मैं भी भारत की टीम मध्यप्रदेश के निमाड़ में कई दिन रही. इस दौरान हमारी टीम को यहाँ के कई ज़िलों के गाँवों में आदिवासियों से मिली.
इस यात्रा में यहाँ के आदिवासियों से उनकी ज़िंदगी के कई मसलों पर बातचीत हुई. मसलन कोविड और लॉक डाउन का उनकी ज़िंदगी पर कितना और कैसा असर हुआ है. उनकी खेती किसानी से जुड़ी बातें भी ख़ूब हुईं.
लेकिन इस बार आदिवासी औरतों से काफ़ी बातचीत हुई. उन्होंने कम उम्र में शादी, मर्दों की एक से ज़्यादा शादी करने की इच्छा और ब्राइड प्राइस जैसे मसलों पर बातचीत की.
इसके अलावा इन औरतों से खेती किसानी और क़र्ज़ के जाल में फँसते आदिवासी समाज पर भी लंबी बातें हुई.
इन महिलाओं से हमारी मुलाक़ात खेतों, बाज़ार, बस अड्डे और जंगल में भी हुई. लेकिन इन औरतों से जहां लंबी बातें हुईं वो जगह थी उनकी रसोई. दी ट्राइबल किचन कार्यक्रम में औरतों के साथ 3-4 घंटे हम काम करते हैं.
इस दौरान इन महिलाओं की झिझक थोड़ी कम हो जाती है. फिर एक बार बातों का सिलसिला शुरू होता है तो पता चलता है कि ये औरतें अपने समाज के मसलों को मर्दों से बेहतर समझती हैं.

चलिए आपको आदिवासी महिलाओं से उनकी रसोई में हुई मुलाक़ात और बातचीत के कुछ हिस्से बताते हैं. खरगोन ज़िले की भगवानपुरा तहसील में एक गाँव है चरीपुरा. यहाँ पर टिकेन्द्री से हमारी मुलाक़ात हुई.
टिकेन्द्री ने बताया कि वो अपनी पति रैवला सिंह से कम से कम 20 साल छोटी हैं. रैवला सिंह की वो दूसरी पत्नी हैं और उनकी बड़ी बहन रैवला की पहली पत्नी हैं.
ये दोनों बहने एक ही घर में रहती हैं. उन्होंने बताया कि भील आदिवासी समुदाय में मर्दों की एक से ज़्यादा शादी करने की इच्छा रहती है. ख़ासतौर पर थोड़े संपन्न परिवारों के मर्दों के लिए तो यह बेहद आसान है.
इसकी वजह वो समुदाय में ब्राइड प्राइस और सामुदायिक संगठनों में औरतों की मौजूदगी ना होना बताती हैं. उन्होंने बताया कि भील आदिवासी समुदाय में वधु मूल्य अब एक बड़ी बुराई बन चुकी है.
इस मसले पर झाबुआ के कमल खराड़ी की पत्नी ने भी बात रखी थी. उनका कहना था कि वो अपने बेटे की शादी कर रही हैं. उनका बेटा अभी मात्र नौवीं क्लास में पढ़ता है. यानि उसकी उम्र मुश्किल से 14-15 साल है.
वो कहती है कि अगर उनका बेटा किसी की लड़की को भगा लाया तो फिर उनके परिवार को भारी वधू मूल्य चुकाना पड़ सकता है. इसलिए वो पहले ही अपने बेटे की शादी कर रहे हैं.
उनका परिवार मानता है कि अभी बेटे की शादी की उम्र नहीं है. इसके अलावा जिस लड़की से शादी हो रही है उसकी उम्र तो मात्र 12 -13 साल होगी.

लेकर उन्होंने बताया कि अगर उन्हें ब्राइड प्राइस चुकाना पड़ा तो पूरे परिवार को बरसों तक मज़दूरी के लिए बाहर जाना पड़ेगा.
मध्य प्रदेश के आदिवासी इलाक़ों में जीविका के दो बड़े साधन हैं. पहला है खेती किसानी और दूसरा है दैनिक मज़दूरी के लिए गुजरात, महाराष्ट्र निकल जाना. टिकेन्द्री के अलावा भी ट्राइबल किचन में हमारी कई औरतों से आदिवासियों की जीविका के मसले पर बातचीत हुई.
इस बातचीत में हमें कई बातें पता चलीं, इन बातों में से हमें लगता है कि दो बातों का ज़िक्र करना चाहिए. इन महिलाओं ने बताया कि आदिवासी किसान क़र्ज़ के एक अंतहीन चक्र में फँसे हैं.
दूसरी बात उन्होंने बताई कि जो दिहाड़ी मज़दूरी करते हैं, वो भी एक ऐसे ही चक्र में बंधे हैं. इन दिहाड़ी मज़दूरी करने वालों में से ज़्यादातर बँधुआ मज़दूर बन चुके हैं.
ये मज़दूर शादी-ब्याह या फिर दूसरी ज़रूरत के समय सेठ से एडवांस लेते हैं और फिर कम से कम 6 महीने काम करते हैं. ज़ाहिर है इस दौरान इन मज़दूरों को कोई पैसा नहीं मिलता है.
इन मज़दूरों के पास यह विकल्प भी नहीं होता है कि वो किसी दूसरे के यहाँ काम कर लें और सेठ का क़र्ज़ चुका दें.
इन मज़दूरों की मजबूरी बन जाती है कि जब तक सेठ का पैसा ब्याज समेत पूरा नहीं हो जाता, ये मज़दूर कहीं और काम नहीं कर सकते.

