नागालैंड में फ़रवरी 2023 में हुआ विधान सभा चुनाव इस मायने में बेहद ख़ास हो गया कि यहाँ पर पहली बार दो महिलाएँ विधायक चुन ली गईं. हेकानी जाखालू , सलहूतुनू क्रुसे नाम की दो महिलाओं का नाम 2 मार्च को हुई मतगणना के दिन इतिहास में दर्ज हो गया.
आदिवासी समुदायों (indigenous groups) और ख़ासतौर से उत्तर-पूर्व के जनजातीय समुदायों के बारे में यह धारणा है कि ये बराबरी पर आधारित (egalitarianism) समाज है.
यह धारणा कई मायनों में ग़लत नहीं है. मसलन आदिवासी समुदाय में मुख्यधारा कहे जाने वाले समुदायों जैसी या उनके जितनी ग़ैर बराबरी तो नहीं मिलती है. लेकिन महिलाओं को बराबरी का अधिकार देने के मामले में आदिवासी समुदाय यह दावा नहीं कर सकता है.
नागालैंड राज्य के गठन को 60 साल बीत चुके हैं और इस दौरान इस राज्य में कोई भी महिला विधान सभा का चुनाव नहीं जीत सकी. लोकसभा या विधान सभाओं के हर चुनाव में कोई ना कोई रिकॉर्ड बनता या बिगड़ता रहता है.
लेकिन नागालैंड में दर्ज हुआ यह रिकॉर्ड यानि दो महिलाओं का विधायक बन जाना कोई मामूली बात नहीं है. यह रिकॉर्ड इतना ग़ैर मामूली क्यों हैं इसका अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं कि शहरी निकायों के चुनाव में राज्य सरकार महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण लागू नहीं कर सकी थी.
2006 में राज्य की विधान सभा ने शहरी निकायों में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने के लिए नागालैंड म्युनिसिपल एक्ट 2001 के आर्टिकल 23 A में संशोधन का प्रयास किया था. सरकार के इस प्रयास का परिणाम ये हुआ कि राज्य में दो दशक तक यानि अभी तक शहरी निकायों के चुनाव नहीं कराये जा सके हैं.
अब क़रीब दो दशक बाद नागालैंड सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को यह आश्वासन दिया है कि 16 मई 2023 को राज्य में शहरी निकायों के चुनाव कराए जाएँगे. इस आश्वासन में महत्वपूर्ण बात ये है कि ये चुनाव 33 प्रतिशत महिला आरक्षण के साथ ही कराए जाएँगे .
अभी तक राज्य में अगर शहरी निकाय चुनाव नहीं हो रहे थे तो उसका कारण महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण की कोशिश माना जा रहा था.
लेकिन अब यह बताया जा रहा है कि नागालैंड में अलग अलग आदिवासी समुदायों के नेताओं के बीच यह सहमति बन चुकी है कि शहरी निकायों में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित कर दी जाएँ.
मेघालय में भी हाल ही में हाईकोर्ट में एक याचिका को निपटाते हुए मुख्य न्यायाधीश संजीव बनर्जी की बेंच ने कहा कि महिलाओं को स्थानीय निकायों में प्रतिनिधित्व देने का फ़ैसला समाज को ही करना चाहिए.
उन्होंने कहा कि इस मसले में एक तरफ़ कस्टमरी लॉ और संविधान की अनुसूची 6 का सवाल है तो दूसरी तरफ़ संविधान में दिया गया बराबरी का मौलिक अधिकार भी है. फिर मुख्य न्यायधीश ने यह कहा कि अगर यह बदलाव समाज के भीतर से ही आए तो बेहतर होगा.
इस मौक़े पर खासी हिल ऑटोनोमस डिस्ट्रिक्ट काउंसिल ने कोर्ट को आश्वास दिया कि अब राज्य के जनजातीय समुदायों में बदलाव की बयार चल रही है.
क्या सचमुच में नागालैंड, मेघालय और अन्य उत्तर-पूर्व के राज्यों में बदलाव की बयार चल रही है ? जिस समाज का आधार ही बराबरी है…वह स्थानीय निकायों या ट्राइबल काउंसिल (tribal councils) में महिलाओं को प्रतिनीधित्व देने के इतने ख़िलाफ़ क्यों हैं ?
यह समझने के लिए इन समुदायों के कस्टमरी लॉ यानि परंपरागत सामाजिक नियमों, समाज की बनावट और रिश्तों के साथ साथ संघर्ष को भी समझना होगा. इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए ही नागालैंड के लिए आर्टिकल 371 (A) के प्रावधानों को संविधान में शामिल किया गया था.
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आर्टिकल 371 (A) और नागा कस्टमरी लॉ
संविधान का यह आर्टिकल कहता है कि नागालैंड के जनजातीय समुदायों के धार्मिक या सामाजिक मामलों में, उनके रूढ़ीगत क़ानूनों और व्यवस्था के अलावा दीवानी या फ़ौजदारी मामलों में संसद का कोई क़ानून लागू नहीं होगा.
इसके अलावा नागा समुदायों की ज़मीन का मालिकाना हक़ या उसे ट्रांसफ़र करने पर भी सामान्य क़ानून लागू नहीं होगा. जब तक कि नागालैंड की विधान सभा एक प्रस्ताव पास करके ऐसा करना चाहेगी.
क़रीब 50 साल पहले किये गए इन प्रावधानों पर अब बहस हो रही है. इन प्रावधानों की आलोचना में यह भी कहा जाता है कि ऐसा लगता है कि नागालैंड कहीं विदेश में स्थिति है जहां पर भारत की संसद के क़ानून लागू ही नहीं होते हैं.
