बिरहोर आदिवासियों के नाम से ही इनकी पहचान झलकती है. बिर का अर्थ ‘ जंगल ’ और ‘ होर ’ का अर्थ आदमी. मतलब ऐसे आदिवासी जो जंगल और पहाड़ों में रहते हो.
बिरहोर जनजाति झारखंड और छत्तीसगढ़ के प्रमुख आदिवासी है. बिरहोर आदिवासियों को पीवीटीजी श्रेणी में रखा गया है.
पीवीटीजी यानी विशेष रूप से पिछड़ी जनजाति, इस श्रेणी में उन समुदायों को रखा जाता है जिनकी आर्थिक व्यवस्था कमज़ोर हो, खेती में पांरपरिक तकनीकों का इस्तेमाल करते हो, सक्षरता दर न्यूनतम हो और जनसंख्या घट रही हो.
2011 की जनगणना के अनुसार बिरहोर जनजाति की कुल जनसंख्या 17,044 हैं. झारखंड के बाद छत्तीसगढ़ दूसरा ऐसा राज्य है, जहां सबसे ज्यादा बिरहोर आदिवासी रहते हैं.
बिरहोर के गांव को टांडा कहा जाता है. अक्सर यह देखा गया है कि इनकी बस्तियाँ मुख्य गांव से 1 या 2 किलोमीटर की दूरी पर होता है. जिसे बिरहोर टांडा के नाम से जाना जाता है.
दरअसल बिरहोर समुदाय के आदिवासियों को सरकार ने कुछ बरस पहले ही बसाया है. इससे पहले ये आदिवासी जंगल में एक जगह से दूसरी जगह अपनी बस्तियां बसाते थे.
इस आदिवासी समुदाय में अभी भी कुछ समूह या परिवार ऐसे हैं जो अभी भी जंगल में ही घूमते हैं. यानि उनकी कोई स्थाई बस्तियां अबी भी नहीं हैं.
बिरहोर जनजातियों के रहन-सहन की वज़ह से इन्हें दो भागो में बांटा गया है.
- जंगली या धानिया (बसे)
- उथलू या भूलिया(घुमक्कड़)
उथलू या भूलिया अपना स्थान बदलते रहते हैं. वहीं जंगली बिरहोर लंबे समय तक एक ही जगह पर रहते हैं.
बिरहोर आदिवासियों के गांव में 20 से 25 परिवार रहते हैं. इनकी झोपड़ियों पत्तो, पेड़ो की टहनी, घास-फूस और लकड़ियों से बनी हुई होती है.
अब यह देखा गया है कि कुछ कच्चे पक्के घर भी ये आदिवासी बनाते हैं. लेकिन परंपरागत तौर पर इनके घर पत्तों से ही बने होते थे.
इनकी झोपड़ियों की बनावट में समान्यता कम ही देखने को मिली है.
झोपड़ियों के एक तरफ विभिन्न वस्तुओं को स्टोर करने के लिए जगह बनाई जाती है और दूसरी तरफ रहने का स्थान और रसोई घर होता है.
बिरहोर जनजाति के उपकरण
खेती में इस्तेमाल होने वाले उपकरण:- लोहे धातु से बनी कुल्हाड़ी, नांगर, टंगिया हैं.
शिकार में इस्तेमाल होने वाले उपकरण:- तीर कमान, हसिया, गुलेल, बांस की चोरिया, बंदर पकड़ने का जाल, छोटे जानवरों का शिकार करने के लिए जाल इत्यादि हैं.
बिरहोर जनजातियों का पहनावा
बिरहोर जनजाति के पुरूष लंगोटी या छोटा पंछा पहनते थे. लेकिन अब इस आदिवासी समुदाय के पुरुष कमीज, लूंगी और धोती भी पहनते है.
वहीं महिलाएं पहले बिना ब्लाउज साड़ीनुमा कपड़ा पहनती थी. इस कपड़े को लुगड़ा कहा जाता है. लेकिन अब इन्होंने मुख्यधारा समाज की तरह साड़ी पहनना शुरू कर दिया है.
इसके अलावा बिरहोर आदिवासी महिलाएं श्रृंगार के लिए विभिन्न आकृतियों के गोदान गुदवाती है. यह महिलाएं अपने शरीर में हाथी, फलवारी, चूड़ी और मछली की आकृति के गोदान गुदवाती हैं.
आर्थिक जीवन
बिरहोर आदिवासियों का आर्थिक जीवन शिकार करना, जंगली कंदमूल, भाजी और जंगली वनोपज पर पूरी तरह से निर्भर हैं.
यह आदिवासी मोहलाइन छाल की रस्सी या बांस के टुकना, झऊहा बनाकर भी बेचते हैं.
खेती में साठी, धान, मक्का, कोदो, उड़द आदि अनाज बोते है.
