कर्नाटक के रामनगर शहर से लगभग 25 किलोमीटर दूर हांडी गुंडी के घने जंगलों के बीचोंबीच 16 आदिवासी परिवारों का एक विरोध प्रदर्शन इस साल फ़रवरी से चल रहा है. यह परिवार वन अधिकार अधिनियम, 2006 (FRA) के प्रावधानों के तहत वनभूमि पर अपने अधिकार दिए जाने की मांग कर रहे हैं.
कर्नाटक की सबसे पुरानी जनजातियों में से एक, इरुलिगा आदिवासी समुदाय के इन लोगों को 1992 में जंगल से बेदखल कर दिया गया था. तब से यह परिवार आजीविका और आश्रय की तलाश में भटक रहे हैं.
फ़िलहाल वो जंगल से सटे गोलाराडोड्डी गांव में सरकार द्वारा दी गई ज़मीन के एक टुकड़े पर अस्थायी शेडों में रहते हैं, लेकिन यहां उनके पास बुनियादी सुविधाएं भी नहीं हैं.
वन अधिकार अधिनियम,2006 जंगलों में रहने वाले आदिवासी और दूसरे समुदायों के लिए अधिकार और वन भूमि पर उनका स्वामित्व सुनिश्चित करता है. ऐसे लोगों का जो पीढ़ियों से जंगलों में रह रहे हैं, लेकिन जिनके अधिकारों को दर्ज नहीं किया जा सका है.
इन इरुलिगा आदिवासी परिवारों का दावा है कि जंगल में अपने घरों का प्रमाण देने के बावजूद 2015 से भूमि अधिकारों के लिए उनके आवेदन लंबित हैं.
स्थानीय वन अधिकार समिति के अध्यक्ष और इरुलिगा आदिवसियों के एक संगठन के सदस्य, कृष्णमूर्ति ने डेक्कन हेराल्ड से बातचीत में कहा कि आदिवासियों ने छह सबूत अधिकारियों को सौंपे हैं. इनमें जंगल में एक ग्राइंडिंग स्टोन, कब्र, मंदिर, खेती के संकेतक, उनके बुज़ुर्गों के बयान और 1990 के दशक का एक नोट, जो उस समय के तहसीलदार द्वारा इनके इस इलाक़े में निवास की पुष्टि करता है.
डेक्कन हेराल्ड से विरोध कर रहे इन आदिवासियों ने कहा, “नियमों के अनुसार, सिर्फ़ दो सबूत दिखाने की ज़रूरत है, यह साबित करने के लिए कि हम 2005 से पहले यहां रहते थे. इतना काफ़ी है हमें ज़मीन के पट्टे दिलवाने के लिए, लेकिन वन विभाग छोटी-छोटी वजहें बताकर हमारे दावे खारिज कर रहा है.”
इरुलिगा आदिवासी परिवारों ने इस साल फ़रवरी में अपना विरोध शुरू किया था. राजस्व अधिकारियों द्वारा फ़रवरी में एक सर्वेक्षण किया गया था. उन अधिकारियों ने इनके दावों का विरोध नहीं किया, लेकिन वन अधिकारियों ने दावे खारिज कर दिए. उसके बाद इन लोगों का विरोध शुरू हुआ.
वन अधिकारियों का कहना है कि यह सबूत काफ़ी नहीं हैं. एक अधिकारी ने अखबार को बताया, “इसकी क्या गारंटी है कि ये लोग यहाँ रहते थे? हमने रामनगर ज़िले में 150 से ज़्यादा आदिवासी परिवारों को ज़मीन का अधिकार दिया है, जो जंगल से सीधा अपना सबूत साबित कर पाए थे. अकेले रामनगर में, 1,000 से ज़्यादा “संदिग्ध” आवेदन हैं, ऐसे में वन विभाग सब को भूमि नहीं दे सकता.”
वन विभाग के दावों का मुकाबला करते हुए कृष्णमूर्ति कहते हैं कि उनके माता-पिता दोनों को आदिवासी रीति-रिवाजों के अनुसार जंगल की ज़मीन पर दफनाया गया है.
कुछ परिवारों के बुजुर्गों ने जंगल में बिताई अपने बचपन और जवानी के बारे में भी बताया. वो कहते हैं, “हमने रागी और बाजरे की खेती की. हम उन्हें साफ़ करके, अपने बच्चों को खिलाते थे. हमारे माता-पिता और दादा-दादी जंगल में कंद, शहद और दूसरी जड़ी-बूटियाँ इकट्ठा करते थे. वो टोकरियाँ बनाकर उन्हें जंगल के बाहर जाकर बेचते थे.”
जंगल वापस आने की चाह के पीछे कारणों की बात करते हुए, एक आदिवासी महिला गौरम्मा ने कहा, “हम जिन अस्थायी घरों में अब रहते हैं, उनमें शौचालय नहीं है. हमें नहाने के लिए दूसरे समुदायों के खेतों का इस्तेमाल करना पड़ता है. वो आए दिन हमारे साथ बदतमीज़ी करते हैं. हमारे पास यह अपमान सहने के अलावा कोई दूसरा उपाय नहीं है.”
इन आदिवासियों में से ज़्यादातर दैनिक मजदूरी पर निर्भर हैं. जबकि जंगल न सिर्फ़ उन्हें रहने की सुरक्षित जगह, बल्कि आजीविका का भी आश्वासन देता है.
यह परिवार अपनी लड़ाई में अकेले नहीं हैं. वन अधिकार समिति, बन्नेरघट्टा के अध्यक्ष महादेवैया कहते हैं कि कई इरुलिगा परिवारों की यही दशा है. कनकपुरा, रामनगर, मगदी, चन्नापटना और बन्नेरघट्टा में फैले इरुलिगा आदिवासियों के कुल 1,795 आवेदन हैं. अब तक सिर्फ़ 400 का निपटारा किया गया है.
कर्नाटक में वन अधिकार अधिनियम के कार्यान्वयन में तेज़ी लाने की ज़रूरत है. अगस्त 2021 तक, राज्य भर में आदिवासियों ने 47,722 आवेदन किए हैं. इनमें से सिर्फ़ 12,585 को ज़मीन के अधिकार दिए गए हैं. पारंपरिक वनवासियों ने 2.4 लाख आवेदन दिए, जिनमें से सिर्फ़ 1986 को मंजूरी दी गई है.
पारंपरिक वनवासियों के मामले में, सरकार 75 साल के निवास का सबूत मांगती है, जो देश की स्वतंत्रता से पहले के समय का है. इसकी समीक्षा की ज़रूरत है. इसके अलावा, अधिकारी आमतौर पर सिर्फ़ जैव विविधता और वन्यजीवों को जंगल का अभिन्न अंग मानते हैं, लेकिन वो भूल जाते हैं कि आदिवासी भी जंगल का ही हिस्सा हैं.