(Tribes of Odisha) ओडिशा की कुल आबादी का क़रीब 22.5 प्रतिशत आदिवासियों का है, और यहां पर क़रीब 62 आदिवासी समूह हैं. इन आदिवासी समुदायों या समूहों में से 13 को पीवीटीजी (PVTG) यानि आदिम जनजाति की श्रेणी में रखा गया है.
पीवीटीजी यानि वो आदिवासी समूह जिनके संरक्षण और प्रोत्साहन के लिए सरकार अलग से क़ानून बनाती है. इसके साथ-साथ इन आदिवासियों के विकास के लिए अलग से योजनाएं बनती हैं.
इन योजनाओं के लिए लिए धन उपलब्ध कराया जाता है. ओडिशा के आदिवासियों से मुलाक़ात के लिए मुझे कम से कम तीन बार ओडिशा जाने का मौक़ा मिला.
इन दो यात्राओं में मुझे लोधा, हिल खड़िया, मांकड़िया, बोंडा, परंग प्रॉजा, धुरवा और कोया आदिवासियों से मिलने और उनके साथ कुछ वक़्त बिताने का मौक़ा मिला.
पहली यात्रा में मेरी मुलाक़ात मयूरभंज में तीन पीवीटीजी कहे जाने वाले आदिवासियों से हुई, और उनमें से एक – लोधा – की यह कहानी है.
इन आदिवासियों से मिलने हम लोग मयूरभंज के जसीपुर ब्लॉक में पहुंचे और यहीं डेरा डाला. अगले 15 दिन यही हमारा ठिकाना रहा और यहीं से इन आदिवासियों की बस्तियों में घूमना हुआ.
जसीपुर दरअसल एक छोटा सा कस्बा है, लेकिन सिमलीपाल टाइगर रिज़र्व से सटे होने की वजह से लोग इस छोटे से कस्बे को जानते हैं.
अंग्रेज़ों के ज़माने में लोधा आदिवासियों को आपराधिक प्रवृत्ति वाले लोगों की श्रेणी में रखा गया. बाक़ायदा यह जनजाति क्रिमिनल ट्राइब के तौर पर नोटिफ़ाइड थी.
आज़ादी के बाद 1960 के दशक में इस क़ानून को ख़त्म कर दिया गया. लेकिन हमने यह पाया कि लोधा आदिवासियों के बारे में आज भी आम धारणा नहीं बदली है. चलिए अपने अनुभव की पूरी कहानी बताते हैं.
लोधा आदिवासियों से मिलने हम सबसे पहले मयूरभंज ज़िला मुख्यालय, बारीपदा के चिटामटिया गांव में पहुंचे. हम यहां सुबह-सुबह ही पहुंच गए थे.
औरतों के बदन पर फटी पुरानी धोती और ज़्यादातर अधनंगे या पूरी तरह से नंगे बदन बच्चे यहां नज़र आते हैं.
ग़रीबी और कुपोषण से मारे इस गांव में लोधा आदिवासियों के 75 घर हैं, और कुल आबादी है 252. हम लोगों को वहां देखकर 3-4 लोधा आदमी हमारे पास आ जाते हैं.
हमने उन्हें बताया कि हम 2-4 दिन उनके गांव में वक़्त बिताना चाहते हैं और उनसे बातचीत करना चाहते हैं. मैंने उनसे कहा कि मुझे एक-दो लोग अगर मदद कर दें.
अगर वो मेरी मदद करेंगे तो वहां के लोगों से बातचीत करने में तो मेरा काम आसान हो जाएगा. इसके लिए गांव के दो लोग तैयार भी हो गए.
इन आदिवासियों से दिन भर बातचीत होती रही. मैंने उनसे पूछा कि क्या अब उनके बारे में ग़ैर आदिवासी समुदायों की राय बदल रही है. या फिर अभी भी उन्हें चोर या लुटेरा ही समझा जाता है.
