 चुनाव में 4 अलग-अलग दलों को जीत मिली है.

90 के दशक के बाद 1991 के चुनाव में कांग्रेस को यहां पर जीत मिली और भाग्य गोबर्धन सांसद चुने गए. 1996 में कांग्रेस की सुशिला तिरिया को जीत मिली थी. 1998 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (BJP) के प्रत्याशी सलखान मुर्मू को जीत मिली.

फिर 1999 में सलखान मुर्मू ने फिर जीत हासिल की. 2004 के चुनाव में झारखंड मुक्ति मोर्चा के सुदम मारंडी यहां से सांसद चुने गए.

इसके बाद 2009 के चुनाव में बीजू जनता दल को यहां से पहली बार जीत मिली. तब लक्ष्मण टुडू सांसद बने. 2014 के चुनाव में बीजेडी के टिकट पर राम चंद्र हंसदाह सांसद चुने गए.

वहीं पिछले लोकसभा चुनाव यानि 2019 में बीजेपी ने यहां से जीत हासिल की और बिशेश्वर टुडू लोकसभा पहुंचने में कामयाब रहे.

नबरंगपुर लोकसभा सीट

आदिवासी बहुल नबरंगपुर लोकसभा सीट बीजू जनता दल का कब्जा है. यहां पर बीजेपी अभी भी तीसरे नंबर की पार्टी है. इस सीट पर मुख्य मुकाबला बीजेडी और कांग्रेस के बीच होती रही है.

नबरंगपुर जिला 2 अक्टूबर 1992 में अस्तित्व में आया. पहले यह कोरापुट जिले का हिस्सा हुआ करता था. इसकी सीमा उत्तर में रायपुर और पश्चिम में छत्तीसगढ़ के बस्तर जिलों तक फैली हुई है.

नबरंगपुर की सीमा पूर्व की ओर कालाहांडी और रायगढ़ जिलों को छूती है तो दक्षिण में कोरापुट जिले से लगती है. इंद्रावती नदी नबरंगपुर और कोरापुट जिले के बीच की सीमा बनाती है.

2011 की जनगणना के मुताबिक, नबरंगपुर की जनसंख्या 12 लाख 20 हज़ार 946 थी. जिसमें जनसंख्या में 49.53 फीसदी पुरुष और 50.47 फीसदी महिलाएं हैं. क्षेत्र की औसत साक्षरता दर 82.4 फीसदी है.

इस जिले में मिरगानिस, संखरिस, माली और सुंधी, भूमिया और डोंब जैसी कुछ अन्य जनजातियां भी रहती हैं.

नबरंगपुर लोकसभा सीट के तहत 7 विधानसभा सीटें आती हैं जिसमें सभी की सभी सात सीटें अनुसूचित जाति के लिए रिजर्व हैं. यहां की 7 में से 5 सीटों पर बीजू जनता दल को जीत मिली तो 2 सीटों पर बीजेपी का कब्जा है.

इस सीट पर 2019 तक 15 बार लोकसभा चुनाव हुए हैं, इनमें से 11 बार कांग्रेस जीती है. 1952 में इस सीट पर गणतंत्र परिषद ने जीत हासिल की थी. 1957 में ये सीट परिसीमन की वजह से वजूद में नहीं था. 1962 में हुए चुनाव में यहां से कांग्रेस ने जीत हासिल की. इसके बाद इस सीट से कांग्रेस की जीत का जो सिलसिला शुरू हुआ वो 36 साल तक यानी कि 1998 तक जारी रहा.

कांग्रेस का यह मजबूत किला खगपति प्रधानी की वजह से माना जाता था. 1962 में जगन्नाथ राव ने कांग्रेस के लिए जीत हासिल की. फिर खगपति प्रधानी ने 1967 में पहला चुनाव यहां से जीता और फिर 1971, 1977, 1980, 1984, 1989, 1991, 1996 और 1998 तक लगातार चुनाव जीतते रहे.

1999 के चुनाव में बीजेपी ने कांग्रेस की जीत का सिलसिला तोड़ दिया. परसुराम मांझी ने यह चुनाव जीता. फिर 2004 में भी परसुराम मांझी सांसद चुने गए. लेकिन फिर 2009 में कांग्रेस के टिकट पर प्रदीप कुमार मांझी ने जीत हासिल की.

