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क्या आदिवासी समान नागरिक संहिता (UCC) के खिलाफ़ है

लोकसभा चुनाव 2024 के चुनाव परिणाम के बाद बीजेपी को यह सोचना पड़ेगा कि आदिवासी बहुल राज्यों में यूसीसी (UCC) जैसे मुद्दों पर क्या किया जाए. ख़ासतौर से झारखंड से लोकसभा चुनाव का जो संदेश निकला है उसकी रोशनी में यह सवाल बीजेपी के लिए बेहद ज़रूरी हो गया है. इस राज्य में बीजेपी आदिवासी समुदायों के लिए आरक्षित सभी सीटें हार गई है.

भारत में आदिवासी समुदाय (Tribal communities) इस बात से कितने भयभीत हैं कि समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) उनकी पहचान को हाशिए पर धकेल देगी?

लोकसभा चुनाव के नतीजों को देखते हुए इस सवाल का जवाब देना आसान नहीं है.

एक साल पहले विधि आयोग (Law Commission) ने धर्म, रीति-रिवाज और परंपरा पर आधारित व्यक्तिगत कानूनों को धर्म, जाति, पंथ, लैंगिक रुझान और लिंग के बावजूद सभी के लिए एक समान कानून (Universal Civil Code) के प्रस्ताव पर जनता की प्रतिक्रियाएं मांगी थीं.

यूसीसी (UCC) के तहत व्यक्तिगत कानून और विरासत, गोद लेने और उत्तराधिकार से संबंधित कानूनों को एक समान संहिता के अंतर्गत शामिल किया जाना था. जून 2023 तक, सरकार को लगभग 19 लाख सुझाव प्राप्त हुए थे.

अब चुनाव के बाद भारतीय जनता पार्टी (BJP) के समर्थकों द्वारा व्हाट्सएप मैसेज भेजे जा रहे हैं, जिसमें प्राप्तकर्ताओं से यूसीसी के लिए “हाँ” पर क्लिक करने के लिए कहा जा रहा है.

UCC को भाजपा के 2024 के घोषणापत्र में शामिल किए जाने से पहले ही आदिवासी समूहों के नेता केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह (Amit Shah) और अन्य शीर्ष सरकारी पदाधिकारियों से मिलकर मांग कर रहे थे कि आदिवासियों को यूसीसी से बाहर रखा जाए.

भाजपा के एक गैर-आदिवासी सांसद और विधि संबंधी स्थायी समिति के अध्यक्ष दिवंगत सुशील मोदी ने सार्वजनिक रूप से कहा था कि उन्हें लगता है कि पूर्वोत्तर के आदिवासियों को यूसीसी से बाहर रखा जाना चाहिए.

एनडीए के सहयोगी कोनराड संगमा (मेघालय) जैसे पूर्वोत्तर के मुख्यमंत्रियों भी यही मांग कर रहे थे. इन मुख्यमंत्रियों का मानना ​​है कि यूसीसी भारत की विविधता की मूल ताकत से समझौता करेगी.

नागालैंड और मिजोरम विधानसभाओं ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया है कि उन्हें यूसीसी से छूट दी जाए.

2011 की जनगणना के मुताबिक, मिजोरम में आदिवासी आबादी का अनुपात 94.4 प्रतिशत, नागालैंड में 86.5 प्रतिशत और मेघालय में 86.1 प्रतिशत है.

मिज़ो लोग अनुच्छेद 371 (जी) के तहत अपने व्यक्तिगत कानूनों के लिए संवैधानिक संरक्षण का हवाला देते हैं.

झारखंड के भाजपा नेता स्पष्ट रूप से स्वीकार करते हैं कि यूसीसी द्वारा आदिवासी पहचान को खत्म करने के डर से उन्हें लोकसभा चुनाव में हार का सामना करना पड़ा.

हालांकि पार्टी ने झारखंड की 14 में से आठ सीटें जीतीं, लेकिन भाजपा उम्मीदवारों की जीत का अंतर 2019 की तुलना में कम था.

लोकसभा चुनाव में पार्टी दो तरीके से हारी: पहला वोट शेयर के मामले में (2019 के 51.6 प्रतिशत से घटकर 2024 में 44.58 प्रतिशत) और दूसरा, आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटों में से एक भी सीट नहीं जीत पाई.

