भील महिलाओं के चाँदी के ज़ेवर है परिवार की सुरक्षा गारंटी

आदिवासी इलाक़ों में बुवाई और ब्याह शादी दो मौक़ों पर अक्सर क़र्ज़ लेते हैं. इस तरह के मौक़े पर ये महिलाएँ अपने ज़ेवर गिरवी रखने या बेचने से पीछे नहीं हटती हैं.

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बारेला समुदाय की इन महिलाओं की साड़ी पहनी है उसे नाटी कहा जाता है. बारेला भील आदिवासी समुदाय का ही हिस्सा है. राजस्थान, गुजरात या फिर महाराष्ट्र के भील बहुल कुछ इलाक़ों में इसे लुगड़ी या लुगड़ो भी कहते हैं.

इसी तरह उन के चाँदी के ख़ूबसूरत आभूषण पहने हैं उन्हें मध्य प्रदेश के निमाड़ यानि खरगोन, अलिराजपुर, बड़वानी, झाबुआ ज़िलों में जिन नामों से जाना जाता है. आस-पास के राज्यों में इन आभूषणों के नाम अलग अलग हो सकते हैं.

चाँदी के इन ज़ेवरात में से ज़्यादातर में उच्चारण या स्थानीय बोली से मामूली फ़र्क़ मिलता है. मसलन गले में पहने जाने वाले आभूषण को तागली, टागली , हसली या फिर आहली कई नामों से जाना जाता है.

उसी तरह से कमर में बांधे जाने वाले कमरबंद को कमर पट्टा, कांधोरा, कंदोरा, कर्धनी तागड़ी या फिर कमर में का गजरा भी बोला जाता है.

कोहनी के उपर और बाजुबंद के नीचे पहने जाने वाले कड़े को बाहवा कहा जाता है. हाथ के कड़े को भोरिया भी कहा जाता है.  

भील समुदाय में  बारेला, भिलाला, तड़वी, वसावा, नायक, पटलिया, मानकर, मीणा बड़े समूह हैं. इन समुदायों में भाषा, रीति रिवाजों  और जीवन शैली में कुछ कुछ फ़र्क़ मिलता है. 

इन समूहों में ब्याह शादियों के तौर तरीक़ों में भी थोड़ा फ़र्क़ है. लेकिन महिलाओं में चाँदी के गहनों का चाव एक जैसा मिलता है. 

भीलों में जिनके पास अच्छी ज़मीन या खेती बाड़ी के साधन हैं, उनकी महिलाएँ ज़ेवर ख़ूब ख़रीदती हैं. चाँदी के बने ये ज़ेवर ठोस और भारी होते हैं.

इनमें एक एक गहना आधा किलो से ले कर एक या सवा किलो तक हो सकता है. ज़्यादातर भील बहुल इलाक़ों में पानी की कमी है और साल में दो ही फ़सल ली जाती हैं.

दो फ़सल का मतलब है कि भील महिलाएँ साल में कम से कम दो बार तो ज़ेवर ख़रीदती ही हैं. भील महिलाएँ चाँदी के ज़ेवर बेशक बड़े चाव से ख़रीदती हैं.

चाँदी ख़रीदना इन आदिवासियों के लिए एक सुरक्षित निवेश है जो परिवार को आर्थिक सुरक्षा की गारंटी देता है. भील महिलाएँ चाँदी शौक़ के लिए रखती हैं. लेकिन इन गहनों को बहुत दिल से नहीं लगाती हैं.

परिवार की ज़रूरत के समय ये महिलाएँ इन ज़ेवरों को बेचने या गिरवी रखने से पीछे नहीं हटती हैं. देश के भील बहुल इलाक़ों में अभी भी संस्थागत लोन की व्यवस्था ना के बराबर है.

आदिवासी इलाक़ों में बुवाई और ब्याह शादी दो मौक़ों पर अक्सर क़र्ज़ लेते हैं. इस तरह के मौक़े पर ये महिलाएँ अपने ज़ेवर गिरवी रखने या बेचने से पीछे नहीं हटती हैं. 

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