लेकिन 2014 में कांग्रेस ने यह सीट गंवा दी और बीजेडी के बालभद्र मांझी सांसद चुने गए. 2019 में बीजेडी के टिकट पर रमेश चंद्र मांझी सांसद चुने गए.

नबरंगपुर सीट बीजेपी को आखिरी बार 2004 में जीत मिली थी. उसे 20 सालों से अपनी पहली जीत का इंतजार है. जबकि पिछले 2 चुनावों में यहां पर बीजेडी और कांग्रेस के बीच मुख्य मुकाबला रहा है. ऐसे में 2019 की तरह आगामी लोकसभा चुनाव में त्रिकोणीय मुकाबला देखने को मिल सकता है.

कोरापुट लोकसभा सीट

कोरापुट कांग्रेस का वह दुर्ग रहा है जिसे लोकतंत्र के जंग में दो बार ही भेदा जा सका है. 2009 और 2014 छोड़ दें तो ये सीट कांग्रेस के कब्जे में रही है. 1999 में मुख्यमंत्री रहते हुए वाजपेयी सरकार के खिलाफ वोट कर एक मत से उनकी सरकार गिराने वाले गिरधर गमांग 40 साल से यहां का प्रतिनिधित्व संसद में करते आए हैं.

कोरापुट लोकसभा सीट को 2 जिलों की विधानसभा सीटों को जोड़कर बनाया गया है. ये 2 जिले हैं रायगढ़ा और कोरापुट. इस संसदीय क्षेत्र के तहत 7 विधानसभा सीटें आती हैं जिसमें रायगढ़ा जिले की 3 तो कोरापुट जिले की 4 सीटों को शामिल किया गया है.

एसटी के लिए आरक्षित कोरापुट संसदीय सीट के तहत आने वाली 7 विधानसभा सीटों में 2109 के चुनाव में 4 सीटों पर बीजेडी को जीत मिली थी तो 2 सीटों पर कांग्रेस को जीत मिली, जबकि एक सीट निर्दलीय प्रत्याशी के खाते में गई थी.

कोरापुट लोकसभा सीट के संसदीय इतिहास की बात करें तो यह सीट कभी कांग्रेस के कब्जे में रहा करती थी. भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को यहां पर अब तक जीत नहीं मिली है तो बीजू जनता दल (बीजेडी) को सिर्फ 2 बार ही जीत मिल सकी.

कांग्रेस 1957 के चुनाव से ही यहां पर लगातार जीतती आ रही थी, और उसकी जीत का सिलसिला साल 2004 के आम चुनाव तक जारी रहा.

यह सीट राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री गिरिधर गमांग की वजह से जानी जाती है. वह लंबे समय तक कांग्रेस में रहे फिर बीजेपी में चले आए. हालांकि उन्होंने पिछले साल बीजेपी से भी इस्तीफा दे दिया. वह फिर से कांग्रेस में लौट आए हैं.

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गिरिधर गमांग ने 1972 से लेकर 1998 तक लगातार 8 चुनाव में जीत हासिल की थी. वह कुल 9 बार यहां से सांसद चुने गए. 1999 के चुनाव में गिरिधर गमांग की पत्नी भी सांसद चुनी गईं. इस दौरान गिरिधर गमांग राज्य में मुख्यमंत्री थे और वह चुनाव नहीं लड़े थे.

बीजू जनता दल ने गिरिधर गमांग की जीत का सिलसिला रोक दिया और 2009 में बीजेडी के जयराम पांगी ने 96,360 मतों के साथ चुनाव में जीत हासिल की. बीजेडी ने 2014 के चुनाव मे जिन्हा हिकाका को मैदान में उतारा और उन्होंने भी गिरिधर गमांग को कड़े मुकाबले में 19,328 मतों के अंतर से हरा दिया.

लेकिन 2019 के चुनाव में कांग्रेस ने फिर से वापसी की और सप्तागिरी शंकर उलाका ने जीत हासिल करते हुए पार्टी की पिछले 2 चुनाव में न सिर्फ हार का सिलसिला रोका बल्कि पार्टी के लिए एक सीट हासिल कर सूपड़ा साफ होने से भी बचा लिया.