झारखंड में हार का कारण भ्रष्टाचार के आरोप में पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की गिरफ़्तारी और यूसीसी के खतरे दोनों को माना जा रहा है.

आदिवासी समुदाय सरना की सुरक्षा के मुद्दे पर सक्रिय रहे हैं, जो कि प्राकृतिक देवताओं की पूजा की एक प्रणाली है और आदिवासी समन्वय समिति द्वारा महिलाओं के अधिकारों, विरासत और गोद लेने के संबंध में आदिवासी जीवन शैली की रक्षा के लिए लामबंदी की गई है.

आदिवासी लोगों के ईसाई धर्म अपनाने के कारण स्थिति और जटिल हो जाती है.

लेकिन फिर भी मध्य प्रदेश और यहां तक ​​कि छत्तीसगढ़ में स्थिति एकदम अलग थी. मध्य प्रदेश में आदिवासियों सहित लोगों ने भाजपा को ज़बरदस्त समर्थन दिया है.

यहां पर पार्टी ने सभी 29 लोकसभा सीटें जीतीं, जो 2023 के विधानसभा चुनावों के बाद एक शानदार प्रदर्शन है. जब बीजेपी ने 230 सीटों में से 163 सीटें जीती थीं.

छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में कुल मिलाकर आदिवासियों के लिए 76 विधानसभा सीटें आरक्षित हैं. 2018 में 19 सीटें जीतने वाली भाजपा ने 2023 में 44 सीटें जीतीं थीं. जबकि उनमें से ज़्यादातर पहले कांग्रेस के पास थीं.

इस पृष्ठभूमि में यह सवाल लाज़मी है कि अगर झारखंड के आदिवासी यूसीसी से अपनी पहचान खत्म होने को लेकर इतने चिंतित हैं तो यही डर मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में आदिवासी मतदाताओं को भाजपा का समर्थन करने से क्यों नहीं रोक पाया? या फिर आदिवासी बहुल ओडिशा में जहां पार्टी ने अपने अब तक के सर्वश्रेष्ठ परिणाम दर्ज किए.

ओडिशा में बीजेपी ने राज्य में सरकार बनाई और 21 लोकसभा सीटों में से 20 सीटें जीतीं?

इसकी एक बड़ी वजह शायद यह रही है कि झारखंड में आदिवासी पहचान और भूमि अधिकार को लेकर लगातार आंदोलन होता रहा है. इस सिलसिले में सरना धर्म या पत्थलगड़ी आंदोलन का ज़िक्र किया जा सकता है.

जबकि मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में बीजेपी के सहयोगी संगठन धर्म परिवर्तन और डीलिस्टिंग (धर्म परिवर्तन करने वाले आदिवासियों का आरक्षण ख़त्म करने की माँग) जैसे मुद्दों पर आदिवासियों को उलझाए रहे.

लेकिन इन राज्यों में भी कई आदिवासी संगठन यूसीसी के मुद्दे पर चिंतत तो थे. मसलन मध्यप्रदेश का आदिवासी संगठन जयस इस मुद्दे पर मुखर रहा है.

छत्तीसगढ़ में बहुजन समाज पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और नवगठित हमार राज और सर्व आदि दल को मिली वोटों की संख्या कांकेर और बस्तर की दो आदिवासी सीटों पर भाजपा की जीत के अंतर से अधिक था.

इसलिए यह कल्पना की जा सकती है कि उन्होंने इसके लिए मतदान किया हो सकता है. लेकिन आदिवासी मतदाता यूसीसी से अपनी पहचान के लिए खतरों के बारे में चिंतित हैं और भाजपा को इसे ध्यान में रखना चाहिए.

वैसे ऐसा लगता है कि पार्टी को इस बात का अहसास है. क्योंकि चुनाव परिणाम के बाद त्रिपुरा और असम जैसे राज्यों में बीजेपी सरकारों ने CAA के मुद्दे पर चुप्पी साध ली है. जबकि चुनाव परिणाम से पहले इस मुद्दे पर राजनीति गर्माती हुई नज़र आ रही थी.

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