उनमें से ज़्यादातर का कहना था कि मौटेतौर पर अभी भी उन्हें अपराधी ही माना जाता है. गांव के एक बुज़ुर्ग रघुनाथ कहते हैं, “हमारे समुदाय के लोग खेत मज़दूरी करते हैं या फिर जंगलों से जड़ी बूटी जमा करते हैं. लेकिन हमें खेतों में काम कम ही मिलता है. क्योंकि वो अभी भी मानते हैं कि हम चोर हैं.”
बस्ती के आस-पास के जंगल इन लोधा आदिवासियों की रोज़ी-रोटी का बड़ा या शायद एकमात्र साधन हैं. उड़ीशा के मयूरभंज ज़िले के जंगलों में औषधीय पेड़ों की भरमार है.
भारत के औषधीय गुण वाले लगभग सभी पेड़-पौधे यहां पर मिलते हैं. इसके अलावा कई तरह की वनोपज भी इन जंगलों में होती है, जो आदिवासियों के जीने का सहारा है.
यह कहना ग़लत नहीं होगा कि लोधा आदिवासियों की पूरी ज़िंदगी आज भी जंगल से ही चलती है.
सुशांतो भगत कहते हैं, “ज़्यादातर घरों के पुरुष सुबह-सुबह जंगल चले जाते हैं, जड़ीबूटियां जमा करने. हमें हर रोज़ 15 से 20 किलोमीटर दूर के जंगलों में जाना पड़ता है, और कई बार आस-पास के जंगलों में जब कुछ नहीं मिलता, तो 35 से 40 किलोमीटर दूर जंगलों में जाना पड़ता है.”
भगत इन्हीं जंगलों में जड़ीबूटियों की तलाश में पूरा दिन बिताते हैं. पास वाले जंगल में जब बात नहीं बनती, तो अपनी साइकिल दूसरे जंगल की तरफ़ ले चलते हैं.
मैंने सुशांतो भगत से पूछा कि क्या मैं उनके साथ जंगल जा सकता हूं. उन्होंने कहा कि जा तो सकता हूं लेकिन आज तो देर हो चुकी है.
मुझे भी एहसास हुआ कि इस बातचीत में दोपहर बीत चुकी है, और मेरी कैमरा टीम भी अब भूख से कुम्हलाने लगी थी. सो मैंने उनसे अगले दिन सुबह-सुबह आने की बात कह कर अपनी टीम के साथ विदा ली.
अगले दिन सुबह छह बजे ही हम चिटामटिया गांव पहुंच गए. सुशांतो हमारा इंतजार कर रहे थे. जैसे ही हम पहुंचे तो उन्होंने मुझसे पूछा की क्या मैं सचमुच में उनके साथ साईकल से जंगल जाना चाहता हूं?
मेरे हां कहने के बाद उन्होंने अपनी साईकल निकाली, और कुल्हाड़ी और फ़ावड़ा ले लिया. मैंने उनसे कहा कि वो बेफ़िक्र रहें, मैं भी आधी दूर साईकल चला सकता हूं. इसके बाद हम दोनों साईकल पर निकल पड़े.
मैंने कहा कि पहले साईकल मैं ही चलाता हूं. पगडंडियों से होते हुए हम घने जंगल में पहुंच चुके थे. लेकिन सुशांतो भगत रुकने को कह ही नहीं रहे थे. 10-12 किलोमीटर मैं साईकल चला चुका था, और बुरी तरह से हांफ़ गया था.
पसीना पानी की तरह बह रहा था. एक जगह मैंने साईकल रोककर मज़ाक में सुशांत से पूछा कि कहीं वो मुझे जानबूझ कर थकाना तो नहीं चाहता है.
इस पर सुशांतो नाराज़ हो जाता है. मैंने उससे माफ़ी मांगी और समझाते हुए कहा कि मैं मज़ाक कर रहा था. इसके बाद सुशांतो साईकल चलाता है और मुझे लगता है क़रीब-क़रीब 10-12 किलोमीटर और हमने साईकल चलाई होगी. जहां आख़िरकर सुशांतो को वो पौधा मिल जाता है जिसकी उसे तलाश है.
