क्या मैं कुत्ते का मीट खा सकता हूँ ?

हमारे एक दोस्त हमसे बड़े नाराज़ हैं, आज मैं अपने उस दोस्त को मनाने के लिए पेश हुआ हूँ. हमारे ये दोस्त मुझसे क्यों नाराज़ हैं….वो मुझसे नाराज़ हैं कि मैं आदिवासी इलाक़ों में जा रहा हूँ और ट्राइबल किचन में पता नहीं क्या क्या खा रहा हूँ.

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नागालैंड के मोकोकचुंग में आओ समुदाय के चीफ़ ने एक दाव मुझे भेंट किया था. मैंने उनसे कहा कि पता नहीं फ़्लाइट में मुझे इसे ले जाने की इजाज़ मिलेगी भी या नहीं? इस बात पर उन्होंने हंसते हुए कहा कि आप बस उनको यह बता देना कि यह दाव आओला ने ख़ुद अपने हाथों से बना कर मुझे दिया है…आपको कोई भी रोकेगा नहीं.

जी हाँ नागालैंड के मोकोकचुंग के आओ समुदाय के मुखिया को आओला कहा जाता है. लेकिन आज मैं आपसे आओला या आओ समुदाय बात नहीं कर रहा हूँ, आज एक बेहद ज़रूरी मसले पर अपना तजुर्बा आपके साथ शेयर करना चाहता हूँ.

दरअसल हमारे एक दोस्त हमसे बड़े नाराज़ हैं, आज मैं अपने उस दोस्त को मनाने के लिए पेश हुआ हूँ. हमारे ये दोस्त मुझसे क्यों नाराज़ हैं….वो मुझसे नाराज़ हैं कि मैं आदिवासी इलाक़ों में जा रहा हूँ और ट्राइबल किचन में पता नहीं क्या क्या खा रहा हूँ.

उन्होंने ग़ुस्से में यह तक कह दिया कि नागालैंड में तो कुत्ते का मीट भी खाया जाता है, आपको वह भी खा लेना चाहिए….कहानी को सिंपल रखते हैं मेरे दोस्त, प्लीज़ एक बार सुनियेगा,  मुझे उम्मीद है कि मैं आपको मनाने में कामयाब रहूँगा. मैंने नागालैंड में क्या क्या खाया यह भी बताऊँगा, पर कहानी इतने पीछे से शुरू नहीं करते हैं.

आओला जिन्होंने दाव हमें उपहार में दिया था

ओडिशा के बालेश्वर ज़िले के नीलगीरि ब्लॉक में एक गाँव है गोविंदपुरा. यहाँ हमारी मुलाक़ात हुई थी धोनी सिंह से. धोनी सिंह कमाल के आदमी निकले…उन्होंने कहा कि वो हमें जंगल में शिकार पर ले जाएँगे और हाऊ का शिकार करेंगे…वो ख़ूब मज़ेदार बातचीत करते हैं.

मैं जब भी उनसे पूछता की हाऊ किस जानवर का नाम है तो वो बात घुमा देते. रास्ते में हंडिया भी पिला दी थी. लेकिन आख़िर तक यह नहीं बताया की हाऊ आख़िर है क्या…और जब हाऊ हमारे सामने आया तो हंसी छूट गई…हाऊ दरअसल लाल चींटी थी. लेकिन जितना मज़ा मुझे धोनी सिंह के साथ हाऊ का शिकार करने में आया…इस शिकार को देख कर मैं भी भारत के चाहने वालों को शायद मुझसे भी ज़्यादा मज़ा आया.

बड़ी तादाद में हाऊ की इस कहानी पर आपकी प्रतिक्रिया भी मिली. आपने धोनी सिंह और उनके इस शिकार की ख़ूब दाद दी है. इसके लिए आपका शुक्रिया पर मैं इस कहानी का ज़िक्र इसलिए कर रहा हूँ कि अपने दोस्त को कुछ समझा सकूँ. धोनी सिंह के हाऊ के शिकार ने भारत के अलग अलग हिस्सों को एक साथ खड़ा कर दिया उन्हें जोड़ दिया.

