HomeAdivasi Dailyछत्तीसगढ़ के पहाड़ी कोरवा आदिवासी कौन है?

छत्तीसगढ़ के पहाड़ी कोरवा आदिवासी कौन है?

पहाड़ी कोरवा एक ऐसा आदिवासी समुदाय है जो आज भी खाने की तलाश में जंगल में भटकने को मजबूर है. यह समुदाय अभी भी तथाकथित मुख्यधारा से काफ़ी दूर और अलग-थलग है.

पहाड़ी कोरवा (Pahari korwa), कोरवा आदिवासी की उपजनजाति मानी जाती है. पहाड़ी कोरवा आदिवासी अक्सर पहाड़ों के उपर घर बनाते थे. शायद इसलिए इन्हें पहाड़ी कोरवा कहा गया है.

यह आदिवासी पीवीटीजी (PVTG) यानी विशेष रूप से पिछड़ी जनजाति है. पीवीटीजी के लिए सरकार कई विशेष योजनाएं बनाती है.

पीवीटीजी में शामिल समुदायों को परिभाषित करने के लिए कुछ मापदंड तय किए गए है. यह मापदंड है-  वे आदिवासी जो आर्थिक रूप से पिछड़ी हो, खेती में पांरपरिक तकनीकों का इस्तेमाल करते हो, सक्षारता दर न्यूनतम हो और जनसंख्या घट रही हो.

पहाड़ी कोरवा आदिवासी छत्तीसगढ़ (Tribes of chattisgarh) के सरगुजा, बलरामपुर, जशपुर और कोरबा के पहाड़ियों और जंगलों में रहते हैं. 2011 की जनगणना के अनुसार इनकी कुल जनसंख्या 44026 हैं.

रहन-सहन

पहाड़ी कोरवा आदिवासियों के गाँव अन्य समुदाय से अलग ही होते हैं. इनकी बस्तियों में बने घर भी एक-दूसरे से कुछ कुछ दूरी पर स्थित होते हैं.

अगर एक आदिवासी का घर पहाड़ी के उपर होगा, तो दूसरे का जंगल के किसी कोने में स्थित होगा और तीसरे का किसी ढलान में मौजूद होगा.

घर बनाने के लिए स्थान कैसे तय होता है

पहाड़ी कोरवा घर बनाने से पहले जगह का चयन एक पांरपरिक प्रक्रिया के अनुसार करते हैं. इस पांरपरिक प्रक्रिया से यह तय किया जाता है कि घर बनाने के लिए चुना गया स्थान शुभ है या नहीं.

इस पांरपरिक प्रक्रिया के अनुसार पहाड़ी कोरवा आदिवासी घर बनाने के लिए चुने गए स्थान पर एक गड्डा करते हैं.  जिसके बाद वे हाथ में चावल लेकर गड्डा के चक्कर लगाते हैं और पूर्व की ओर देखते हुए गड्डा पर चावल के दाने फेंकते हैं. अगर यह दाने गड्डा पर गिरते हैं, तो इसे शुभ माना जाता है.

घरों की बनावट

पहाड़ी कोरवा के घर एक कमरे जितने होते हैं. इन्हीं कमरों में रसोई, बैठक और सोने के लिए जगह बनी होती है.

इन घरों की दीवार कच्ची मिट्टी और लकड़ियों को गाड़ कर बनाई जाती है. इसकी छत भी लकड़ियों से तैयार की जाती है. जिसके उपर घास-फूल डला जाता है.

ये मिट्टी के घर काफ़ी कामचलाऊ होते हैं. अक्सर कुछ साल के बाद कोरवा आदिवासियों को अपने लिए नए सिरे से मकान बनाने पड़ते हैं.

कच्चे मकानों में सांप-बिच्छु जैसे जानवरों और कीटों के काटे जाने का भय हमेशा बना रहता है.

