संविधान, क़ानून और योजनाओं की सुरक्षा से महरूम दुरूवा आदिवासी

मैं भी भारत की टीम ने ओडिशा के कोरापुट और मलकानगिरी ज़िले के कई गाँवों में इन आदिवासियों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी को काफ़ी नज़दीक से देखा. हमने पाया कि इस समुदाय की बनावट, सामाजिक व्यवस्था, भाषा और उत्पादन के साधन सभी के आधार पर इसे जनजाति का दर्जा दिया जा सकता है.

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भारत में कुल 705 आदिवासी समुदायों को जनजाति का दर्जा दिया गया है. इनमें से 75 आदिवासी समुदायों को विशेष रुप से कमज़ोर और पिछड़े आदिवासी समुदाय माना गया है. यानि ये ऐसे आदिवासी समुदाय हैं जिन्हें आदिम जनजाति माना जाता है. 

ये आदिवासी समुदाय अभी भी जंगल से मिलने वाले उत्पादों पर ही जीते हैं. इनमें से कुछ आदिवासी समुदाय छोटी मोटी खेती भी करते हैं. लेकिन खेती की तकनीक अभी भी पुरानी है. इस खेती में उत्पादन बेहद कम होता है.

भारत के आदिवासी समुदायों की जनजातियों के रूप में पहचान का कोई तय पैमाना नहीं है. यह एक ऐसा मसला है जो अभी तक सुलझाया नहीं गया है. फ़िलहाल जो व्यवस्था है उसके तहत एक आदिवासी समुदाय किसी एक राज्य में जनजातियों में शामिल हो सकता है. जबकि दूसरे राज्य में उस समुदाय को सामान्य समुदायों की श्रेणी में रखा जा सकता है.

ऐसा ही मामला ओडिशा के दुरुवा या दुरूआ आदिवासियों के साथ हुआ है. इन आदिवासियों को पड़ौसी राज्य छत्तीसगढ़ में विशेष रूप से पिछड़ी जनजातियों की श्रेणी में रखा गया है. लेकिन ओडिशा में उन्हें सामान्य वर्गों में रखा गया है. 

इस वजह से इस समुदाय को शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण का लाभ नहीं मिल पाता है. इसके अलावा भी कई क़ानूनों और योजनाओं की सुरक्षा से भी ये आदिवासी वर्ग वंचित हो जाते हैं. 

ओडिशा के मल्कानगिरी, कोरापुट, नवरंगपुर और बलांगीर में दुरुवा आदिवासियों की आबादी है. यहाँ पर कुछ इलाक़ों में इन आदिवासियों को धुरवा भी कहा जाता है. यह आदिवासी समुदाय खेती और पशुपालन भी करता है.

लेकिन राज्य का यह आदिवासी समुदाय अपने भोजन और जीवन यापन के लिए आज भी जंगल ही जाता है. इस समुदाय में अगर जीवन के बाक़ी पैमाने देखें तो भी पाया जाता है कि यह समुदाय ग़रीबी और शोषण का शिकार है.

2011 की जनगणना के आँकड़ों के अनुसार ओडिशा में इनकी कुल आबादी 11512 थी. जबकि साक्षरता दर क़रीब 7.27 प्रतिशत बताई गई है. यह समुदाय अपनी संस्कृति, परंपरा और जीवनशैली के आधार पर लंबे समय से दावा कर रहा है कि उन्हें जनजाति की श्रेणी में रखा जाए.

मैं भी भारत की टीम ने ओडिशा के कोरापुट और मलकानगिरी ज़िले के कई गाँवों में इन आदिवासियों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी को काफ़ी नज़दीक से देखा. हमने पाया कि इस समुदाय की बनावट, सामाजिक व्यवस्था, भाषा और उत्पादन के साधन सभी के आधार पर इसे जनजाति का दर्जा दिया जा सकता है.

हालाँकि राज्य सरकार और केंद्र सरकार ने अभी तक इस मामले में कोई फ़ैसला नहीं लिया है. 

आदिवासियों की पहचान का मसला देश में संविधान लागू होने के साथ ही शुरू हो गया था. भारत के अलग अलग राज्यों में बसे आदिवासियों के नाम के उच्चारण की वजह से भी यह मसला पैदा हुआ है.

इस सिलसिले में आदिवासी मामलों के मंत्रालय से संसद में लगातार सवाल होते रहे हैं. मंत्रालय का रवैया इन सवालों से नज़रें चुराने का रहा है. 

भारत सरकार ने आदिवासियों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति की समीक्षा के लिए एक हाई लेवल कमेटी का गठन किया था. 2014 में यह कमेटी प्रोफ़ेसर वर्जिनियस खाखा के नेतृत्व में बनाई गई थी.

इस कमेटी ने भी अपनी रिपोर्ट में यह कहा है कि आदिवासियों की जनजाति के रुप में पहचान एक बड़ा मसला है. इस मसले का स्थायी हल निकाला जाना चाहिए. 

लेकिन इसके बावजूद इस सवाल से एक के बाद एक सरकारें, संसद और कोर्ट नज़रें चुराते रहे हैं. ज़ाहिर है इसका ख़ामियाज़ा आदिवासी समुदायों को भुगतना पड़ रहा है. इन आदिवासी समुदायों में दुरूवा आदिवासी समुदाय भी शामिल है. 

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