आसान से शब्दों में कहूँ तो उन्होंने हमें एक दूसरे को समझना कितना आसान कर दिया. हमने यह देखा कि जब तक यह सामने नहीं आया कि धोनी सिंह लाल चींटी को ही हाऊ बोल रहे हैं तब तक एक सस्पेंस बना रहता है…और जैसे ही पता चलता है कि हाऊ तो दरअसल लाल चींटी है तो देश के अलग अलग हिस्सों में हंसी छूट जाती है. देश के अलग अलग राज्यों और ज़िलों से लोग बताने लगते हैं कि हाऊ को उनके इलाक़े में क्या कहा जाता है.

मसलन यूपी के अवध में इसे माटा कहा जाता है तो राजस्थान से आवाज़ आती है कि हमारे यहाँ तो इसे बिमटा कहते हैं. गोंडी भाषा बोलने वाले कोया आदिवासी कहते हैं कि हम तो इसे चोपड़ा बोलते हैं…तो छत्तीसगढ़ के बस्तर से कॉमेंट आता है कि हमारे यहाँ तो इसे चापड़ा कहते हैं.

छत्तीसगढ़ से मोहन साहू बोल उठते हैं कि अरे नहीं हमारे छ्त्तीसगढ़ी में इसे मटरा बोलते हैं. झारखंड से एक साहब कहते हैं कि मुंडारी में भी इसे हाऊ ही कहा जाता है और पंच परगना में इसे कुर्कुट कहते हैं. 

धोनी सिंह और उनकी मज़ेदार बातें सुनते श्याम सुंदर

मेरे दोस्त कुछ बात समझ में आई मैं क्या कह रहा हूँ…नहीं नहीं मैं आपका मज़ाक़ नहीं उड़ा रहा हूँ. जब तक मैंने धोनी सिंह के साथ हाऊ का शिकार नहीं किया था मुझे भी नहीं पता था कि वो तिल का ताड़ बना रहा है…माफ़ कीजिए चींटी का हाऊ बना रहा है.

क्योंकि इससे पहले छत्तीसगढ़ के भतरा आदिवासियों के साथ तो मैं चापड़ा यानि चींटी की चटनी खा ही चुका था…तो मेरे भाई यह देश बहुत बड़ा है और बेहद ख़ूबसूरत है और इसकी ख़ूबसूरती इस विविधता में छुपी है.

कितनी भाषा बोली हैं कि हिसाब नहीं…ओह पर हम तो खाने पर बात कर रहे थे और हमें नागालैंड चलना है…चलेंगे नागालैंड चलेंगे पर पहले ओड़िशा से ही एक और कहानी…मामला ताज़ा है इसलिए सब याद आ रहा है…

ओडिशा के कोरापुट में परजा आदिवासियों से मिलने गए. शाम का समय था हल्की सर्दी थी. गाँव में घूमते हुए हमें एक घर के अलाव जलता नज़र आया.

हम उस घर के आँगन की तरफ़ बढ़ गए. नज़दीक गए तो पाया कि वो चूहे भून रहे थे. यह उनके रात का खाना था. उनसे काफ़ी देर तक बातचीत होती रही. उन्होंने हमें बताया कि चूहे को भून कर फिर कढ़ाई में मसाले के साथ इसको पकाया जाता है.

उन्होंने कई और बातें भी बताई मसलन जब धान कट जाता है खेतों में चूहे ख़ूब मलते हैं. उन्होंने हमें खाने का ऑफ़र नहीं किया, वैसे भी हम बिन बुलाए मेहमान थे उनके घर. सो हमने चूहे का स्वाद नहीं लिया. 

अब आप कहेंगे कि मैं चूहा खाना नहीं चाहता था शायद इसलिए बच कर निकल गया. हो सकता है कि वो मुझे खाने के लिए कहते और मैं ना खा पाता. लेकिन ऐसी नौबत आई ही नहीं थी.

शायद मैं उन्हें मना कर देता या फिर शायद खा ही लेता. अब ये तो शायद है….लेकिन जो हमें खाने के लिए जो दिया गया उसमें हमने क्या क्या खाया…चलिए ओड़िशा से आपको असम लिए चलते हैं….चिंता मत करें नागालैंड भी चलेंगे. आपने तो वहीं की बात की थी ना?

