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आदिवासी या वनवासी बहस शुरू करने वाले ही इसे अब बेकार बता रहे हैं

गुजरात, मध्य प्रदेश और राजस्थान के आदिवासी समुदायों में राजनीतिक जागरूकता बढ़ी है. इसके साथ ही यहाँ के आदिवासी समुदाय अपनी आदिवासी पहचान के प्रति भी सचेत हुए हैं. इसलिए राहुल गांधी ने जो आदिवासी बनाम वनवासी की बहस छेड़ी है, वह इन राज्यों में ख़ासतौर से बीजेपी को असहज स्थिति में डालती है.

राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (NCST) के अध्यक्ष हर्ष चौहान ने कहा है कि संविधान में आदिवासी या वनवासी कोई भी शब्द इस्तेमाल नहीं किया गया है. इसलिए आदिवासी या वनवासी पर बहस बेमतलब की है. संविधान में जनजाति शब्द का प्रयोग किया गया है.

हाल ही में भारत जोड़ो यात्रा पर निकले कांग्रेस के नेता और लोकसभा सांसद राहुल गांधी ने कहा था कि बीजेपी को आदिवासी की जगह वनवासी शब्द का इस्तेमाल करने के लिए माफ़ी माँगनी चाहिए. उन्होंने दावा किया था कि आदिवासी शब्द का मतलब होता है कि वह समुदाय इस देश का मूल निवासी है और यहाँ के जंगल, जल और ज़मीन पर उसका अधिकार है. 

राहुल गांधी के इस बयान पर प्रतिक्रिया देते हुए हर्ष चौहान ने कहा कि आदिवासी शब्द का इस्तेमाल अंग्रेजों ने किया था. जबकि वनवासी शब्द का इस्तेमाल रामायण काल से होता रहा है. 

उन्होंने कहा कि भारत के संबंध में आदिवासी शब्द के इस्तेमाल का किसी समुदाय के लिए कोई ख़ास मायने नहीं हैं. क्योंकि यहाँ का हर समुदाय यह दावा करता है कि वे इस देश के मूल निवासी हैं. 

वो पूछते हैं कि अगर सभी समुदाय यहाँ के मूल निवासी हैं और आदिकाल से यहीं पर रह रहे हैं तो फिर कुछ ख़ास समुदायों के लिए आदिवासी शब्द का इस्तेमाल कितना उचित है. 

हर्ष चौहान ने कहा कि वनवासी या आदिवासी की बहस में उलझने की बजाए  उन समुदायों पर विस्तृत शोध करने की ज़रूरत है. उन्होंने बताया कि राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू के निर्देश पर अनुसूचित जनजाति आयोग पहली बार एक ख़ास वर्कशॉप आयोजित कर रहा है. 

भारत में कई आदिवासी समुदायों के सामने वजूद बचाने का संकट है

यह वर्कशॉप रविवार और सोमवार (27 और 28 नवंबर 2022) को  दिल्ली के विज्ञान भवन में आयोजित की जाएगी. इस वर्कशॉप का मक़सद शिक्षाविदों, छात्रों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को आदिवासियों पर शोध करने के लिए प्रेरित करना है. उन्होंने कहा कि आदिवासी समुदायों से जुड़े शोध में तीन बातों पर फ़ोकस किया जाना चाहिए – पहचान, अस्तित्व और विकास. 

आदिवासियों से जुड़े शोध और अध्ययन की बातें होती रही हैं. लोग आमतौर पर आदिवासी समुदायों की संस्कृति के बारे में बात करते हैं. लेकिन कुछ एंथ्रोपोलजिकल अध्ययन छोड़ दिए जाएँ तो इस क्षेत्र में ज़्यादा काम नहीं हुआ है. 

आदिवासियों के बारे में आमतौर पर नाच-गान और उनकी वेशभूषा को ही उनकी संस्कृति मान लिया जाता है. लेकिन आदिवासी संस्कृति सिर्फ़ यहाँ तक सीमित नहीं है. आदिवासी समुदायों के सामाजिक और पारिवारिक मूल्यों, जीवनशैली, और संविधान में आदिवासियों को दिए गए अधिकारों के बारे में अध्ययन और शोध की ज़रूरत है. 

उन्होंने दावा किया कि देश के कम से कम 104 विश्वविद्यालय दो दिन की इस वर्कशॉप में हिस्सा ले रहे हैं. 

आदिवासी बनाम वनवासी की बहस को अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष हर्ष चौहान बेशक बेकार बता रहे हैं. लेकिन इस बहस के बड़े राजनीतिक मायने हैं इस बात से वो अनभिज्ञ नहीं हैं.

वे मध्य प्रदेश में बीजेपी के आदिवासी नेता हैं और वनवासी कल्याण आश्रम से लंबे समय से जुड़े हुए हैं. वनवासी कल्याण आश्रम राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का एक संगठन है.

यह संगठन आदिवासी इलाक़ों में काम करता है. लेकिन इसकी स्थापना आदिवासी समुदायों में हिन्दू धर्म का प्रचार करने के लिए की गई थी.

‘वनवासी’ शब्द के इस्तेमाल पर ज़ोर देने वाले संगठन के अग्रणी नेता रहे हर्ष चौहान आज एक संवैधानिक पद पर हैं. लेकिन वे इस बात से इंकार नहीं कर सकते हैं कि अगर यह आज आदिवासी या वनवासी की बहस हो रही है तो उस बहस को पैदा करने की ज़िम्मेदार वह संगठन है जिसमें उनकी राजनीतिक ट्रेनिंग हुई है.

1 COMMENT

  1. असल में राजनैतिक गलियारों में आदिवासियों को लेकर खींचतान मची हुई। सभी (राजनैतिक या गैर-राजनैतिक) पार्टियां आदिवासी आम जनों को तरह -तरह लुभावने सपने दिखाने की कोशिश करते हैं। पर आदिवासियों की उत्थान या विकास की बारी आती है तब ये पार्टियां सिर्फ आश्वासन ही देते रहते हैं।

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