मानव, आलौकिक शक्ति और प्रकृति के बीच जो अनुनाश्रय संबध है, वही आदिवासियों के धर्म को परिभाषित करता है. ये एक दूसरे के पूरक के तौर पर सहजीवी रहा है. आदिवासियों के धर्म में एक इकोलॉजिकल सेटिंग (Ecological Setting) मिलेगी. यानि जंगल, ज़मीन, नदी और पहाड़ यानि उनका जो परिवेश है, वही उनकी ज़िंदगी है और वहीं पर आदिवासियों के धर्म की उत्पत्ति हुई है. मसलन आप सरना स्थल को ही लें. जब सरहूल का त्यौहार आता है तो आदिवासियों के पवित्र सरना स्थल पर पूरा समुदाय सामूहिक रूप से पूजा करता है. आदिवासियों के धार्मिक नेता पाहन समुदाय की तरफ़ से आलौकिक शक्तियों और पूर्वजों का आह्वान करते हैं. जैसे सिंहबुंगा, धर्मेश, पृथ्वी माता, पाट देवता, इनकी पूजा होती है. आदिवासियों के धर्म में जो सामुहिकता आपको नज़र आएगी, वो बहुत कम धर्मों या समुदायों में मिलती है.

आदिवासियों के बारे में ग़लत धारणाओं या कम जानकारी में से एक बात यह भी पाई जाती है कि उनका कोई धर्म ही नहीं होता. आदिवासी सिर्फ़ अपने पूर्वजों और प्रकृति को ही मानते हैं. यानि वो किसी भगवान में विश्वास नहीं करते हैं. लेकिन यह धारणा सही नहीं है.
धर्म आख़िर है क्या, उनकी परंपरा और मान्यताएं हैं. इन मान्यताओं और परंपराओं का पीढ़ी दर पीढ़ी निर्वहन है. मसलन आदिवासी साल में दो बार अपने पुरखों के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए उन्हें भेंट चढ़ाते हैं. इसके बाद पुरखों का आह्वान किया जाता है और उनकी पूजा की जाती है. आदिवासियों और प्रकृति का अटूट संबंध रहा है और दोनों एक दूसरे पर निर्भर रहे हैं. आदिवासी धर्म के विकास को समझने के लिए उनकी परंपराओं को समझना बेहद ज़रूरी है. मसलन सरहूल के त्यौहार पर साल के वृक्ष की पूजा होगी, और कर्मा त्यौहार में कर्मा वृक्ष की पूजा होती है. पीढ़ी दर पीढ़ी ये परंपराएं बनी रही हैं. इस तरह से आदिवासियों की अपनी परंपराएं हैं और उनमें आपको एक निरंतरता मिलेगी. तो, प्रकृति के साथ विकास और इकोलॉजिकल सेंटिंग्स के अलावा एक आलौकिक शक्ति में विश्वास, यही है आदिवासियों का धर्म.

भारत के आदिवासियों के साथ धर्म की पहचान के मामले में राजनीतिक बेईमानी की गई है. जब भारत में जनगणना के लिए धर्मों का रेखांकन किया जा रहा था या जब धर्मों को सूचीबध्द किया जा रहा था तो हिंदू, इस्लाम, इसाई, सिख, बौध्द, या फिर जैन जैसे धर्मों को मान्यता दी गई. आदिवासियों के धर्म को मान्यता नहीं दी गई. आदिवासियों की धार्मिक आस्थाओं पर साहित्य की कमी नहीं है. इसके अलावा भी आदिवासी धार्मिक मान्यताओं के प्रमाणों की कमी नहीं है. वेरियर एल्विन के लेखन में ही आपको ठोस आधार और जानकारी मिल सकती है. इसके अलावा भी दुनिया भर में ऐसे ना जाने कितने आधार और प्रमाण आपको लिखित मिल सकते हैं. आज़ाद भारत में भी इस संबंध में काफ़ी कुछ लिखा गया है. आदिवासियों का धर्म प्री वेदिक है. आप इसे सिंधु घाटी की सभ्यता से भी जोड़ सकते हैं. लेकिन इसके बवाजूद आदिवासियों की धार्मिक पहचान को नकार दिया गया और जनगणना के कॉलम में उसका ज़िक्र नहीं किया गया है. भारत के कई हिस्सों में बड़ी संख्या में आदिवासी दूसरे धर्मों में शामिल हो गए हैं. उसके सांस्कृतिक और कई दूसरे कारण मिल सकते हैं. लेकिन अभी भी करोड़ों आदिवासी हैं जो अपनी धार्मिक मान्यताओं के साथ रह रहे हैं. उनको धार्मिक पहचान यानि उनके धर्म के कोडिफ़िकेशन की ज़रूरत है. ठीक उसी तरह से जैसे हिंदू कोड है या शरियत क़ानून है. इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि आर्यों के आगमन से पहले आदिवासियों का ही इस धरती पर आधिपत्य था, और उनका धर्म ही प्राचीनतम धर्म है. अफ़सोस की बात है कि आज़ाद भारत में लगातार इस तथ्य को नकारा गया है.
सरना धर्म की मांग आदिवासियों के लिए सिर्फ़ धर्मातंरण को रोकने के उपाय के तौर पर सीमित नहीं है. बल्कि आदिवासियों के क़ानूनी हक़ों के लिए भी आदिवासियों की धार्मिक पहचान बेहद ज़रूरी है. जब अदालतों में मामले चलते हैं तो आदिवासियों पर हिंदू कोड थोपने की कोशिश की जाती है या थोप दिया जाता है. लेकिन आदिवासियों के कस्टमरी लॉ बिलकुल अलग हैं. हमें ज़बरदस्ती हिंदू बता दिया जाता है, जो ग़लत है. आज के जो आधुनिक क़ानून हैं अंतत: तो वो सभी अलग -अलग धर्मों और समुदायों के कस्टमरी लॉ से ही बने हैं. इसलिए आदिवासियों के जो परंपरागत क़ानून हैं या रूढ़ीगत प्रथाएं हैं उन्हें समझना और स्वीकार करना ज़रूरी है.

