आदिवासी और ग्रामीण भारत में कोविड प्रोटोकॉल थोपने से नहीं, भरोसे से बात बनेगी

ग्रामीण और आदिवासी भारत में पहले भी वैक्सीन अभियान चलाए गए हैं. उसके लिए समय के साथ ज़िला और ब्लॉक स्तर पर एक लंबा अनुभव हासिल किया जा चुका है. इस अनुभव पर भरोसा भी किया जाना चाहिए और इसका सही इस्तेमाल भी होना चाहिए. केन्द्र से मार्गदर्शन किया जाए, इसमें कोई बुराई नहीं है. लेकिन राज्य सरकारों और स्थानीय प्रशासन को पुराने अनुभव के साथ नए प्रयोग भी करने की छूट दी जानी चाहिए.

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16 मई 2021 को भारत सरकार ने आदिवासी और ग्रामीण इलाक़ों के लिए कोविड प्रोटोकॉल जारी किया है. यह 22 पेज का एक विस्तृत दस्तावेज़ है जिसमें आदिवासी और ग्रामीण इलाक़ों में कोरोना की रोकथाम और बचाव के लिए उपाय सुझाए गए हैं.

हाल ही में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी ज़िला अधिकारियों के साथ बातचीत की थी. यानि केन्द्र सरकार ने यह माना है कि कोरोना वायरस की दूसरी लहर ग्रामीण और आदिवासी भारत में फैल रही है. 

ग्रामीण और आदिवासी इलाक़ों में यह वायरस ज़्यादा तबाही मचा सकता है. इसकी एक वजह तो यह है कि ग्रामीण इलाक़ों में स्वास्थ्य सुविधाओं तक लोगों की पहुँच कम है. आदिवासी इलाक़ों में यह स्थिति और भी ख़राब है.

लेकिन इसके अलावा भी इन इलाक़ों में कई बड़ी चुनौतियाँ होंगी. मसलन देश के कई आदिवासी इलाक़े ऐसे हैं जो दुर्गम या अति दुर्गम हैं. वहाँ वायरस तो पहुँच गया है, लेकिन इलाज पहुँचाना थोड़ा मुश्किल काम है. 

आदिवासी इलाक़ों में यह धारणा भी है कि उनकी प्रतिरोधी क्षमता मजबूत होती है और उन्हें यह वायरस प्रभावित नहीं कर पाएगा. इस धारणा को मीडिया में छपी ख़बरों में भी देखा गया है. 

लेकिन यह धारणा सही नहीं है. बल्कि एक हद तक यह धारणा ख़तरनाक हो सकती है. काफ़ी हद तक इस तरह की धारणा पूरे भारत के बारे में भी बनी थी. शायद यह भी एक कारण था कि लोगों ने भारत में इस वायरस के संक्रमण को उतनी गंभीरता से नहीं लिया.

इसका परिणाम आज देश भुगत रहा है. शहरों के अलावा गाँवों में भी मौतें हुई हैं और इतनी बड़ी तादाद में हुई हैं कि शवों का सम्मान के साथ अंतिम संस्कार भी नहीं हो पाया है. 

उत्तर प्रदेश और बिहार में गंगा नदी में सैंकड़ों लाशें तैरते हुए भयानक और शर्मनाक दृश्य देखने को मिले हैं. इसलिए यह धारणा सही नहीं है इसके लिए अब कोई प्रमाण देने की भी ज़रूरत नहीं रही है.

आदिवासियों के बारे में यह धारणा ज़्यादा ख़तरनाक होने का एक और कारण है. आदिवासियों में कई ऐसे तबके या समुदाय हैं जिन्हें पीवीटीजी कहा जाता है.

यानि ये आदिम जनजाति समूह हैं जिनकी आबादी सीमित है. 

आदिम जनजातियों में कई समूह ऐसे हैं जिनकी आबादी में ठहराव है या फिर उनकी आबादी लगातार कम हो रही है. ऐसे आदिवासी समूहों में यह वायरस घातक साबित हो सकता है और इन समूहों का वजूद ख़तरे में डाल सकता है.

प्रतिरोधी विज्ञान (इम्यूनोलॉजी) के शोध बताते हैं कि कई आदिवासी समुदाय वायरस के लिहाज़ से वर्जिन आबादी है. यानि आदिवासी आबादी कई तरह के वायरस से अछूती रही है. 

