HomeLaw & Rightsछत्तीसगढ़ में आदिवासी आरक्षण में कटौती की जवाबदेही किसकी है

छत्तीसगढ़ में आदिवासी आरक्षण में कटौती की जवाबदेही किसकी है

राज्य सरकारें जब आरक्षण की सीमा को लांघते हैं तो यह तय होता है कि मामला कोर्ट जाएगा. लेकिन इसके बावजूद सरकार उस सीमा को लांघती हैं. उसका कारण सामाजिक न्याय की बजाए एक मज़बूत वोट बैंक की चाह होती है.

छत्तीसगढ़ से पिछले सप्ताह आदिवासियों से जुड़ी एक ख़बर आई है. इस ख़बर को ज़रूरी ख़बर कहूँ या राजनीतिक पैंतरेबाज़ी…समझ नहीं आ रहा है. लेकिन आदिवासियों से जुड़ी ख़बर है तो हम इसे ज़रूरी ख़बर ही मानते हैं.

ख़बर ये है कि कांग्रेस के आदिवासी सांसद, राज्य के विधायक और मंत्री आदिवासियों के आरक्षण से संबंधित मामले का सुप्रीम कोर्ट में कानूनी खर्च वहन करने में सहयोग देने के लिए अपना एक महीने का वेतन दान करेंगे.

सच्ची, छत्तीसगढ़ सरकार के पास क्या इतना पैसा नहीं है कि वो सुप्रीम कोर्ट में आदिवासियों का केस लड़ सके. ऐसा नहीं है, लेकिन लोकतंत्र में सरकारों और पार्टियों के लिए सिर्फ़ काम करना ही ज़रूरी नहीं है. बल्कि सरकार के लिए काम करते हुए नज़र आना भी ज़रूरी है.

आदिवासियों के आरक्षण में कटौती का मुद्दा राज्य की राजनीति में बेशक एक बड़ा और संवेदनशील मुद्दा है. विपक्षी दल बीजेपी ने इस मसले पर शोर पैदा करना शुरू भी कर दिया है. इस मसले की राजनीति को भी समझने की कोशिश करेंगे. लेकिन पहले आदिवासियों के आरक्षण में हुई कटौती से जुड़े हुए तथ्यों को देख लेते हैं.

यह बात साल 2012 की है, छत्तीसगढ़ में रमन सिंह के नेतृत्व में बीजेपी की सरकार थी. मुख्यमंत्री रमन सिंह ने राज्य की अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों के आरक्षण से जुड़ा हुआ एक अहम फ़ैसला लिया. फ़ैसला ये था कि राज्य में आदिवासियों के आरक्षण को उनकी जनसंख्या के अनुपात में बढ़ाया जाए और अनुसूचित जाति का आरक्षण उनकी जनसंख्या के अनुपात में कुछ कम कर दिया जाए.

साल 2012 तक छत्तीसगढ़ में आरक्षण की व्यवस्था को की स्थिति देखेंगे अनुसूचित जनजाति या एसटी आरक्षण 20 प्रतिशत था. अनुसूचित जाति के लिए आरक्षण था 16 प्रतिशत और अन्य पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण 14 प्रतिशत था.

यानि कुल आरक्षण का आँकड़ा 50 प्रतिशत था. 2012 में छत्तीसगढ़ की सरकार ने तय किया कि अनुसूचित जनजाति का आरक्षण 20 प्रतिशत से बढ़ा कर 32 प्रतिशत कर दिया जाए और अनुसूचित जाति का आरक्षण घटा कर 12 प्रतिशत कर दिया गया.

लेकिन अनुसूचित जाति के आरक्षण को कम करने के बावजूद कुल आरक्षण 50 प्रतिशत की सीमा को लांघ गया और छत्तीसगढ़ में कुल आरक्षण 58 प्रतिशत पर पहुँच गया. 

भारत का संविधान सभी नागरिकों के लिए समानता, सामाजिक और आर्थिक न्याय की बात करता है. इसी समझ के तहत सामाजिक न्याय को सुनिश्चित करने के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई.  लेकिन आरक्षण का मसला बार बार अदालतों में पहुँचता रहा है. 2019 में मोदी सरकार ने सवर्णों को आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया, लेकिन इस आरक्षण का मामला भी कोर्ट पहुँच गया और सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला सुरक्षित रखा है.