सुशांतो उस पौधे की जड़ को खोदता है और एक कपड़े में बांध लेता है. सुशांतो कुछ और जड़ों की तलाश करता है, और खोदता रहता है. लेकिन अब उमस और प्यास से मेरी हालत ख़राब थी.
मैंने उनसे कहा कि क्या अब हम वापस चल सकते हैं, तो उन्होंने कहा कि इतनी दूर आए हैं और अभी तो किलो भर भी जड़ जमा नहीं हुई है.
सुशांतो भगत ने बताया “इन जड़ीबूटियों के हमें 60 रुपए प्रति किलो के हिसाब से मिलते हैं, सूखी हों तो 120 रुपए.”
मैंने उनसे कहा कि उनकी उस दिन की दिहाड़ी मैं उन्हें दे दूंगा, और हम वापस उनके गांव लौट आए. लौटते-लौटते दिन ढल चुका था.
लोधा जनजाति को सरकार ने पीवीटीजी (PVTG) की श्रेणी में रखा है. यानि आदिवासियों में भी लोधा आदिवासियों में सामाजिक और आर्थिक पिछड़ापन ज़्यादा है.
इनकी जनसंख्या वृद्धि दर भी काफ़ी कम है. मयूरभंज के दो ब्लॉक मोरडा और सुलियापदा में लोधा आदिवासियों के कुल 12 गांव या बस्तियां हैं.
इनमें कुल आबादी है 3541. सन् 2015-16 के सर्वे के हिसाब से कुल 1103 लोधा परिवार हैं और इनकी आबादी में 429 का इज़ाफ़ा हुआ है यानि जनसंख्या वृध्दि दर क़रीब 13.78 प्रतिशत है.
इसी वजह से इस आदिम जनजाति के लिये विशेष योजना और बजट बनाया जाता है. 1986 में सरकार ने इन आदिवासियों के लिये लोधा विकास एजेंसी का गठन किया.
इस एजेंसी पर लोधा आदिवासियों की आबादी में बढ़ोत्तरी पर नज़र रखने के अलावा कई ज़िम्मेदारियां हैं, जैसे कि इनके लिये घर का इंतज़ाम, स्कूल और शिक्षा, स्वास्थ सेवा और पोषण, और सबसे अहम इनकी जीविका के साधन यानि उनकी रोज़ी-रोटी का इंतज़ाम.
पिछले तीस सालों में लोधा आदिवासियों के लिए कम-से-कम पांच एक्शन प्लान बने, बजट भी दिया गया, लेकिन इन बस्तियों में रहने वाला एक भी लोधा परिवार अब तक ग़रीबी रेखा से ऊपर नहीं उठ पाया है.
एक धारणा यह भी है कि ख़ुद आदिवासी ऊपर उठना ही नहीं चाहते, और एक-से-एक बेहतरीन योजनाएं इसलिए कामयाब नहीं हो पातीं क्योंकी आदिवासी आलसी हैं और नशे में चूर रहते हैं.
लेकिन चिटामटिया गांव के लोधा आदिवासियों से बातचीत में ये साफ़ हो जाता है कि यह धारणा कितनी बढ़ाई गयी है.
बस्ती के प्रधान रघुनाथ भगत कहते हैं, “सरकार चाहे जितने भी एक्शन प्लान ले आए, वे सफ़ल नहीं होंगे. वो बोलते हैं होगा होगा, लेकिन कुछ नहीं होता है. एक दिन मैं ये बोलते-बोलते चला जाउंगा, तब इन लड़के लड़कियों का क्या होगा?
ये तो सरकार से मुक़ाबला भी नहीं कर सकते. मैं नवीन पटनायक को बोल चुका हूं, कलैक्टर से बात कर चुका हूं, और लोधा ऑफ़िसर से भी. तब भी कुछ नहीं हो, तो मैं क्या कर सकता हूं.”
