झाबुआ से अलीराजपुर के रास्ते में महुआ का जंगल है. इस जंगल में महुआ के कई पेड़ों पर कोयल कूक रही थी. यहां पूरी फ़िज़ा में महुआ की हल्की से मीठी खूश्बू फैली हुई थी.
मार्च का महीना ख़त्म होने वाला था और होली का त्योहार क़रीब था, जंगल में महुआ के पेड़ों से फूल झड़ना शुरू हो चुका था. झाबुआ -अलीराजपुर और आस-पास के ज़िलों में भील-भिलाला और बारेला आदिवासी रहते हैं.
यहां के आदिवासी गांवों में महुआ की उत्पत्ति और उपयोग से जुड़ी कई लोककथाएं भी मिलती हैं. मसलन एक लोककथा मिलती है जिसमें बताया जाता है कि एक बार लकड़ी की कलाकृति बनाने में माहिर व्यक्ति ने भगवान के दो दूत क़ैद कर लिए, ये दूत उसके प्राण लेने आए थे.
अपने उन दो लोगों को ढूंढने के लिए भगवान ने महुआ का वृक्ष लगाया और उसके फूल से शराब बनाई. जब होली के मौके भगवान ने आदिवासियो में शराब बँटवाई और तब नशे के झोंक में भगवान को अपने दूतों के कैद करने वाले से उनके बारे में पता चला.
जंगल में जब महुआ झड़ना शुरू होता है तो परिवार के लोग सुबह सुबह जंगल पहुंच जाते हैं. दोपहर तक पूरा परिवार मिल कर महुआ बीनता है.
मध्य प्रदेश ही नहीं देश के बाकी आदिवासी इलाकों में भी परंपागत तरीके से घर पर महुआ से शराब बनाई जाती है. एक ज़माने में जब आदिवासी इलाकों में आदिम विधि से खेती होती थी तो अक्सर अकाल की स्थिति बन जाती थी. ऐसी स्थिति में महुआ फूल आदिवासी परिवारों के प्राण बचाता था.
महुआ का वृक्ष को अगर नुकसान ना पहुंचाया जाए तो यह कम से कम 200 साल जीता है. महुआ का पेड़ जंगल की जैव विविधता को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है.
यह माना जाता है कि हर वर्ष एक महुआ का पेड़ 60-70 किलो सूखा फूल देता है. महुआ का सूखा फूल घर में इस्तेमाल करने के अलावा साप्ताहिक हाटों में भी बेचा जाता है. वन उत्पाद से आदिवासियों को जो आय होती है उसमें लगभग 60 प्रतिशत महुआ से ही आता है.
भारत के कम से कम 13 राज्यों में महुआ से बनी शराब पी जाती है. इस लिहाज से महुआ को नेशनल ड्रिंक कहा जा सकता है. लेकिन ब्रिटिश शासन में महुआ से बनने वाली शराब को प्रतिबंधित कर दिया गया.
आज़ादी के बाद महुआ पर प्रतिबंध जारी रहा. लेकिन क़ानून पांबदी के बावजूद आदिवासी भारत में महुआ बनाई जाती रही है. क्योंकि यह आदिवासी पंरपरा का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है.
साल 2021 में मध्य प्रदेश सरकार ने यह फ़ैसला किया कि महुआ को हैरिटेज शराब की श्रेणी में उत्पादन की अनुमति दी जाएगी. मध्य प्रदेश सरकार ने आदिवासी स्वंय साहयता समूहों को महुआ शराब का व्यवसायिक उत्पादन की अनुमति दी. इसके बाद डिंडोरी और कट्ठीवाड़ा में महुआ उत्पादन के लिए दो फ़ैक्ट्री लगाई गई.
कट्ठीवाड़ा में महुआ की फैक्ट्री को अंकिता भाभर चलाती हैं. अंकिता भाभर ने महुआ से शराब बनाने और उसको चख कर उसके स्वाद की पहचान करने की बाकायदा ट्रेनिंग ली है.
कट्ठीवाड़ा की महुआ फ़ैक्ट्री में बनने वाली शराब को मोंद नाम दिया गया है. जिसका मतलब मद या मदिरा होता है. यह स्थानीय आदिवासी भाषा का शब्द है. मोंद यानि महुआ शराब की बोतल पर जो लोगो है वह भी आदिवासी संस्कृति में मिलने वाले प्रतीकों या चिन्हों में से ही एक है.
इसका लोगो भील-भिलाला या राठवा आदिवासी समूहों के देव पिथोरा के घोड़े से प्रेरित है. इस शराब की बोतल पर महुआ शराब और आदिवासी संस्कृति में उसके महत्व की कहानी भी छापी गई है.
फ़िलहाल इस फ़ैक्ट्री में 1000 से 1200 लीटर हर महीने बन सकती है.
महुआ फ़ैक्ट्री लगाने का मक़सद सिर्फ आदिवासी संस्कृति और महुआ के संबंध या महत्व को दुनिया को बताना भर नहीं है. बल्कि इसका मक़सद यहां की स्थानीय अर्थव्यवस्था को गति देना भी है.
यह मकसद दो तरह के पूरा होता है, एक इस फ़ैक्ट्री में लोगों को काम मिलना और दूसरा यहां के आदिवासियों के महुआ की ख़रीद. अंकिता भाभर बताती हैं कि उनके साथ कम से कम 10-12 लोग काम करते हैं इसके अलावा महुआ के सीज़न में वे स्थानीय लोगों से महुआ भी ख़रदीती हैं. उनके अनुसार हर साल उन्हें कम से कम 9-10 टन महुआ की ज़रूरत होती है.
महुआ फ़ैक्ट्री के बारे में अभी तक अभी तक हमने जो बातें की हैं वे संभावनाओं की बातें हैं….लेकिन तस्वीर सच्चाई उतनी हसीन नहीं है. यह फ़ैक्ट्री कई महीने से बंद पड़ी है. इस फ़ैक्ट्री में जो शराब बनी है वह भी अभी तक बिकी नहीं है.
इस फ़ैक्ट्री लगाने में मध्य प्रदेश सरकार ने करीब 54 लाख रुपये की मदद उपलब्ध कराई थी. इसके अलावा अंकिता भाभर ने 10 लाख रूपये का लोन भी लिया था.
महुआ की ख़रीद और फ़ैक्ट्री के रख-रखाव पर हर महीने कम से कम 25-30 हज़ार रुपये का ख़र्च आता है. इसके अलावा बड़ी चुनौती यह भी है कि इस फ़ैक्ट्री में जो मशीनें लगी हैं उनकी मरम्मत के लिए लोग नहीं मिलते हैं.
महुआ की इस शराब फ़ैक्ट्री को दो चीजो़ं की सख्त ज़रूरत है. पहली ज़रूरत है कि जब तक इस फ़ैक्ट्री को चलाने वाले को पर्याप्त अनुभव नहीं हो जाता है तब तक उन्हें लगातार वित्तीय और तकनीकि साहयता दी जानी ज़रूरी है.
दूसरी ज़रूरत है इस महुआ शराब के बारे में दुनिया को जानकारी होनी चाहिए क्योंकि जब तक ब्रांडिंग नहीं होगी तब तक मुहृआ की शराब का बाज़ार कैसे बनेगा. महुआ की इस शराब की एक बोतल की कीमत्त 800 रुपये हैं…जो यहां के आदिवासी तो ख़र्च नहीं कर सकते. वैसे भी आदिवासी इलाकों में तो घर घर में महुआ की शराब बनती ही है.