HomeAdivasi Dailyछत्तीसगढ़ की आदिम जनजाति (PVTG) पहाड़ी कोरवा और पंडो कैसे बचेंगी

छत्तीसगढ़ की आदिम जनजाति (PVTG) पहाड़ी कोरवा और पंडो कैसे बचेंगी

हमारी नज़र में यही सबसे बड़ा फ़र्क़ है. पहाड़ी कोरवा एक ऐसा समुदाय है जो पूछने पर भी अपनी हालत बयान नहीं करता है. उसमें एक उदासीनता, एक निराशा और सबसे बड़ी बात की कोई तमन्ना नज़र नहीं आती है. वहीं पंडो समुदाय में आकांक्षाएँ (aspirations) नज़र आती है.

भारत में कुल 705 आदिवासी समूहों को औपचारिक तौर पर मान्यता दी गई है. यानि सरकार मानती है कि भारत में इतने छोटे-बड़े आदिवासी समुदाय हैं. इनमें से 75 आदिवासी समुदायों को पीवीटीजी (Particularly Vulnerable Tribes) के तौर पर अलग से पहचान दी गई है. 

पिछले महीने यानि जनवरी में हमारी टीम छत्तीसगढ़ के बिलासपुर, कोरबा और सरगुजा में थी. यहाँ पर पहाड़ी कोरवा और पंडो आदिवासी समुदाय के लोगों से हमारी मुलाक़ात हुई. ये दोनों ही समूह पीवीटीजी यानि विशेष जनजाति की श्रेणी में आते हैं. 

पहाड़ी कोरवा आदिवासियों से हमारी मुलाक़ात कोरबा ज़िले के एक छोटे से गाँव ठिर्रीआमा में हुई. यह गाँव ज़िले की पोंडी उपरोडा तहसील की लालपुर पंचायत का हिस्सा है. पंडो आदिवासियों से मिलने के लिए हम सूरजपुर ज़िले के पंडो नगर गाव गए. 

दोनों ही आदिवासी समुदाय से मिलने के अनुभव को एक या दो लाइन में कहना हो तो मैं कहूँगा कि ठिर्रीआमा में कुपोषण और मायूसी से घिरे एक डूबते समाज के लोगों से मुलाक़ात थी. वहीं पंडोनगर में जीने की ललक और अपने हक़ पाने की जद्दोजहद नज़र आती है. 

पहाड़ी कोरवा लड़कियां

पहाड़ी कोरवा और पंडो दोनों ही आदिवासी समुदायों के लोगों को सरकार ने स्थायी बस्तियों में बसाया था. इससे पहले ये आदिवासी ख़ानाबदोश की ज़िंदगी जीते रहे थे. जंगलों में उनका कोई एक ठिकाना नहीं होता था. इन दोनों ही समुदायों को आज़ादी के बाद 1950-52 के बीच स्थायी बस्तियों में बसाया गया था. 

लेकिन दोनों ही बस्तियों के लोगों की ज़िंदगी में ज़मीन आसमान का फ़र्क़ आ गया है. पहले संक्षेप में ठिर्रीआमा की बात करें तो यहाँ के लोग अभी भी किसी तरह से बस जी रहे हैं. सरकार ने इन आदिवासियों को भी खेती के लिए ज़मीन दी थी. लेकिन इस गाँव में ज़्यादातर परिवार अभी खेती नाम मात्र को करते हैं. 

ये आदिवासी आज भी जंगली कांदे (Wild Tubers) या फिर जंगल में अलग अलग मौसम में मिलने वाले फल खाते हैं. जंगल से अभी भी सिर्फ़ अपने खाने लायक़ ही कांदे या फल लाते हैं. बाक़ी आदिवासी समुदायों की तरह पहाड़ी कोरवा बेचने के लिए फल-फूल या पत्ते जमा नहीं करते हैं. 

जंगल से कांदा लाते राजू (पहाड़ी कोरवा)

इस बस्ती में एक नज़र में ही समझ में आ जाता है कि यहाँ पर कुपोषण बुरी तरह से फैला हुआ है. ख़ासतौर से लड़कियों और बच्चों में कुपोषण भयानक है. कम उम्र में ही शादी या शादी के बिना ही माँ बन रही लड़कियों में ख़ून की कमी के लिए किसी जाँच की ज़रूरत नहीं है. उनके चेहरे पर एक नज़र में ही समझ में आ जाता है. इन कुपोषित लड़कियों के बच्चे भी कम वज़न के और कमज़ोर पैदा होते हैं. 