पहाड़ी कोरवा के घर छोटे होते है, इसलिए इन घरों में दैनिक उपयोग की वस्तुएं सीमित ही होती है.

खेती-बाड़ी

पहाड़ी कोरवा आदिवासी पहले बेवर कृषि करते थे. ऐसी खेती ज़िसमें पांरपरिक तकनीकों का इस्तेमाल होता हो.

खेती शुरू करने से पहले जंगल के छोटे से भाग में आग लगाई जाती है. जिसके बाद यह ज़मीन खेती के लिए तैयार हो जाती है.

जैसे ही बारिश का मौसम शुरू होता है, आदिवासी इस ज़मीन पर बीज का छिड़काव करते हैं. इस खेती में वे किसी भी तरह की निदाई-गुड़ाई नहीं करते.

इसलिए इससे मिलने वाला उत्पाद भी काफी कम होता था. एक या दो बार खेती करने के बाद यह आदिवासी अपना स्थान बदल देते थे.

कुछ पहाड़ी कोरवा वन से मिलने वाले उपज के सहारे ही अपना गुज़रा करते थे. यह आदिवासी जंगल से मिलने वाले फल-फूल और जानवरों के शिकार पर पूरी तरह से निर्भर थे.

पहाड़ी कोरवा आदिवासी जंगली जानवर जैसे हिरण, सुअर, खरगोश, गिलहरी, चिड़िया का शिकार करते थे.

शिकार के लिए यह आदिवासी तीर धनुष, भाला और कुल्हाड़ी का प्रयोग करते थे.

वर्तमान में यह आदिवासी जाल, मच्छरदानी के टुकड़े, चोरईया, बंशी से मछली का शिकार करते हैं.

इसके अलावा यहां की महिलाएं श्रृंगार के रूप में सूरज, चांद, सांप, बिच्छु, वृक्ष के आकृति का गोदना(tattoo) कलाई, पैर, गर्दन से नीचे गुदवाती है.

यह महिलाएं नाक व कान में लकड़ी के टुकड़े या गिलट के गहने पहनती हैं.

इसके साथ ही आभूषण जैसे तरकी, तरका, हसली, कंखता(कंगन), पछवा(बिछिया), चुड़िया, करधनी भी पहनती हैं.

आर्थिक स्थिति

पहाड़ी कोरवा की अर्थ व्यवस्था पूरी तरह से जंगलों से मिलने वाले उत्पादन पर निर्भर है.

यह आदिवासी वनोपज जैसे महुआ, तेन्दुपत्ता, शहद और लाख, हर्रा, बेहड़ा आदि का संग्रहण करते हैं.

महुआ का उपयोग यह आदिवासी शराब बनाने और बाजार में बेचने के लिए करते है. पहले ये आदिवासी बेवर कृषि करते थे.

बेवर कृषि में पांरपरिक तकनीकों का इस्तेमाल होने के कारण उत्पादन अच्छा नहीं होता था.

इसके अलावा पहाड़ी कोरवा आदिवासी दूसरे समुदाय की खेत में मज़दूरी और गड्डा खोदने जैसे कार्य करते हैं.

वहीं बांस से बर्तन निर्माण, छिंद पत्ते से चटाई निर्माण, मोहलाइन झाल से रस्सी निर्माण, जंगली घास से झाडू भी बनाते हैं.

इसके साथ ही ये मुर्गी और बकरी का पालन करते हैं.

जन्म, मृत्यु और विवाह

जन्म – पहाड़ी कोड़वा आदिवासियों में जन्म के बाद माता को हल्दी से मिला उबला चावल खिलाया जाता है. ताक़त के लिए एक काढ़ा भी पिलाया जाता है.

छठवें दिन शिशु और माता दोनों नहा-धोकर स्थानीय देवी-देवता का आर्शीवाद लेते हैं.

इसके अलावा उत्सव मनाने के लिए गाँव के सभी लोगों को महुआ से बनी शराब पिलाई जाती है.