सबसे बड़ी चुनौती है इन लोधा आदिवासियों के लिये रोज़ी-रोटी के वैकल्पिक साधन तैयार करना. इन आदिवासियों के पास बीपीएल कार्ड, आधार कार्ड, लेबर कार्ड, जॉब कार्ड, पासबुक, वोटरकार्ड जैसे तरह-तरह के सरकारी कार्ड हैं.
इन रंग-बिरंगे कार्डों से इनकी ज़िंदगी को आसान बनाने का ऐलान तो किया जाता है, लेकिन ज़मीन पर इन कार्डों का कोई फ़ायदा इन आदिवासियों को नहीं मिलता. हालत ये है कि इनके गांव में बनी सड़क में भी इनको मनरेगा के तहत काम नहीं दिया गया.
लोधा आदिवासी यूं तो खेती में माहिर नहीं हैं, लेकिन अब खेती करना सीख रहे हैं. लेकिन खेती करने के लिए ज़मीन कुछ ही परिवारों के पास है.
हांलाकि कुछ आदिवासियों को ज़मीन मिली है, पर ज़्यादतर रोज़ी-रोटी के लिये बटाई पर खेती करते हैं या फिर दूसरे के खेतों में मजदूरी.
साक्षरता दर की बात करें तो लोधा आदिवासियों की कुल साक्षरता दर है 43.1 प्रतिशत, पुरुषों में 51.2 प्रतिशत और महिलाओं में 35.1 प्रतिशत.
लोधा आदिवासियों के बच्चों को पढ़ाने के लिये विशेष स्कूल बनाये गये हैं, जिनमें बाक़ायदा होस्टल की व्यवस्था भी है. लेकिन इन स्कूलों में समस्या ये है कि वहां लोधा अध्यापक नहीं हैं, और बच्चों को दूसरी भाषा समझने में दिक्कत होती है.
पूर्णोचरण भगत कहते हैं, “वहां टीचर संथाली में बात करता है, जो हमारे बच्चों को समझ नहीं आता. अगर हमारे बच्चों को समझ नहीं आता, तो उन्हें स्कूल से छुट्टी दे देते हैं.”
इस बारे में लोधा विकास एजेंसी के अधिकारियों का कुछ और ही कहना है. लोधा विकास एजेंसी के विशेष अधिकारी कारू सोरेन बताते हैं कि लड़कियों की शिक्षा के लिए ख़ास प्रोजेक्ट 2008 में शुरु हुआ था, और स्कूल में तीन लोधा अध्यापक नियुक्त हुए.
किसी के भी अध्यापक बनने के लिए कम से कम 12वीं पास होना ज़रूरी है, लेकिन लोधा आदिवासियों में ऐसे लोग कम हैं. जब कोई लोधा न मिले, तब दूसरे समुदाय के लोगों को ये नौकरी दे दी जाती है. ऐसे में संथाल समुदाय के लोग, जिनकी तादाद इस इलाक़े में ज़्यादा है, उन्हें अध्यापक की नौकरी मिल जाती है.
ग़रीबी, शिक्षा की कमी और ख़ुद को ज़िन्दा रखने की चुनौती – लोधा आदिवासी इनसे जूझने के साथ-साथ पहचान का संकट भी झेल रहे हैं.
1962 में उस क़ानून को समाप्त कर दिया गया था जिसके अनुसार लोधा आदिवासियों की पहचान अपराधी प्रवृति के लोगों के तौर पर होती थी.
लेकिन अफ़सोस कि इन आदिवासियों की पहचान को लेकर आज भी समाज में वही धारणा मिलती है. यंहा तक कि इन आदिवासियों के लिये बनाये गये क़ानून और योजनाओं को लागू करने और निगरानी की ज़िम्मेदारी संभालने वाले अधिकारी भी इसी धारणा के तहत काम करते हैं.
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