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जनगणना 2021 में आदिवासी संगठनों की अलग धार्मिक कोड की मांग, आंदोलन की है योजना

पिछली जनगणना के फॉर्मेट में 'अन्य' कॉलम सहित सात के मुकाबले कुल आठ निर्दिष्ट धर्म होंगे. SDRA और AKS धार्मिक संहिता के रूप में 'सरना' चाहते हैं. आदिवासी कुड़मी समाज पश्चिम बंगाल, झारखंड, ओडिशा और असम पर केंद्रित है. दूसरी ओर आदिवासी धर्म परिषद चाहता है कि अखिल भारतीय दृष्टिकोण से एक सामान्य धार्मिक कोड 'आदिवासी/जनजातीय' को शामिल किया जाए.

आने वाले दिनों में आदिवासियों के लिए जनगणना-2021 में अलग धर्म कोड की मांग का दबाव तेज होगा. दो दिसंबर को नई दिल्ली स्थित जंतर मंतर पर देशभर के विभिन्न आदिवासी संगठनों ने सत्याग्रह करने और धरना देने का फैसला किया है. इससे पहले राष्ट्रीय आदिवासी समाज सरना धर्म रक्षा अभियान के राष्ट्रीय प्रतिनिधि सभा की नई दिल्ली में बैठक होगी.

अब तक आदिवासियों को जनगणना में ‘अन्य’ कॉलम में रखा जाता रहा है. लेकिन जनगणना 2021 के लिए भारत के रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया (RGI) द्वारा तैयार किए गए फॉर्मेट में ‘अन्य’ कॉलम को हटा दिया है.

इस बार आदिवासियों को या तो धार्मिक पहचान कॉलम को छोड़ना होगा या खुद को छह निर्दिष्ट धर्मों में से एक के रूप में पहचानना होगा. यह हैं – हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध, जैन और सिख.

लेकिन यह आदिवासियों को स्वीकार नहीं है. वे चाहते हैं कि केंद्रीय गृह मंत्रालय उन्हें उस धर्म या आस्था की पहचान करने का अवसर सुनिश्चित करे जिसका वे सख्ती से पालन करते हैं और इस प्रकार उन्हें एक विशिष्ट धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान मिल सके.

इस मुद्दे पर तीन संगठन कई सालों से आंदोलन कर रहे हैं. ये हैं – अखिल भारतीय आदिवासी धर्म परिषद (ADP), राष्ट्रीय आदिवासी समाज सरना धर्म रक्षा अभियान (SDRA). ये दोनों रांची में स्थित हैं. तीसरा है आदिवासी कुड़मी समाज (AKS) जो पश्चिम बंगाल के पुरुलिया शहर में स्थित है.

न्यूज़क्लिक ने आंदोलन से निकटता से जुड़े नेताओं से बात कर मांगों का समझा.

पिछली जनगणना के फॉर्मेट में ‘अन्य’ कॉलम सहित सात के मुकाबले कुल आठ निर्दिष्ट धर्म होंगे. SDRA और AKS धार्मिक संहिता के रूप में ‘सरना’ चाहते हैं. आदिवासी कुड़मी समाज पश्चिम बंगाल, झारखंड, ओडिशा और असम पर केंद्रित है. दूसरी ओर आदिवासी धर्म परिषद चाहता है कि अखिल भारतीय दृष्टिकोण से एक सामान्य धार्मिक कोड ‘आदिवासी/जनजातीय’ को शामिल किया जाए.

आदिवासी हिन्दू नहीं

रांची विश्वविद्यालय में एंथ्रोपोलॉजी के पूर्व प्रोफेसर और सामाजिक विज्ञान के फैकल्टी डीन, डॉ कर्मा उरांव झारखंड पर केंद्रित संगठन में बिना किसी पद के एसडीआरए के आंदोलन का नेतृत्व कर रहे हैं. उन्होंने न्यूज़क्लिक को बताया कि ‘सरना’ धार्मिक संहिता के अनुयायी प्रकृति की प्रार्थना में विश्वास करते हैं.