1871 से 1941 तक आदिवासियों को भारत की जनगणना में अलग पहचान के साथ दर्ज किया गया. लेकिन उसके बाद आज़ाद भारत में यह प्रक्रिया भी बंद कर दी गई. तो एक तरह से देश की आज़ादी के साथ ही आदिवासियों के सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान को नज़रअंदाज़ कर दिया गया. शायद यह कहना ठीक होगा कि इसको जानबूझ कर नकार दिया गया. भारत के कई राज्यों में आदिवासियों का धर्म परिवर्तन हुआ और उन्हें इसाई बना दिया गया. लेकिन हिंदू धर्म को जिस तरह से आदिवासी संस्कृति पर ज़बरदस्ती थोपा जा रहा है, हर आदिवासी को जबरदस्ती हिंदू के तौर पर गिना जा रहा है, वह ख़तरनाक़ है. जिस तरह से लगातार हमारी मान्यताओं और रीति रिवाज़ों पर मज़बूत और ताक़तवर लोगों की धार्मिक पध्दतियां लादी जा रही हैं, उससे आदिवासी अस्तित्व पर ही ख़तरा पैदा हो रहा है.
सरना धर्म के पक्ष में फ़िलहाल झारखंड, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, बिहार और असम के ज़्यादतर आदिवासी समूह एक साथ खड़े हैं. अब सवाल ये है कि क्या भारत के सभी आदिवासी समूहों में उनकी आस्थाओं और मान्यताओं में एकरूपता देखी जा सकती है या बनाई जा सकती है. इसका जवाब है नहीं. शायद इसकी ज़रूरत भी नहीं है. आदिवासियों में पूर्वोत्तर राज्यों में दोनी पोलो धर्म की मांग उतनी ही जायज़ है जितनी सरना धर्म की. उसी तरह से गोंडी समुदाय या भील अपने अपने समुदायों के लिए अलग धर्म की मांग करते हैं तो इसमें भी कुछ ग़लत नहीं है. जैसे 44 लाख की आबादी पर जैन धर्म को अलग पहचान के साथ दर्ज किया जाता है, वैसे ही सरना धर्म में इन धर्मों के लिए अलग से कोड बन सकता है.

अभी आंकड़ों को देखें तो 2011 की जनगणना में धार्मिक पहचान में ‘अन्य’ वाले कॉलम में 50 लाख लोगों ने सरना धर्म लिखा था. झारखंड में कुल 42 लाख लोग थे जिन्होंने अपना धर्म इस कॉलम में दर्ज किया उनमें से 41 लाख ने सरना धर्म लिखा था. इस तरह से देखें तो ऐसे आदिवासी जो अपने आप को किसी और धर्म से नहीं जोड़ते हैं, उनमें से 97 प्रतिशत लोग सरना धर्म को अपनी पहचान मानते हैं. मेरी नज़र में यह आधार काफ़ी है जिसे केन्द्र सरकार नज़रअंदाज़ नहीं कर पाएगी या उसे नज़रअंदाज़ करने की कोशिश भी नहीं करनी चाहिए.
(प्रोफ़ेसर करमा उराँव जाने माने एंथ्रोपोलोजिस्ट हैं और सरना धर्म आंदोलन से भी जुड़े हैं.)