पहाड़ी कोरवा को भारत सरकार ने आदिवासियों की विशेष श्रेणी में रखा है. इन्हें पीवीटीजी कहा जाता है. यानि ये वो आदिवासी हैं जो अभी भी मुख्यधारा कहे जाने वाले समाज से दूर हैं. इन आदिवासियों के लिए सरकार विशेष योजनाएँ बनाती है.
पहाड़ी कोरवा छत्तीसगढ़ के बिलासपुर, कोरबा और सरगुजा ज़िलों में रहते हैं. ये आदिवासी हिलटॉप यान पहाड़ियों के उपर अपने घर बनाते हैं. शायद इसलिए इन आदिवासियों को पहाड़ी कोरवा कहा जाता है.
ये आदिवासी खाने की तलाश में जंगल में अपने रहने की जगह बदलते रहते थे. लेकिन आज़ादी के बाद सरकार ने इन आदिवासियों को एक जगह पर बस जाने के लिए तैयार कर लिया. इन आदिवासियों को सरकार ने जंगल में कुछ ज़मीन भी दी थी. सरकार चाहती थी कि ये आदिवासी जंगलों में भटकना छोड़ दें और खेती करें.
इन आदिवासियों को एक जगह पर बसा दिए जाने के 70 साल बाद भी यह आदिवासी समाज मुख्यधारा कहे जाने वाले समाज से दूर है. ना तो मुख्यधारा ने ही इन आदिवासियों को अपनाने के लिए कदम आगे बढ़ाया और ना ही इन आदिवासियों का साहस हुआ कि वो इस समाज में शामिल हो सके.
मैं भी भारत की टीम इन आदिवासियों से मिलने छत्तीसगढ़ के कोरबा ज़िले में पहुँची. यहाँ पर इनकी एक बस्ती ठिर्रीआमा में पहाड़ी कोरवा आदिवासियों के कई परिवार से हमारी मुलाक़ात और बातचीत हुई.
इस मुलाक़ात में हमने पाया कि यह समुदाय स्थायी बस्तियों में बस तो गया है, लेकिन उसकी जीवनशैली अभी भी काफ़ी हद तक ख़ानाबदोश की ही है. यानि आज भी ये आदिवासी खेती किसानी नहीं करते हैं या नहीं कर पाते हैं.
इस बातचीत में हमारे सामने एक मज़ेदार और ज़रूरी सवाल इन आदिवासियों ने रखा. इन्होंने हमसे पूछा कि जब जंगल में हर तरह का खाना मौजूद था, तो सरकार ने हमें खेती करने के लिए क्यों कहा?
इसके बाद इस गाँव में पहाड़ी कोरवा आदिवासियों के पटेल यानि सामुदायिक मुखिया ने हमसे पूछा कि हमें जंगल से शिकार और फल दोनों मिलते थे. फिर हमें ज़बरदस्ती खेती में हाड़ तोड़ने को क्यों कहा जा रहा है.
वो कहते हैं कि सरकार अगर इतनी ही चिंतित है हमारे बारे में और चाहती है कि हम खेती शुरू कर दें, तो हमें ट्रैक्टर क्यों नहीं देती है?
मैं भी भारत की टीम ने इन आदिवासियों के साथ बिताए समय में पाया कि यह आदिवासी ख़तरे में हैं. ख़तरा गंभीर है और इस समुदाय का अस्तित्व मिटने का ख़तरा है. यह आदिवासी समुदाय खेती ना तो करता है और ना ही करना चाहता है और जंगल से अब शिकार मिलता नहीं है.
सरकार से इन्हें 35 किलो चावल मिल जाता है, नमक के साथ ये इस चावल को खाते हैं. इस समुदाय में कुपोषण ने ऐसे पैर पसारे हैं कि इससे कोई नहीं बचा है.
ये आदिवासी किसी सरकार या समाज को अपनी हालत के लिए ज़िम्मेदार नहीं मानते हैं. एक अजीब से उदासीनता उनके व्यवहार और बातचीत में मिलती है. लेकिन क्या कथित मुख्यधारा और सरकार भी उनकी प्रति ऐसे ही उदासीन बनी रहेगी.