इन आदिवासियों का मुख्य भोजन चावल, कोदो की पेज, बेलिया, उरद की दाल, जंगली कंदमूल और मौसमी साग भाजी है.
इसके अलावा यह लोग मांस मुर्गी, बकरा, मछली, चूहा, केकड़ा, कछुआ, खरगोश, सुअर आदि जंगली पक्षियों का मांस का खाते हैं.
अगर बिरहोर आदिवासियों के पास अनाज खत्म हो जाता है तो ये जंगल से कांदा खोदकर लाते है और इसे भूनकर या उबालकर खाते है. ये आदिवासी बारिश के समय मछली का भी उपभोग करते हैं.
महुआ और हड़िया की शराब बिरहोर आदिवासियों के सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग है.
महुआ शराब का निर्माण महुआ के फूलों से किया जाता है. वहीं हाड़िया शराब का निर्माण चावल से होता है.
बिरहोर आदिवासियों में शादी
बिरहोर आदिवासियों में एक से ज्यादा विवाह मान्य है. इसके अलावा इनमें छोटे भाई के साथ भाभी का पुनविवाह भी मान्य माना जाता है.
बिरहोर आदिवासी समाज में अगर किसी एक व्यक्ति का बहुविवाह होता है, तो उसकी पहली पत्नी के बेटे को भूमि पर ज्यादा हिस्सा मिलता है.
विवाह प्रस्ताव लड़के के परिवार की तरफ से ही आता है. विवाह तय होने पर लड़के के पिता लड़की के परिवार वालों को दो खण्डी चावल, पांच कुडो दाल, दो हंडिया शराब, लड़की के लिए साड़ी ( लुगड़ा) देते हैं.
जन्म और मृत्यु
बिरहोर आदिवासियों में बच्चे के जन्म होने के 6 दिन बाद मां और बच्चे दोनों को नहलाकर सूरज दर्शन करवाया जाता है. जिसके बाद गांव के रिश्तेदारों को महुआ या हड़िया पिलाई जाती है.
वहीं बच्चे के 10 वर्ष से अधिक उम्र का होते ही उसे युवागृह या गोति आरा भेज दिया जाता था. हांलाकि अब यह परंपरा धीरे धीरे लुप्त हो गई है.
मृत्यु:- बिरहोर आदिवासियों में मृत्यु होने के बाद शव को दफनाया जाता है. जिसमें मृतक द्वारा उपयोग किए जाने वाले घरेलू सामानों को भी गाड़ दिया जाता है.
सामाजिक और धार्मिक जीवन
बिरहोर जनजातियों में पंरपरागत जाति पंचायत होती है. इन पंचायत के मुख्य को मालिक कहा जाता है. ग्राम पंचायत के मुख्य अक्सर गाँव के बुजुर्ग और अनुभवी व्यक्ति होते हैं.
अगर ग्राम स्तर पर आदिवासी परिवार के मामले नहीं सुलझ पाते तो वह कई ग्रामों से बनी जाति पंचायत के पास जाते हैं.
बिरहोर जनजाति के प्रमुख देवता सूरज (सूर्य) होते है. इसके अलावा यह अपने स्थानीय देवी-देवताओं की पूजा करते है.
इनमें तंत्र-मंत्र व जड़ी बूटी जानने वाले को पाहन कहा जाता है. यह लोग भूत-प्रेत और टोना- जादू पर काफी विश्वास करते हैं. इनके मुख्य वाद्य यंत्र नगाड़ा, मादर, ढोल, लोहरी, ढफली, टिमकी आदि हैं.
बिरहोर आदिवासी समुदाय की चुनौतियाँ
इस समुदाय की सबसे बड़ी चुनौती तो खुद को ज़िंदा रखना ही है. क्योंकि बदलती दुनिया में ये आदिवासी आज भी खुद को शामिल नहीं कर पाए हैं.
साल 1972 में वन्य जीवों के शिकार पर पूर्ण प्रतिबंध ने इनकी भोजन परंपरा को पूरी तरह से नष्ट कर दिया है. अब ये आदिवासी मोटेतौर पर राशन से मिलने वाले राशन पर ही निर्भर करते हैं.
बिरहोर जनजाति की एक बच्ची की भूख से मौत की ख़बर राष्ट्रीय सुर्खियों में आई थी. साल 2017 में झारखंड के सिमडेगा ज़िले के करमाटी गांव में एक बिरहोर बच्ची ने भात-भात कहते हुए अपनी मां की गोद में दम तोड़ दिया था.
कुपोषण इस जनजाति के लिए सबसे बड़ा अभिशाप बना हुआ है.
जनजातियों के विकास पर काम करने वाले लोग इस समूह के लुप्त हो जाने का ख़तरा बताते हैं. क्योंकि इनकी जनसंख्या में लगातार गिरावट आ रही है.