लेकिन इस बहस में महत्वपूर्ण हस्तक्षेप नागा महिलाओं का ही रहा है. यह हस्तक्षेप नागालैंड में संविधान के 74 वें संशोधन को देर से ही सही लागू करने के प्रयासों के संबंध में दिखाई दिया है. 1993 में इस संशोधन के तहत नगर निकायों में 33 प्रतिशत सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी.
नागालैंड में यह बहस है कि क्या संविधान का यह प्रावधान आर्टिकल 371 (A) के प्रावधानों का उल्लंघन होगा. इस संघर्ष में एक तरफ़ महिलाओं का संगठन नागा मदर्स एसोसिएशन और राज्य सरकार रही है और दूसरी तरफ़ जनजातीय संगठन रहे हैं.
ज़मीन, टैक्स, कस्टमरी लॉ और शहरी निकाय चुनाव
नागा समुदायों का इतिहास बताता है कि ये अपनी ज़मीन पर टैक्स लगाए जाने को बर्दाश्त नहीं करते हैं. इस सिलसिले में बताया जाता है 1879 में पहले ब्रिटिश अफ़सर की हत्या नागा लोगों ने टैक्स के मुद्दे पर ही कर दी थी. यह माना जाता है कि नागा पहचान और राष्ट्रीयता को ज़िंदा रखने में अन्य कारणों के अलावा टैक्स एक बड़ा कारण रहा है.
नागा समुदाय को लगता है कि उनकी ज़मीन पर टैक्स का मतलब है कि धीरे धीरे उनकी ज़मीन पर उनका अधिकार ख़त्म हो जाएगा. यह ख़्याल ही नागा लोगों को इस कदर डरा देता है कि फिर वो किसी भी हद तक इसका विरोध करते हैं.
नागा इलाक़ों में ज़मीन पर समुदाय का पूरा नियंत्रण है. लेकिन ज़मीन के मालिकाना हक़ सिर्फ़ पुरूषों के नाम ही होता है.
नागा समुदायों में महिला की स्थिति
नागा समुदायों में महिलाओं की स्थिति में एक बड़ा विरोधाभास नज़र आता है. अगर देश भर में महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध के मामले देखेंगे तो यह पाया जाता है कि नागालैंड में देश के बाक़ी राज्यों की तुलना में अपराधों की संख्या काफ़ी कम है.
आँकड़ों के आधार पर नागालैंड महिलाओं के लिए सबसे सुरक्षित नज़र आता है. यहाँ पर क़रीब 11 लाख महिलाएँ हैं और प्रति एक लाख महिलाओं में से साल में औसतन 6 के ख़िलाफ़ किसी तरह का कोई अपराध दर्ज हुआ था.
महिला साक्षरता के मामले में भी नागालैंड का प्रदर्शन राष्ट्रीय औसत से बेहतर है. कामकाजी महिलाओं की तादाद की बात करें तो इस लिहाज़ से भी नागा महिलाओं की स्थिति बेहतर नज़र आती है.
लेकिन इसके बावजूद इस समुदाय में महिलाओं को फ़ैसले लेने वाली संस्थाओं में प्रतिनिधित्व क्यों नहीं दिया जाता है. इस बारे में एक तर्क जो शायद पूरी तरह से तो नहीं पर इस स्थिति के लिए कुछ हद तक ज़िम्मेदार माना जा सकता है.
कुछ विद्वानों का कहना है कि नागा समुदाय लगातार सरकारों के साथ हथियारबंद संघर्ष में रहे हैं. आज़ादी के बाद भी यह संघर्ष थमा नहीं है. इस सिलसिले में अक्सर सत्ता किसी समुदाय का हौसला तोड़ने के लिए महिलाओं को निशाना बनाता है.
इस तर्क को रखने वालों का कहना है कि जैसे जैसे नागा नियंत्रण वाली पहाड़ियों पर सैनिकों की तादाद बढ़ती गई, नागा महिलाओं का स्थान सिकुड़ता चला गया.
अब नागालैंड में महिलाएँ आवाज़ उठा रही हैं और राजनीतिक संस्थाओं में अपने लिए आरक्षण की माँग कर रही हैं.
नागा कस्टमरी लॉ और महिलाओं की बराबरी
इस बात में कोई दो राय नहीं है कि संविधान जनजातियों को अपने कस्टमरी लॉ के हिसाब से चलने और फलने-फूलने की अनुमति देता है.
शायद यह कहना सही होगा कि संविधान में यह प्रावधान है कि जनजातियों की जीवनशैली, सामाजिक-धार्मिक व्यवस्था और प्रशासिनक-न्याय व्यवस्था को संरक्षित किया जा सके.
लेकिन संविधान में बराबरी का मौलिक अधिकार भी उतना ही महत्वपूर्ण प्रावधान है जिससे किसी भी क़ीमत पर समझौता नहीं किया जा सकता है.
अब ऐसा लग रहा है कि नागा आदिवासी संगठनों ने इस सच को स्वीकार कर लिया है कि कस्टमरी लॉ समय के साथ बदलने ज़रूरी हैं. यह आसान काम तो बिलकुल नहीं था.
इसके लिए केंद्र, सुप्रीम कोर्ट से ज़्यादा श्रेय उन नागा महिलाओं को देना होगा, जिन्होंने कस्टमरी लॉ यानि रूढ़ीगत क़ानूनों में जकड़े एक समाज के भीतर अपने हक़ों की लड़ाई लड़ी.
उम्मीद यही कर सकते हैं कि अब 16 मई को नागालैंड में शहरी निकायों के चुनाव होंगे जिसमें 33 प्रतिशत महिलाएँ चुन कर आएँगी.