अब 2024 की जंग के लिए फिर से मैदान तैयार हो गया है. कांग्रेस ने अपने सांसद सप्तागिरी शंकर उलाका को अनुसूचित जनजाति के लिए रिजर्व कोरापुट सीट से फिर से मैदान में उतारा है तो बीजेपी ने कालीराम मांझी को टिकट दिया है. बीजेडी की ओर से कौशल्या हिकाका अपनी चुनौती पेश करेंगी. ऐसे में यहां पर कड़ा मुकाबला होने के आसार हैं.

ओडिशा विधानसभा चुनाव

ओडिशा में लोकसभा चुनाव के साथ-साथ चार चरणों में विधानसभा चुनाव भी हो रहे हैं. 13 मई को पहले चरण की 28 विधानसभा सीटों पर वोटिंग होगी तो वहीं 20 मई को दूसरे चरण में 35 विधानसभा सीटों पर वोटिंग होगी.

25 मई को जब ओडिशा में तीसरे चरण का मतदान होगा, तब राज्य की 42 विधानसभा सीटों के लिए भी वोटिंग होगी. वहीं 1 जून को चौथे चरण के दौरान राज्य की 42 विधानसभा सीटों के लिए वोटिंग होगी.

ओडिशा में 147 विधानसभा क्षेत्र हैं, जिनमें से 33 अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं.

ओडिशा में बीजेपी, बीजेडी और कांग्रेस के बीच सीधी लड़ाई है. बीजेपी और बीजेडी के बीच गठबंधन की भी बात चल रही थी लेकिन यह नहीं हो पाया और दोनों दल अकेले चुनाव लड़ रहे हैं.

ओडिशा के आदिवासियों के मुद्दे

ओडिशा देश के पिछड़े राज्यों में गिना जाता है और यहां की अधिकांश आबादी गरीब है. राज्य में करीब 23 प्रतिशत आदिवासी आबादी है. राज्य में कम से कम 15 विधानसभा सीटों पर आदिवासियों की आबादी 55 प्रतिशत से अधिक है. जबकि करीब 35 सीटों पर 30 प्रतिशत से अधिक आदिवासी वोटर हैं.

राज्य में सिर्फ 17 प्रतिशत आबादी शहरों में रहती है, जबकि 83 प्रतिशत गांवों में रहती है.

2011 की जनगणना के मुताबिक, राज्य की जनजातीय जनसंख्या 95.91 लाख है जो राज्य की कुल जनसंख्या का 22.85 फीसद और भारत की जनजातीय जनसंख्या का 9.2 फीसद है.

राज्य में 13 विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूहों सहित 62 जनजातीय समुदाय हैं. मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के बाद ओडिशा में आदिवासी आबादी का तीसरा सबसे बड़ा केंद्र है. 314 ब्लॉकों में से 119 को अनुसूचित क्षेत्र घोषित किया गया है.

मार्च 2022 तक, राज्य का 44.7 फीसद भौगोलिक क्षेत्र अनुसूचित क्षेत्र है. अनुसूचित क्षेत्र की घोषणा का उद्देश्य जनजातीय स्वायत्तता, उनकी संस्कृति और आर्थिक विकास को संरक्षित करना है ताकि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय और शांति और सुशासन का संरक्षण सुनिश्चित किया जा सके.

भले ही राजनीतिक दल आदिवासी हित और विकास के दावे करते हो. लेकिन सच यह है कि ओडिशा में आदिवासियों की जमीन लगातार घट रही है. आदिवासियों के अस्तित्व के लिए जमीन एक महत्वपूर्ण संसाधन के रूप में माना जाता है.

भारत के CAG (Comptroller and auditor general of India) की एक मसौदा रिपोर्ट में खुलासा किया गया है कि एक दशक में आदिवासियों की जमीन में 12 फीसदी की कमी देखने को मिली है.

CAG ने एक स्टडी में कहा था कि एसटी आबादी सामाजिक रूप से कमजोर समूहों में से एक है, जिन्हें अपने विकास के लिए राज्य के सामाजिक-आर्थिक समर्थन की जरूरत है. उनकी आजीविका मूलतः वन उपज और खेती पर निर्भर है. इसलिए उनकी अपनी भूमि के साथ उनके इलाकों की सार्वजनिक भूमि ही उनके भरण-पोषण का मुख्य स्रोत है.