उरांव के मुताबिक उनकी आस्था की पवित्र कब्र ‘जल, जंगल, ज़मीन’ है और अनुयायी पेड़ों की पूजा करते हैं. ‘सरना’ छोटा नागपुर पठार की भारतीय धार्मिक परंपराओं में पवित्र पेड़ों को संदर्भित करता है और अनुयायी जातीय समूहों से संबंधित हैं जैसे, खैरा, बैगा, हो, कुरुख, मुंडा और संथाल.

इस संगठन के संघर्ष को 11 नवंबर, 2020 को एक लक्ष्य मिला जब झारखंड विधानसभा ने ‘सरना’ को धार्मिक संहिता के रूप में शामिल करने की मांग का समर्थन करने के लिए एक प्रस्ताव को अपनाने के लिए एक विशेष सत्र आयोजित किया.

इसी साल फरवरी में आयोजित हार्वर्ड इंडिया सम्मेलन में झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने एक कदम और आगे बढ़कर घोषणा की कि “आदिवासी कभी हिंदू नहीं थे और न ही वे कभी होंगे.” आदिवासी प्रकृति के उपासक है.

सोरेन ने जोर देकर कहा था कि उनकी संस्कृति, धार्मिक अनुष्ठान और जीवन शैली हिंदुओं से पूरी तरह अलग है. वहीं दक्षिणपंथी कुछ नेताओं समेत बीजेपी ने झारखंड के सीएम के विचारों को अस्वीकार कर दिया और उनकी आलोचना की.

विरोध की योजना

एसडीआरए ने झारखंड विधानसभा द्वारा प्रस्ताव पारित होने की पहली वर्षगांठ के अवसर पर 11 नवंबर को एक बैठक निर्धारित की है. इसके बाद दिसंबर में नई दिल्ली के जंतर मंतर पर संगठन ‘सरना’ के अनुयायियों की एक बैठक आयोजित करेगा. उस बैठक में जनगणना के लिए ‘सरना’ को एक धार्मिक संहिता के रूप में शामिल करने की मांग पर जोर दिया जाएगा.

वहीं एडीपी ने 3 अक्टूबर को नई दिल्ली के गांधी पीस फाउंडेशन में प्रमुख नेताओं के बीच आंदोलन के अगले चरणों के बारे में चर्चा के लिए एक बैठक की. अपने इस तर्क के समर्थन में कि वह धार्मिक संहिता के रूप में ‘आदिवासी/जनजातीय’ चाहता है. मसौदा ज्ञापन में कहा गया है कि भारत करीब 781 प्रकार की जनजातियों का घर है.

एडीपी के महासचिव प्रेम साही मुंडा ने कहा,”आदिवासी समुदाय धार्मिक अनुष्ठानों का पालन करता है और अपनी मान्यताओं और प्राथमिकताओं के मुताबिक विश्वास करता है. ‘सरना’, ‘साड़ी’, ‘आदि’, ‘बिदिन’, ‘विरसैत’, ‘भीली’, ‘गोंडी’, ‘कोयापुनम’, ‘अका’, ‘सफहोर’, ‘दोनोपोलो’ और ‘सनमही’का अभ्यास और पालन किया जा रहा है. एक साथ लिया जाए तो यह कहा जा सकता है कि आदिवासी ‘जनजाति धर्म’ का पालन करते हैं.”

मुंडा ने कहा कि यहां तक कि ‘अन्य’ कॉलम का भी दुरुपयोग किया गया और विशिष्ट धर्मों के तहत वास्तविक आदिवासियों की गणना की गई. इसके परिणामस्वरूप राज्य के बजट में आदिवासी उप-योजनाओं के तहत प्रावधान और धन का दुरुपयोग हुआ.

