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ओडिशा: 28 लोधा आदिवासी परिवारों का जल्द होगा पुनर्वास, लेकिन कितना होगा फ़ायदा

सरकारी दिशानिर्देशों के अनुसार पुनर्वास के लिए इन आदिवासियों को आजीविका के लिए 10 लाख रुपये की सहायता, हर परिवार को सरकारी भूमि और सरकारी आवास योजनाओं का लाभ मिलेगा. इसके अलावा सड़क, पेयजल, शिक्षा, स्वास्थ्य और बिजली की आपूर्ति जैसी बुनियादी सुविधाओं भी इन लोधा आदिवासियों को दी जाएंगी.

कुलडीहा अभयारण्य में रहने वाले 28 लोधा परिवारों के पुनर्वास के लिए क़दम उठाए जा रहे हैं. यह विशेष रूप से कमज़ोर जनजाती (पीवीटीजी) लोधा समुदाय के इन लोगों को मुख्यधारा में लाने का बालासोर प्रशासन का प्रयास है.

मांकडपाड़ा ग्राम पंचायत के तहत चमचटा गांव में एक पहाड़ी पर रहने वाले इन लोधा परिवारों ने भी शिफ़्टिंग के लिए अपनी सहमति दे दी है.

नीलगिरी के उप कलेक्टर हरीश चंद्र जेना ने एक अख़बार से बात करते हुए कहा कि इन पीवीटीजी परिवारों का तलहटी के पास सरकारी ज़मीन पर पुनर्वास किया जाएगा. लोधा परिवारों की मौजूदगी में चार महीने पहले एक बैठक की गई थी, और उनकी सहमति के बाद पुनर्वास के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर किए गए.

सरकारी दिशानिर्देशों के अनुसार पुनर्वास के लिए इन आदिवासियों को आजीविका के लिए 10 लाख रुपये की सहायता, हर परिवार को सरकारी भूमि और सरकारी आवास योजनाओं का लाभ मिलेगा. इसके अलावा सड़क, पेयजल, शिक्षा, स्वास्थ्य और बिजली की आपूर्ति जैसी बुनियादी सुविधाओं भी इन लोधा आदिवासियों को दी जाएंगी.

मयूरभंज और बालासोर ज़िलों की सीमा पर रहने वाले लोधा सालों से बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं. फ़िलहाल उन्हें मयूरभंज ज़िले के कप्तीपाड़ा ब्लॉक से राशन दिया जा रहा है.

इनमें से कई आदिवासियों को सरकार की ओर से 35 किलो राशन के अलावा दूसरी सुविधाएं मिलने की ज़्यादा उम्मीद नहीं है. पीने के पानी के लिए यह लोग गांव से गुज़रने वाली एक छोटी सी नहर पर निर्भर हैं.

सभी परिवार दयनीय परिस्थितियों में जी रहे हैं क्योंकि वन विभाग ने 2016 से खेती और पशुपालन गतिविधियों पर प्रतिबंधित लगा दिया था. अब यह सभी मामूली वनोपज बेचकर अपनी जीवनयापन करते हैं.

बालासोर के डीएफओ (District Forest Officer) बिस्वराज पांडा ने एक अख़बार को बताया कि आदिवासियों को जंगली जानवरों से सुरक्षित रखने के लिए खेती और पशुपालन पर रोक लगाई गई थी.

एक बड़ी चिंता यह भी है कि यह आदिवासी कोविड-19 के बारे में ज़्यादा नहीं जानते, और बुखार और खांसी के लिए पारंपरिक उपचार पर निर्भर हैं. ऐसे में इनके बीच इस बीमारी के प्रसार पर रोक लगाना बहुत बड़ी चुनौती है.

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