बस्ती में एक प्राइमरी स्कूल है और एक सोलर पॉवर प्लांट भी लगा है जो शायद सीएसआर का कुछ पैसा ख़र्च कर सरकार ने यहाँ लगवाया है. ठिर्रीआमा में लोग अपनी इस हालत के लिए ना तो किसी को ज़िम्मेदार ठहराते हैं और ना इस बारे में बात करने में कोई ख़ास उत्साह दिखाते हैं. या यह कहना ठीक रहेगा कि वो इस बारे में कोई बात ही नहीं करते हैं. काफ़ी कोशिशों के बाद आपको सवालों के जवाब हाँ नाम में ही मिलता है. 

छत्तीसगढ़ में पहाड़ी कोरवा की कुल जनसंख्या के बारे में राज्य सरकार का दावा है 2005 में किए गए सर्वे में इनकी तादाद 34122 थी और अब यह जनसंख्या बढ़ कर 40 हज़ार हो चुकी है. 

हालाँकि 2015 का सर्वे करने वाले ट्राइबल रिसर्च इंस्टिट्यूट के आँकड़े सरकार के ताज़ा आँकड़ों के दावे पर भी सवाल उठाता है. इस सर्वे में यह कहा गया है कि 2005 से 2015 के बीच पहाड़ी कोरवा और बिरहोर समुदाय की संख्या में 321 बढ़ोत्तरी हुई है. प्रशासन का कहना है कि इस सर्वे में पहाड़ी कोरवाओं के कई टोले शायद छूट गए थे.

पंडो नगर का राष्ट्रपति भवन

लेकिन ठिर्रीआमा के हालात देख कर हमें भी यही लगा कि कम से कम इस बस्ती में जो आबादी का आँकड़ा 149 बताया जाता है शायद सही नहीं है. बशर्ते जिस दिन हम इस गाँव में पूरा दिन थे, उसी दिन इस गाँव के लोग कहीं बाहर ना चले गए हों. 

पहाड़ी कोरवा आदिवासियों से मिलने के बाद हम अगले दिन हम लोग सूरजपुर (सरगुजा) के पंडो नगर पहुँचे. आदिम जनजाति समुदाय की इस बस्ती तक पक्की सड़क है. 

गाँव के बाहर ही राष्ट्रपति भवन है, जी हाँ यहाँ गाँव के बाहर ही एक सामुदायिक भवन है जिसके गेट पर राष्ट्रपति भवन का बोर्ड लगा हुआ है. दरअसल 1952 में देश के पहले राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद यहाँ आए थे और एक दिन इस जगह पर रूके थे. तब से पंडो नगर का यह सामुदायिक भवन राष्ट्रपति भवन के नाम से ही जाना जाता है. 

उदय पंडो, विनोद पड़ो, श्याम सुंदर और दिनेश पंडो (बाएँ से दाएँ )

हमने यहाँ के आदिवासियों से मिलने और बातचीत करने में मदद के लिए एक पंडो लड़के से संपर्क किया था. उस लड़के ने हमारे इस गाँव आने की सूचना गाँव के लोगों को एक दिन पहले दे दी थी. जब हम पहुँचे तो इस गाँव के ज़्यादातर लोग इस राष्ट्रपति भवन में ही मौजूद थे. यहाँ मौजूद लोगों में गाँव की महिलाएँ भी थीं. 

यहाँ मौजूद लोगों से परिचय हुआ तो पता चला कि इनमें पड़ो समुदाय के दूसरे गाँव से भी कुछ लोग मौजूद हैं. यहाँ पर मौजूद लोगों में से एक बुज़ुर्ग माधव राम पंड़ो से बातचीत हुई तो उन्होंने बताया कि जब राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद यहाँ आए थे तब वो 12-13 साल के थे. वो भी अपने पिता के साथ उनकी सभा में आए थे.

वो बताते हैं कि एक जगह पर बसाए जाने से पहले पंडो आदिवासी जंगल में घूमते थे. कांदा-कोसा खा कर जीते थे. थोड़ी बहुत खेती करते थे और जूम खेती होती थी. 

लेकिन राष्ट्रपति आए और वो यहाँ एक रात रूके और उन्होंने पंडो आदिवासियों को समझाया कि अब जंगल में घूमना छोड़ दें और अपने घर बनाएँ. इसके साथ ही राष्ट्रपति ने कहा कि वो पंडो समुदाय को गोद ले रहे हैं. उनके लिए नांगर-बैल (हल-बैल) का इंतज़ाम किया जाएगा और खेती के लिए ज़मीन भी दी जाएगी. 

इसके बाद पंडो आदिवासियों ने जंगल में घूमना छोड़ दिया और खेती बाड़ी शुरू कर दी. माधव राम पंडो अपने समाज के कई मसलों को लेकर चिंतित हैं. वो कहते हैं कि उनके गाँव के ज़्यादातर लोगों को ज़मीन का अधिकार पत्र मिला है लेकिन अभी भी बहुत से परिवार हैं जिन्हें भूस्वामी पट्टा नहीं मिला है. 