सीएजी ने बताया कि आदिवासियों द्वारा भूमि जोत का जिला और तहसीलवार वितरण न तो राजस्व और आपदा प्रबंधन विभाग या एससी और एसटी विकास विभाग द्वारा और न ही तहसीलों द्वारा बनाए रखा गया था.

छह दक्षिणी और उत्तरी ओडिशा जिलों में पाया गया कि 7.53 लाख आदिवासियों के पास 9.27 लाख हेक्टेयर क्षेत्र घटकर 8.44 लाख हेक्टेयर भूमि रह गया. जबकि 2005-06 और 2015-16 के बीच जनसंख्या मामूली रूप से बढ़कर 7.98 लाख हो गई.

आदिवासी आबादी के मामले में 2005-06 से वन अधिकार अधिनियम के कार्यान्वयन और गैर-अनुसूचित जनजातियों को उनकी भूमि की बिक्री पर प्रतिबंध के बावजूद उनकी भूमि जोत में कमी इस तथ्य का संकेत है कि उनकी भूमि का बड़ा हिस्सा अधिग्रहित किया जा सकता है.

सिर्फ ओडिशा, झारखंड, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश ही नहीं, देश के तमाम आदिवासी इलाकों में आदिवासियों के लिए मुख्य चुनावी मुद्दा जल, जंगल, जमीन ही है. आदिवासियों के लिए जल, जंगल, जमीन पर जन का अधिकार अहम मुद्दा तो है ही, आदिवासी बहुल इलाकों की गैर-आदिवासी राजनीति के लिए भी यह एक जरूरी मुद्दा है.

देश को आदिवासी इलाकों से यूरेनियम, कोयला, लौह अयस्क, बाक्साइट, सोना आदि चाहिए जबकि इसके बदले आदिवासियों को मिलता है सिर्फ और सिर्फ विस्थापन का दंश. इसलिए आदिवासियों से सहानिभूति रखने वाला बौद्धिक समाज भी आदिवासियों को विकास का विरोधी समझता है, जबकि आदिवासियों का संघर्ष न सिर्फ उनके अपने अस्तित्व का संघर्ष है, बल्कि पर्यावरण को बचाने का भी संघर्ष है.

तथाकथित विकास के रास्ते से आदिवासी इलाकों में गैरआदिवासी आबादी लगातार बढ़ती जा रही है और आदिवासी अपने घर में ही अल्पसंख्यक बनते जा रहे हैं.

बीजेडी, बीजेपी और कांग्रेस के वादे

ओडिशा में सत्ताधारी दल ने नंवबर 2023 में यह फैसला लिया था कि आदिवासियों के ग़ैर आदिवासियों को ज़मीन बेचने पर लगी पाबंदी को हटा लिया जाए.

लेकिन उसके इस फ़ैसले की ज़बरदस्त आलोचना हुई. इस आलोचना से घबरा कर राज्य सरकार ने अपने फ़ैसले को रद्द कर दिया. उसके बाद नवीन पटनायक सरकार ने आदिवासियों के लिए बड़ी घोषणाएं की हैं.

आदिवासियों के कल्याण के लिए राज्य सरकार ने एक आयोग के गठन की घोषणा की है. इसके अलावा वन उपज खरीद की नई योजना भी शुरू की गई है.

उधर केंद्र की बीजेपी सरकार की तरफ से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी नवंबर महीने में आदिम जनजातियों यानि PVTG के लिए 24000 करोड़ रुपए ख़र्च करने की घोषणा कर दी.

यानि बीजेपी और बीजेडी दोनों ने ही ओडिशा में आदिवासी मतदाता को ध्यान में रखा है.

कांग्रेस पार्टी लंबे समय से ओडिशा की सत्ता से बाहर है और केंद्र में भी 10 साल से सत्ता से दूर है. लेकिन आदिवासियों के सशक्तिकरण के मामले में उसका रिकॉर्ड बेहतर है.

उसके ज़माने में वन अधिकार क़ानून 2006, मनरेगा और भूमि अधिग्रहण से जुड़े कानून बने. यह बात सही है कि ज़्यादातर राज्यों ने इन कानूनों को लागू करने में ढील दिखाई है, लेकिन इसके बाद भी इन कानूनों ने आदिवासियों को जल-जंगल और ज़मीन पर अधिकार दिलाया है.

इस चुनाव में भी कांग्रेस पार्टी आदिवासियों के सशक्तिकरण की बात कर रही है.

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