ये इत्तेफ़ाक था की जब हम असम में हमें बोडो और राभा समुदायों से मिलने गए तो वहाँ शादियों का सीज़न था. हम बोडो और राभा दोनों ही समुदायों की शादी देखने का मौक़ा मिला और साथ में दावत में भी शामिल हुए.

बोडो शादी की दावत में गावड़ी यानि सूअर का मांस और घोंघा के अलावा और भी कई तरह का भोजन था. उसके बाद राभा आदिवासियों की शादी में गए तो वहाँ पर सूअर का मांस, केंकड़ा तो था ही रेशम का कीड़ा भी था.

मेरे ज़्यादातर साथियों ने रेशम का कीड़ा नहीं खाया. ना ही किसी ने ज़ोर दे कर उन्हें इसे खाने के लिए कहा भी. हाँ मुझे इसका स्वाद बेहद पसंद आया था. 

दोस्त कहानी तो कई हैं, पर अब आपको और इंतज़ार नहीं करवाते हैं. और चलते हैं सीधे नागालैंड. नागालैंड में हमने सफ़र की शुरुआत मोन ज़िले से की थी. वहाँ से मोकोकचुंग गए और फिर पहुँचे कोहिमा. चलिए आपको सीधा कोहिमा लिए चलते हैं…वैसे आप कभी नागालैंड गए हैं…नहीं? तो एक बार ज़रूर जाएँ, बेहद ख़ूबसूरत तो है ही इसके साथ ही अपने देश को समझने में थोड़ी आसानी होगी. 

हम अंगामी समुदाय से मिलने के सिलसिले में कोहिमा पहुँचे थे. यहाँ के खोनोमा गाँव में हमें जाना था. खोनोमा की कहानी तो कमाल की है कभी फ़ुरसत से डीटेल में सुनाता हूँ. आज कोहिमा की बात करते हैं.

यहाँ पर आपको कॉमनवेल्थ देशों की देखरेख में बनाया गया एक क़ब्रिस्तान मिलेगा जिसमें दूसरे विश्वयुद्ध में मारे गए फ़ौजी दफ़्न हैं. लेकिन कभी जाएँ तो कोहिमा का बाज़ार ज़रूर घूमना. इस बाज़ार में आपको देश के अलग अलग हिस्सों से आए लोग भी दुकान चलाते मिल जाएँगे.

कोहिमा बाज़ार में लारवा का आनंद

लेकिन यहाँ एक छोटा सा बाज़ार है जहां महिलाएँ दुकान चलाती हैं. वहाँ ज़रूर जाएँ. हम भी गए थे…और यहाँ पर जो मधुमक्खी का लारवा जो खाया था…उसका स्वाद ऐसा घुला था कि अब तक महसूस कर सकता हूँ. नहीं नहीं ज़रूरी नहीं है कि आप भी लारवा खाएँ…वहाँ आपकी पसंद की भी बहुत सारी चीज़ें मिल जाएँगी…तरह तरह के फल भी बिकते हैं.

मेरे दोस्त मुझे उम्मदी है कि अब आप नाराज़ नहीं होंगे. आपने एक तरह से मुझे चैलेंज किया था कि क्या मैं नागालैंड में कुत्ते का मीट खाऊँगा …शायद हाँ, शायद नहीं…क्योंकि ऐसा मौक़ा आया नहीं तो कह नहीं सकता.

बस इतना कहना चाहूँगा कि आप ट्राइबल किचन देखिए…उसमें हम आदिवासी भारत में कहीं बांस की सब्ज़ी खा रहे हैं तो कहीं जंगली कांदे, कहीं फुटकल का साग तो कहीं महुआ लाटा…आपको जो पसंद है खाएँ और जो पसंद नहीं वो ना खाएँ…आपका भला चाहने वाला आपका यह दोस्त आपसे विदा लेता है…आप मैं भी भारत और ट्राइबल किचन देखते रहें. 

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