इसलिए अगर कोई नया वायरस इन आदिवासी समूहों में पहुँचता है तो उनको यह वायरस बाक़ी आबादी की तुलना में ज़्यादा प्रभावित करेगा.

यह बात किसी भी वायरस या बीमारी के बारे में लागू होती है. मसलन मलेरिया भी अगर किसी नए क्षेत्र में फैल जाता है, जहां पहले यह बीमारी ना फैली हो तो वहाँ इसका प्रभाव ज़्यादा तेज़ होगा. 

इसलिए यह धारणा तोड़ी जानी ज़रूरी है और इस धारणा को फैलाने या इसका समर्थन करने से बचना चाहिए. 

ग्रामीण और आदिवासी भारत में कोविड के इलाज और वैक्सीन के मामले में कुछ और ज़रूरी कदम उठाए जाने की ज़रूरत है. इनमें सबसे ज़रूरी काम है कि आदिवासी समुदाय को भरोसे में लिया जाए.

इसके लिए आदिवासी समुदाय की जीवनशैली और उनकी आस्थाओं व विश्वासों को समझने वाले लोगों को इस प्रक्रिया में शामिल करना होगा. आदिवासी समुदायों में अभी भी उनके सामाजिक नेतृत्व की काफ़ी इज़्ज़त‍ की जाती है और उनकी बात समुदाय में मानी जाती है.

इसलिए यह ज़रूरी है कि आदिवासी समुदाय के जो सामाजिक नेता हैं उन्हें इलाज और वैक्सीन की मुहिम में शामिल किया जाए.

इसके अलावा एक और महत्वपूर्ण तथ्य है कि ग्रामीण और आदिवासी भारत में पहले भी वैक्सीन अभियान चलाए गए हैं. उसके लिए समय के साथ ज़िला और ब्लॉक स्तर पर एक लंबा अनुभव हासिल किया जा चुका है. 

इस अनुभव पर भरोसा भी किया जाना चाहिए और इसका सही इस्तेमाल भी होना चाहिए. केन्द्र से मार्गदर्शन किया जाए, इसमें कोई बुराई नहीं है. लेकिन राज्य सरकारों और स्थानीय प्रशासन को पुराने अनुभव के साथ नए प्रयोग भी करने की छूट दी जानी चाहिए.

आदिवासी समुदायों में छत्तीसगढ़, केरल और कई दूसरे राज्यों में स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े कई बेहतरीन हस्तक्षेप हुए हैं. इसलिए कोविड के समय में राज्य सरकारों को ज़मीनी अनुभव और परिस्थितियों के हिसाब से योजना बनाने और काम करने की छूट दी जानी चाहिए.

केन्द्र से कोई एक निश्चित तरीक़ा थोपना सही नहीं होगा. इस तरह के फ़ैसले कभी भी अच्छे परिणाम नहीं देते हैं. कोविड महामारी में लॉक डाउन से ले कर स्वास्थ्य सेवाओं को दुरूस्त करने के मामले में ऐसा अनुभव किया गया है. 

अभी काफ़ी समय निकल चुका है. लेकिन यह चुनौती और ख़तरा लगातार बढ़ भी रहा है. इसलिए ज़रूरी है कि राज्यों और ज़िला स्तर पर बेशक निगरानी रखी जाए. लेकिन उनके अपने अनुभव के आधार पर फ़ैसले किये जाने की छूट दी ही जानी चाहिए.

हाल ही में छत्तीसगढ़ के मामले में उच्च न्यायालय ने हस्तक्षेप कर राज्य सरकार के फ़ैसले पर रोक लगा दी. छत्तीसगढ़ सरकार चाहती थी कि वैक्सीन के मामले में सिर्फ़ उम्र को आधार बनाना सही नहीं है. राज्य सरकार चाहती थी कि जो कमज़ोर तबके (Vulnerable groups of the society) हैं उन्हें वैक्सीन के मामले में प्राथमिकता दी जाए.  

लेकिन हाईकोर्ट ने सरकार की इस योजना पर रोक लगा दी. कोविड महामारी के दौरान ऐसे कई फ़ैसले लिए गए जिन्हें राज्य सरकारों या ज़िला प्रशासन को लागू करने के लिए कह दिया गया. यह टॉप डाउनन एप्रोच है, और बहुत अच्छे परिणाम नहीं देगी. 

(डॉ राजीब दासगुप्ता जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर हैं और कम्यूनिटी मेडिसिन के विशेषज्ञ हैं)

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