शादी – लड़कियों को मासिक धर्म आने के बाद और लड़कों में मूछें आने के बाद विवाह योग्य माना जाता हैं.

विवाह का प्रस्ताव लड़के वालों की तरफ से ही आता है. विवाह में अनाज, तेल, दाल, गुड़ और 40 रूपये सुक के रूप में लड़की के पिता को दिए जाते हैं.

पहाड़ी कोरवा आदिवासियों में पुनर्विवाह देवर-भाभी के बीच में मान्य माना जाता है.

मृत्यु:- पहाड़ी कोरवा आदिवासियों में मृत्यु के बाद दफनाया जाता है. 10वें दिन मृतक के परिवार वाले स्नान कर स्थानीय देवी-देवताओं की पूजा करते हैं.

इसके अलावा जिस झोपड़ी में आदिवासी की मृत्यु होती है, उसे तोड़ दिया जाता है और एक नई झोपड़ी तैयार की जाती है.

राजनीतिक और धार्मिक जीवन

पहाड़ी कोरवा की अपनी जाति पंचायत है. इन जाति पंचायत का काम सामाजिक प्रथाओं का पालन करवाना है.

इस पंचायत के मुख्य को नायक या प्रधान या फिर पटेल के नाम से जाना जाता है. इसके अलावा दो-तीन अन्य व्यक्ति भी पंचायत में मौजूद होते है.

यह व्यक्ति गांव में सूचना देना का काम करते है. इन्हें सेवा कहा जाता है.

पहाड़ी कोरवा आदिवासी यह मानते है कि इनके जंगलों के आस-पास अनेक देवी-देवताएं रहते हैं.

देवी-देवताओं के अलावा यह आदिवासी अपने घर के निश्चित स्थान पर पूर्वजों को स्थान देते हैं.

पहाड़ी कोरवा आदिवासी बीज बोने के अवसर पर बीज बोहानी, खेती से मिलने वाला उत्पाद घर आने पर छेरता और कच्ची उड़द की दाल अर्पित कर पितर त्योहार आदि मानते हैं.

वहीं इनके लोकनृत्यों में करमा नृत्य(करम वक्ष के चारों ओर गुमना) और दमकच नृत्य (शादी के अवसर पर करना) शामिल हैं.

पाहड़ी कोरवा की चुनौतियां

पहाड़ी कोरवा आदिवासियों में सबसे बड़ी चुनौती खुद का असतित्व बनाए रखना है. यह समुदाय आज भी खुद को जिंदा रखने की उलझन में फंसा हुआ है.

वह मोटेतौर पर आज भी जंगल से मिलने वाले वन उत्पादों पर ही जीता है. रोज़गार के अन्य साधनों में कुछ लोग मेहनत मज़दूरी के लिए बाहर जाते हैं. लेकिन उनकी संख्या बहुत कम है.

पहाड़ी कोरवा आदिवासियों में कुपोषण एक बहुत बड़ी चुनौती है. खासतौर महिलाओं और बच्चों में कुपोषण बुहत ज़्यादा है.

इसकी एक बड़ी वजह बहुत कम उम्र में शादी हो जाना भी है. इसके अलावा पोषण से जुड़ी योजनाओं का इन आदिवासियों तक नहीं पहुंचना भी एक बड़ा कारण है.

पहाड़ी कोरवा समुदाय के लोगों को बंधुआ मज़दूर बनाने के कई केस भी सामने आते रहे हैं.

पहाड़ी कोरवा समाज एक ऐसा समाज है जिस पर ख़तरा लगातार गहरा होता जा रहा है. उसके असतित्व पर संकट बढ़ रहा है

क्योंकि पहाड़ी कोरवा को बदलने के सभी प्रयास नाकाम हुए हैं. ये प्रयास नाकाम हुए क्योंकि सरकार या फिर प्रशासनिक ऐजेंसिया इस आदिवासी समुदाय के लोगों का भरोसा नहीं जीत सके.

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