माधव राम पंडो

यहां पर हमारी विनोद पंडो से भी मुलाक़ात हुई. इन्होंने पंडो समुदाय के मसलों को उठाने के लिए एक सामाजिक संगठन भी बनाया है. विनोद पंडो कहते हैं कि उनके समुदाय के कई परिवारों को जाति प्रमाणपत्र मिलने में परेशानी हो रही है. 

इसका कारण वो बताते हैं कि जनगणना के समय ग़लत तरीक़े से उनको भुंइयार लिख दिया गया. उनका संगठन इस मामले को लगातार उठा रहा है. 

पंडो समुदाय के उदय पंडो मुँह पर मास्क और हाथों में दस्ताने पहने हम से मिलने पहुँचे. उदय ने बताया कि वो स्वास्थ्य विभाग में काम करते हैं. फ़िलहाल वो आदिम जनजातियों के लोगों के कोरोनावायरस टेस्ट कराने में प्रशासन की मदद कर रहे हैं.

 वो आदिम जनजाति के लोगों को उनकी ही भाषा में कोरोनावायरस से जुड़ी ज़रूरी सावधानियों के बारे में भी जागरूक करते हैं.

विनोद पंडो के साथ मौजूद दिनेश पंडो से बातचीत में पता चला कि वो आईएएस बनने की इच्छा रखते हैं और पढ़ाई में जुटे हैं. वो अपने समुदाय की शिक्षा, सेहत और दूसरे मसलों को समझते भी हैं और चाहते हैं कि हालात बेहतर हों. 

इस गाँव में हम पूरा दिन घूमे और कई और परिवारों से मिले. इनमें महिलाओं से भी मुलाक़ात हुई. महिलाओं में बातचीत करने में थोड़ी झिझक ज़रूर थी, लेकिन फिर भी बातचीत कर रहीं थी. 

पड़ो आदिवासी सब्ज़ियों की खेती भी कर रहे हैं

गाँव में लोग अपने काम में लगे हुए थे. कोई अपना घर बनाने के लिए गारा बना रहा था, तो कोई पेड़ की छँटाई कर रहा था. आस-पास के खेतों में सब्ज़ियों की खेती भी नज़र आई.

यहाँ जब लोगों से बातचीत हो रही थी तो पता चला कि पंडो समुदाय के कुछ लोगों को बहका फुसला कर उनकी ज़मीन हड़प ली गई है. लेकिन इस तरह की घटनाओं पर समुदाय में चिंता नज़र आती है. 

पंडो नगर में ज़्यादातर घर कच्चे हैं लेकिन लगभग सभी घरों में शौचालय है और इनका इस्तेमाल भी होता है. 

पहाड़ी कोरवा आदिवासियों और पंडो आदिवासी समुदाय की तुलना की जाए तो ऐसा नहीं है कि पंडो समुदाय बहुत संपन्न समुदाय है. ऐसा भी नहीं है कि शिक्षा के मामले में पंडो समुदाय ने कोई बड़ी कामयाबी हासिल कर ली है. 

मसलन पंडो समुदाय के कुछ लोगों को नौकरी बेशक मिली है, पर ये नौकरी क्लास 3 या क्लास 4 की नौकरियाँ हैं. यानि प्रशासनिक व्यवस्था में सबसे नीचे. 

लेकिन बड़ी बात ये है कि इस आदिवासी समुदाय के लोगों ने ना सिर्फ़ इस बात पर अफ़सोस जताया कि उनके लोग अभी बड़े पदों पर या विधान सभा या संसद में नहीं पहुँचे है, बल्कि इस समाज के लोगों में बड़े पदों पर अपने समुदाय का प्रतिनिधित्व देखने की एक तड़प नज़र आती है. 

हमारी नज़र में यही सबसे बड़ा फ़र्क़ है. पहाड़ी कोरवा एक ऐसा समुदाय है जो पूछने पर भी अपनी हालत बयान नहीं करता है. उसमें एक उदासीनता, एक निराशा और सबसे बड़ी बात की कोई तमन्ना नज़र नहीं आती है. वहीं पंडो समुदाय में आकांक्षाएँ (aspirations) नज़र आती है. 

पहाड़ी कोरवा जनजाति में सबसे ज़रूरी जो काम लगता है वो है पूरे समुदाय को जीने के लिए प्रेरित करने की. वहीं पंडो समुदाय की आकांक्षाओं का सम्मान करते हुए उन्हें नए और अधिक अवसर दिए जाने की ज़रूरत है. 

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  1. […] से जूझ रहे इन आदिवासी समुदायों की मजबूरी की कहानी छिपी है. सरकारी योजनाओं तक पहुंच की कमी […]

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