दरअसल 1992 के इंद्रा सहानी केस में सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण पर 50 प्रतिशत की सीमा तय कर दी थी. सुप्रीम कोर्ट मराठा आरक्षण मामले में अपने पहले फ़ैसले को बदलने से मना कर चुका है.

सुप्रीम कोर्ट ने जब 1992 में इंद्रा सहानी केस में यह तय कर दिया कि आरक्षण 50 प्रतिशत से ज़्यादा नहीं होना चाहिए. 2021 में मराठा आरक्षण मामले में एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया कि आरक्षण पर लगी 50 प्रतिशत की सीम को बढ़ाने या बदलने का उसका कोई विचार नहीं है.

लेकिन इसके बावजूद राज्य सरकारें इस सीमा को लांघने की कोशिश करती रही हैं. वैसे सुप्रीम कोर्ट ने 1992 में आरक्षण पर 50 प्रतिशत की बंदिश लगाते हुए  यह कहा था कि किसी बेहद ख़ास कारण से इस सीमा से आगे जाया जा सकता है.

राज्य सरकारें जब आरक्षण की सीमा को लांघते हैं तो यह तय होता है कि मामला कोर्ट जाएगा. लेकिन इसके बावजूद सरकार उस सीमा को लांघती हैं. उसका कारण सामाजिक न्याय की बजाए एक मज़बूत वोट बैंक की चाह होती है.

छत्तीसगढ़ में आदिवासी आबादी 30 प्रतिशत है, यानि आदिवासी छत्तीसगढ़ में एक अहम वोट बैंक है, और शायद यह बात 2012 में रमन सिंह सरकार के दिमाग़ में भी रही होगी. 

जिसकी आशंका थी वही हुआ, छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के आरक्षण को बढ़ाए जाने के फ़ैसले को हाईकोर्ट में चुनौती मिली और आदिवासियों का आरक्षण 12 प्रतिशत कम हो गया. छत्तीसगढ़ में अगले साल चुनाव है. इसके बाद कुछ कहने की ज़रूरत ही नहीं होनी चाहिए.

क्योंकि चुनाव है तो राजनीतिक दलों की तरफ़ से आरोप-प्रत्यारोप सामान्य बातें हैं. सरकार अपनी उपलब्धियों गिनवाती है तो विपक्ष मुद्दों की ताक में रहता है. छत्तीसगढ़ में जैसे ही आदिवासियों के आरक्षण का मुद्दा सामने आया, वैसे ही विपक्षी दल बीजेपी ने छत्तीसगढ़ के अपने आदिवासी नेताओं को आगे कर दिया.

पार्टी ने भारी आंदोलन खड़ा करने की चेतावनी दी. सत्ताधारी दल ने थोड़ी देर से सही इस मसले पर अपने घोड़े खोल दिए हैं. सरकार ने यह बताने की कोशिश की है कि रमन सिंह सरकार ने आदिवासियों के आरक्षण को बढ़ाने का फ़ैसला तो किया था, लेकिन वो इस पर संजीदा नहीं थी. इसलिए इस फ़ैसले से पहले जितना पुख़्ता होमवर्क होना चाहिए था…उतना होमवर्क किया ही नहीं गया था.

सरकारों को विपक्ष जनता के मुद्दों पर जवाबदेह बनाए लोकतंत्र में यह उसकी पहली ज़िम्मेदारी है. इसके लिए अगर संसद या विधान सभा में आवाज़ उठाने से बात ना बने तो सड़क पर उतरने में कोई बुराई नहीं है.

लेकिन इस क्रम में मुद्दे की संवेदनशीलता और जिस तबके से वह मुद्दा जुड़ा है उसकी स्थिति कभी ध्यान से ओझल नहीं होनी चाहिए. छत्तीसगढ़ में आदिवासी मसले पर राजनीति को कोई रोक नहीं सकता है, लेकिन फिर भी इतनी उम्मीद की जानी चाहिए कि यह आदिवासी यानि उस समुदाय का मसला है ….जिसके साथ हुए अन्याय को समाप्त करना संविधान में देश की प्राथमिकताओं में काफ़ी उपर रखा गया है. 

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