आदिवासी महिलाएँ अपने समुदाय के मसलों को पहचानती भी हैं और उनके समाधानों पर सोचती भी हैं. क्योंकि अंततः ये महिलाएँ ही तो इस समुदाय में भी सबसे बड़ी स्टेक होल्डर हैं.
इस बात में कोई दो राय नहीं है कि देश के मुख्यधारा कहे जाने वाले समाज की तुलना में आदिवासी समाज में औरतों का स्टेटस थोड़ा बेहतर मिलता है.
देश के ज़्यादातर आदिवासी समुदायों में बेटी को बोझ नहीं समझा जाता है. शायद यही कारण है कि इन समुदायों में भ्रूण हत्या के मामले ना के बराबर हैं.
इसके अलावा अपना जीवन साथी चुनने का हक़ या फिर किसी रिश्ते को ख़त्म करने के मामले में भी इन समुदायों में औरतों के पास ज़्यादा विकल्प होते हैं. सामाजिक समारोह में अगर पुरुष शराब पीते हैं तो महिलाओं पर भी कोई रोकटोक नहीं होती है.
लेकिन इसके बावजूद आदिवासी समुदायों में भी सामाजिक या नीतिगत फ़ैसले लेने में महिलाओं की भागीदारी ना के बराबर है. इन समुदायों के फ़ैसले करने वाले सामाजिक संगठनों में महिलाओं की मौजूदगी भी नहीं मिलती है.
आदिवासी परिवारों में भी औरतों को हिस्से में काम ज़्यादा आता है. इस मामले में बड़े आदिवासी समुदाय हो या फिर पीवीटीजी कहे जाने वाले वो समुदाय जो संख्या के मामले में छोटे समूह हैं.
इस समुदाय में परिवार के लिए रोज़ का खाना और ईंधन जुटाना औरतों की ही ज़िम्मेदारी है. आदिवासी औरतें ईंधन और भोजन की तलाश में रोज़ जंगल जाती हैं. इन औरतों के दिन की घंटे जंगल में बीत जाते हैं.
खेतों में काम करने का मामला हो या फिर दिहाड़ी मज़दूरी यहाँ भी औरतें अगर ज़्यादा नहीं तो कम से कम मर्दों के बराबर ही मिलती हैं. मज़दूरी या फिर खेत में जाने से पहले सारे परिवार का खाना बनाने की ज़िम्मेदारी भी इन्हीं औरतों की होती है.
आदिवासी समुदाय को ख़ुद और सरकार हो या नीतिगत मामले तय करने वाली संस्थाओं को इन औरतों से बात करनी चाहिए. रियल स्टेक होल्डर से बात किए बिना बनी नीतियों और योजनाओं का तो वही होगा जो होता आया है.
वास्तविक जीवन में अजजा की महिलाएं बहुत ही मेहनती होती है,इनके इर्द गिर्द ही पूरा परिवार का ताना बाना रहता है,अब बहुत से परिवारों की लड़किया पड़ लिख कर नोकरी कर उच्च पदों पर आसीन होने लगी है,कोई कलेक्टर, डिप्टी कलेक्टर,dsp, तहसीलदार,ri, पटवारी, डाक्टर,शिक्षक आदि पदो पर सासन के कार्यों में सहयोग करने लग गई है,परिवार उन्नत हो रहे है जी,,,फिर भी महिलाए इस वर्ग की सभी कार्यों में एक्सपर्ट होती है जी
वास्तविक जीवन में अजजा की महिलाएं बहुत ही मेहनती होती है,इनके इर्द गिर्द ही पूरा परिवार का ताना बाना रहता है,अब बहुत से परिवारों की लड़किया पड़ लिख कर नोकरी कर उच्च पदों पर आसीन होने लगी है,कोई कलेक्टर, डिप्टी कलेक्टर,dsp, तहसीलदार,ri, पटवारी, डाक्टर,शिक्षक आदि पदो पर सासन के कार्यों में सहयोग करने लग गई है,परिवार उन्नत हो रहे है जी,,,फिर भी महिलाए इस वर्ग की सभी कार्यों में एक्सपर्ट होती है जी