2 अक्टूबर यानि गांधी की जयंती के उपलक्ष्य में गोंडवाना भवन में एक अधिवेशन आयोजित करने के लिए छत्तीसगढ़ के आदिवासी समुदाय राज्य की राजधानी रायपुर पहुंचे थे. अधिवेशन के बाद आदिवासियों की भीड़ ने अपनी मांगों को ले कर रायपुर के रास्ते पैदल मार्च किया.
उन आदिवासियों की माँगो में छत्तीसगढ़ में पेसा अधिनियम के नियमों का विरोध किया गया. एक आदिवासी नेता सूरज टेकम के अनुसार, राज्य के विभिन्न वर्गों के 5 हज़ार से अधिक लोग विरोध सभा में शामिल हुए.
राज्य में आदिवासी समुदाय विरोध क्यों कर रहे हैं?
अपने विरोध के माध्यम से आदिवासी समुदाय सभी अधिकारियों को नए पेसा नियमों को निरस्त करने के लिए मनाने की कोशिश कर रहे हैं. आदिवासियों का कहना है कि बेशक छत्तीसगढ़ सरकार ने अपने वादे के अनुसार पेसा अधिनियम राज्य में लागू किया है.
लेकिन राज्य में पेसा के जो नियम बनाए गए हैं उनके तहत ग्राम सभा को अधिकार नहीं दिया गया है. बल्कि नए लिखित पेसा नियमों के तहत ग्राम सभाओं के बजाय क्षेत्रीय अधिकारियों/कलेक्टरों को अधिकार हस्तांतरित कर दिया गया है.
इसके अलावा इन आदिवासियों ने नौकरियों और शिक्षा में 32 प्रतिशत कोटा को फिर से लागू करने की भी मांग भी की है.
उनकी चिंता यह है कि पेसा को उचित रूप से लागू नहीं किया जा रहा है. यह अधिनियम आदिवासी समुदायों के लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह भारतीय संविधान के तहत अनुसूचित क्षेत्रों के रूप में वर्गीकृत उनके क्षेत्रों में ग्राम सभाओं (ग्राम परिषदों) द्वारा स्वशासन के माध्यम से उनके अधिकारों की रक्षा करता है.
एक साल पहले 12 नवंबर को आदिवासी संगठनों ने झारखंड की राजधानी रांची में गवर्नर हाउस में शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन किया था. इस प्रकार के विरोध कई राज्यों में होते हैं क्योंकि आदिवासी चाहते हैं कि ग्राम सभाएं गैर-राजनीतिक निकाय हों और आदिवासी समुदायों में इसका गठन चुनाव के बिना कबीले के विरासत अधिकारों पर आधारित होना चाहिए.
पेसा नियमों का समर्थन करने वाले अधिकारियों का दावा है कि प्रभावी कार्यान्वयन के लिए इसे औपचारिक आचार संहिता की आवश्यकता है. स्व-शासन प्रणाली को सरकार द्वारा आधिकारिक रूप से मान्यता नहीं दी जाती है. क्योंकि उनके अनुसार, अक्सर मुखिया प्राधिकरण का दुरुपयोग करता है साथ ही गांव और संबंधित संसाधनों के मालिक होने का दावा करता है. इसके अलावा, खंड विकास अधिकारी (बीडीओ) ग्राम परिषद की सहमति के बिना भी योजनाएं लाते हैं.
पेसा अधिनियम और इसमें ग्राम सभाओं की भूमिका?
पेसा कानून देश के संविधान की पाँचवीं अनुसूची क्षेत्रों में लागू होता है जो संविधान के 73वें संशोधन के बाद प्रभाव में आया. 24 दिसंबर 1996 को पेसा क़ानून देश की संसद से पारित हुआ जिसे अब 25 साल हो चुके हैं. इन 25 सालों में ऐसे दस राज्यों में जहां पाँचवीं अनुसूची क्षेत्र हैं, लेकिन महज़ छह राज्यों ने ही अब तक इस कानून के क्रियान्वयन के लिए नियम बनाने की पहल की है.
यह प्रणाली कानूनी रूप से आदिवासी पड़ोस के अधिकारों और विशेषाधिकारों को पहचानती है और उनकी आचार संहिता के माध्यम से उन्हें नियंत्रित करती है.
पेसा यह भी सुनिश्चित करता है कि ग्राम सभाओं को सभी क्षेत्रों के समग्र विकास में योगदान देना चाहिए. स्व-शासन की प्रणाली प्राकृतिक संसाधनों जैसे वन संसाधनों, नाममात्र जल निकायों, खनिजों, स्थानीय बाजारों के प्रबंधन आदि के लिए प्रथागत आदिवासियों के अधिकारों को अधिकार देती है.
इसके अलावा, इसके नियम अनुसूचित क्षेत्रों के नागरिकों को विकेंद्रीकरण और सरकार से ग्राम सभा को सत्ता हस्तांतरण के माध्यम से अपने गांव-स्तर के अधिकारियों को मजबूत करने में सक्षम बनाते हैं, जो गांव में सभी पंजीकृत मतदाताओं से बना एक निकाय है. समुदायों को लगता है कि उनके समूह का सिर्फ वही हिस्सा उनकी जरूरतों को पर्याप्त रूप से समझ सकता है और घरेलू संघर्षों को रोक सकता है.
ग्राम सभा की भूमिका सांस्कृतिक पहचान और परंपरा को संरक्षित करना है; आदिवासियों को प्रभावित करने वाली योजनाओं की निगरानी करना और गाँव की सीमाओं के भीतर प्राकृतिक संसाधनों की निगरानी करना.
आदिवासियों के अनुसार, नया कानून समुदाय की लंबे समय से चली आ रही परंपराओं के खिलाफ है.
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