संगठन का मानना है कि घटती संख्या के पीछे धर्मांतरण भी एक कारण रहा है. इसलिए ऐसा लगता है कि समुदाय के बाहर शादी करने वाले आदिवासी पुरुषों और महिलाओं को आरक्षण सहित लाभों से वंचित करने का प्रावधान होना चाहिए. उरांव भी इस बात से सहमत हैं कि उनके राज्य और अन्य जगहों पर धर्मांतरण एक मुद्दा था.

ज्ञापन का मसौदा इस कमजोर समुदाय के हितों की रक्षा के लिए एक आदिवासी धार्मिक न्याय बोर्ड के गठन की मांग करता है. संगठन ने केंद्र सरकार से नई दिल्ली में पांच एकड़ भूमि की मांग की है जहां वह एक आदिवासी सांस्कृतिक प्रचार केंद्र स्थापित करेगा.

अपनी भविष्य की आंदोलन रणनीति को मजबूत करने के लिए इसकी कार्यकारी समिति के सदस्य और शीर्ष नेता 19 दिसंबर को नागपुर में मिलेंगे. अधिकारियों से मिली प्रतिक्रिया के आधार पर यह अगले साल फरवरी से ‘धरना’ आयोजित करने पर विचार कर सकता है.

न्यूज़क्लिक से बात करते हुए एकेएस के मुख्य सलाहकार अजीत प्रसाद महतो ने खेद व्यक्त किया कि ब्रिटिश शासन के दौरान की गई जनगणना में आदिवासियों को धार्मिक संहिता आवंटित की गई थी. लेकिन हमारे अपने शासन में आदिवासी अभी भी धार्मिक संहिता प्राप्त करने के लिए लड़ रहे हैं.

ब्रिटिश शासन के दौरान प्रदान किए गए कोड थे: 1871 – आदिवासी, 1881 – आदिवासी, 1891 – आदिवासी, 1901 – एनिमिस्ट, 1911 – एनिमिस्ट, 1921 – एनिमिस्ट, 1931 – जनजातीय धर्म, 1941 – जनजाति और 1951 – अनुसूचित जनजाति. रिपोर्ट्स के मुताबिक, 2011 की जनगणना ने देश में आदिवासियों की संख्या 50 लाख बताई थी.

सरना धर्म क्या है?

झारखंड, बंगाल, ओडिशा और बिहार में आदिवासी समुदाय का बड़ा तबका अपने आपको सरना धर्म के अनुयायी के तौर पर मानता है. वो प्रकृति की प्रार्थना करते हैं और उनका विश्वास ‘जल, जंगल, ज़मीन’ है. ये वन क्षेत्रों की रक्षा करने में विश्वास करते हुए पेड़ों और पहाड़ियों की प्रार्थना करते हैं.

झारखंड में 32 जनजातीय समूह हैं, जिनमें से आठ विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूहों से हैं. इनमें से कुछ समुदाय हिंदू धर्म का पालन करते हैं, कुछ ईसाई धर्म में परिवर्तित हो गए हैं. माना जाता है कि आदिवासी समुदाय के ईसाई समुदाय में परिवर्तित होने के बाद वो एसटी आरक्षण से वंचित हो जाते हैं. ऐसे में वो सरना धर्म की मांग करके अपने आपको आरक्षण के लाभ से वंचित नहीं होने देना चाहते हैं.

सरना धर्म का इतिहास

ब्रिटिश शासन काल में साल 1871 से लेकर आजादी के बाद 1951 तक आदिवासियों के लिए अलग धर्म कोड की व्यवस्था रही है. तब अलग-अलग जनगणना के वक्त इन्हें अलग-अलग नामों से संबोधित किया गया.

आजादी के बाद इन्हें अनुसूचित जनजाति (ST) कहा गया. इस संबोधन को लेकर लोगों की अलग-अलग राय थी. इस कारण विवाद हुआ. तभी से आदिवासियों के लिए धर्म का विशेष कॉलम ख़त्म कर दिया गया. 1960 के दशक में इसे बदल दिया गया.

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