HomeAdivasi Dailyपर्यावरण और परंपरागत बीज के साथ आदिवासी को भी बचाएं

पर्यावरण और परंपरागत बीज के साथ आदिवासी को भी बचाएं

ओडिशा सरकार ने कई वजहों से बाजरा की खेती को बढ़ावा देना तय किया. इसका एक कारण यह है कि बाजरा प्राकृतिक रूप से पारिस्थितिकी तंत्र में एकीकृत हो जाता है. बाजरा ग्रास फैमिली के छोटे अनाज हैं, जो कठोर, स्वयं-परागण वाली फसल है.

ओडिशा के आदिवासी खेत में एक हरित क्रांति आकार ले रही है. इसका श्रेय ‘ओडिशा बाजरा मिशन’ को जाता है. यह मिशन मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की निगरानी में 2017 में लॉन्च किया गया था. इस रेवोलुशन में योद्धा वो किसान हैं, जो अपने हंसिये और फावड़े से अपने खेतों को जोत रहे हैं . ये किसान अपनी पारंपरिक खाद्य फसल को पुनर्जीवित करने के साथ ही पर्यावरण की भी रक्षा कर सकें.

मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की देखरेख में ओडिशा ने पारंपरिक और सतत खेती (sustainable agriculture) के माध्यम से पर्यावरण को सहेज कर रखने, किसानों की आजीविका में सुधार और आर्थिक विकास एवं लोगों के स्वास्थ्य को बेहतर करने के लिए नीति बनाई थी.

अब यह नीति इस मुक़ाम पर पहुँचती दिखाई दे रही है जिसे भारत के दूसरे हिस्सों में भी एक मॉडल की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है. कृषि और खाद्य प्रणाली को क्लाइमेट रिजिल्यन्ट बनाने के मामले में ओडिशा पहला राज्य बना है.

ओडिशा बाजरा मिशन

दरअसल ओडिशा में बाजरा की खेती को बढ़ावा देने के लिए लगातार प्रयास किया जा रह है. बाजरा की खेती के लिए विशेष कार्यक्रम भी चलाए जा रहे हैं. इसके तहत वित्तीय सहायता दिए जाने के के प्रस्ताव को भी मंजूरी दी गई है.

राज्य में आदिवासी क्षेत्रों में बाजरा की खेती को बढ़ावा दिए जाने को लेकर मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की अध्यक्षता में कैबिनेट की बैठक आयोजित की गई. इस बैठक में बाजरा की खेती के लिए विशेष कार्यक्रम चलाने की बात कही गई.

प्रदेश में बाजरा की खेती में तेज़ी लाने के लिए जनजातीय क्षेत्रों में विशेष कार्यक्रम ओडिशा मिलेट मिशन के तहत राज्य सरकार द्वारा 2017 में खेत में बाजरा उगाना शुरू किया गया था, ताकि बाजरा की खेती को पुनर्जीवित किया जा सके.

जलवायु अनुकूल खेतो को मिल रहा बढ़ावा

इस कार्यक्रम का उद्देश्य जलवायु अनुकूल खेती को बढ़ावा देने के साथ साथ सूक्ष्म तत्वो की कमी को दूर करने में में योगदान करना है. इसके लिए बाजरा की खेती को एक बार फिर से बड़े पैमाने पर पुनर्जीवित किया जा रहा है.

यह कार्यक्रम कृषि आईटी किसान अधिकारिता विभाग की निगरानी के साथ गैर सरकारी संगठनों और अनुसंधान संस्थानों के सहयोग से डब्ल्यूएसएचजी/एफपीओ के माध्यम से कार्यान्वित किया जाता है. कार्यक्रम को राज्य योजना, डीएमएफ और ओएमएडीसी के माध्यम से समर्थित किया जाता है.

राज्य में हुआ कार्यक्रम का विस्तार

प्रगतिवादी डॉट कॉम के मुताबिक पहले चरण में 2017-18 में कार्यक्रम का कार्यान्वयन किया गया था. यह कार्यक्रम प्रदेश के सात जिलों गजपति, कालाहांडी, कंधमाल, कोरापुट, मलकानगिरी, नुआपाड़ा, और रायगडा के 30 ब्लॉकों में चालू था.

इसके बाद दूसरे चरण में चार जिलों के अन्य 35 प्रखंडों में यह कार्यक्रम शुरू किया गया. इसका विस्तार 55 प्रखंडों तक हुआ. इस तरह से दूसरे और तीसरे चरण में यह कार्यक्रम 15 जिलों के 84 प्रखंडों तक पहुंच गया.

वर्तमान में, ओडिशा सरकार के पास 2022-23 के बाद से 15 जिलों के 84 ब्लॉकों से 19 जिलों के 142 ब्लॉकों तक कार्यान्वयन का अपना क्षेत्र है. कार्यक्रम को सुचारू रुप से चलाने के लिए राज्य मंत्रिमंडल ने एक बड़े बजट को मंजूरी दी है.

कैबिनेट द्वारा जारी प्रेस नोट के अनुसार, छह साल (2021-22 से 2026-27 वित्तीय वर्ष) के लिए 2808.39 करोड़ रुपये की मंजूरी दी गई है. दरअसल बाजरा की खेती और खपत को बढ़ाने के लिए वर्ष 2023 को अंतराष्ट्रीय बाजरा वर्ष घोषित किया गया है.

बाजरा की खेती को बढ़ावा देने के कारण

ओडिशा सरकार ने कई वजहों से बाजरा की खेती को बढ़ावा देना तय किया. इसका एक कारण यह है कि बाजरा प्राकृतिक रूप से पारिस्थितिकी तंत्र में एकीकृत हो जाता है. बाजरा ग्रास फैमिली के छोटे अनाज हैं, जो कठोर, स्वयं-परागण वाली फसल है. यह मौसम की विपरीत परिस्थितियों में भी अच्छी तरह से बढ़ते हैं और गेहूं और धान जैसी प्रमुख फसलों की तुलना में अलग-अलग तरह की, छोटे पैमाने पर, कम इनपुट वाली खेती प्रणाली के लिए फिट है.

साथ ही क्योंकि यह मजबूत जड़ वाली एक प्रकार की घास है, जिससे यह फसल ऐसे राज्य में मिट्टी के कटाव को कम करने में मददगार साबित होती है, जहां बारिश के मौसम में बंगाल की खाड़ी से भयानक तूफान आते हैं. बाजरा कम उपजाऊ मिट्टी, पहाड़ी इलाकों, कम बारिश और उच्च तापमान में भी बच जाता है और क्लाइमेट शॉक्स को एडजस्ट कर लेता है.

इस बात में कोई दो राय नहीं है कि आदिवासी इलाक़ों में पारंपरिक खेती में कम लागत आती है. इसके साथ ही यह पर्यावरण की दृष्टि से भी बेहतर होती है. लेकिन यह ध्यान रखने वाली बात है कि इसका उत्पादन आधुनिक फ़सलों की तुलना में कम होता है.

इसलिए आदिवासी किसानों को एक ठोस नीति के तहत लगातार समर्थन और प्रोत्साहन दिए जाने की ज़रूरत होगी. फ़िलहाल यह ज़रूर कहा जा सकता है कि ओडिशा में सरकार इस मिशन को गंभीरता से ले रही है.

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