HomeGround Reportअबूझमाड़: जहां जिंदगी की जड़ें सूख जाती हैं

अबूझमाड़: जहां जिंदगी की जड़ें सूख जाती हैं

अबूझमाड़ में कुपोषण सिर्फ स्वास्थ्य का मुद्दा नहीं, यह सामाजिक बहिष्कार और नीतिगत असफलता की कहानी भी है.

अबूझमाड़ छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र (Bastar Region) में स्थित एक घना और दुर्गम जंगल क्षेत्र है. इस जंगल को अपनी रहस्यमयी भौगोलिक परिस्थितियों और आदिवासी संस्कृति (Tribal culture) के लिए जाना जाता है. 

यह इलाका पहाड़ियों, गहरी घाटियों, घने साल और बांस के जंगलों से भरा है. इस जंगल में पहुँचना अत्यंत कठिन काम हो जाता है. अबूझमाड़ का अधिकांश हिस्सा आज भी बाहरी दुनिया से कटा हुआ है.  

यह कहा जाता है कि अबूझमाड़ के कई क्षेत्र अभी भी सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज ही नहीं हैं.इस जंगल में माड़िया गोंड, मुरिया गोंड और पहाड़ी मुरिया आदिवासी समुदाय रहते हैं. 

अबूझमाड़ की एक और पहचान ‘माओवादी गढ़’ के तौर पर की जाती है. फ़िलहाल अबूझमाड़ सुरक्षा बलों और माओवादियों के बीच अघोषित युद्ध का मैदान बना हुआ है. इसी जंगल में 21 मई 2025 को शीर्ष माओवादी नेता यानि सीपीआई (माओवादी) के महासचिव बसवराजू सुरक्षाबलों के हाथ मारे गए.

अबूझमाड़ की जैव विविधता के अलावा आदिवासी संस्कृति, भाषा रीति रिवाज और देवी देवताओं की पूजा पद्धतियां आदिवासी और जंगल के सहअस्तित्व का एक अनूठा उदाहरण पेश करते हैं.

लेकिन अबूझमाड़ में भुखमरी, कुपोषण और मलेरिया (Hunger, Malnutrition and Malaria) भी बसता है. इसलिए अबूझमाड़ के जंगल में आज भी लोगों की जिंदगी देश के बाकी हिस्सों की तुलना में काफ़ी छोटी होती है. 

अबूझमाड़ के इन्हीं जंगलों से मैं भी भारत के लिए अंकुर तिवारी ने आदिवासी जीवन के साथ साथ कुपोषण और भुखमरी की तस्वीरें भेजी हैं – 

माड़िया जनजाति भारत के PVTG (Particularly Vulnerable Tribal Groups) में आती है.  इनके पारंपरिक खानपान में आज भी जंगली कंद-मूल, और फसल आधारित भोजन शामिल है.

माड़िया जनजाति के 80% परिवारों में बच्चों को 6 महीने के बाद भी केवल चावल का माढ़ या पतली खिचड़ी दी जाती है. यहां स्त्रियों में ख़ून की (Anemia) का स्तर 65% से ऊपर है (Source – NFHS-5).

अबूझमाड़ में पीने के लिए साफ़ पानी का न मिलना, कुपोषण को और गहरा करता है. गंदा पानी पीने से दस्त, त्वचा रोग और संक्रमण आम हैं.

अबूझमाड़ में कुपोषण के साथ-साथ साफ़ पीनी की अनुपलब्धता भी बच्चों की सेहत पर सीधा असर डालती है. अधिकतर गाँवों में हैंडपंप साल के कई महीनों में सूख जाते हैं या दूषित पानी देते हैं.

यहां के ज़्यादातर गांवों में लोग पीने के पानी के लिए नदी, झरने या ढोढी पर निर्भर करते हैं. UNICEF की रिपोर्ट (2021) के अनुसार, भारत में 45% बाल मृत्यु का एक कारण गंदा पानी और उससे जुड़ी बीमारियाँ हैं.

अबूझमाड़ के कम से कम 60% घरों में साफ़ पीने का पानी उपलब्ध नहीं है.

यह शरीर नहीं, एक सवाल है—क्या इस देश में आदिवासियों का बचपन इस कदर असुरक्षित रहेगा? तस्वीर में दिखता यह बच्चा अबूझमाड़ के किसी भी गाँव का हो सकता है.

यह ‘वॉशआउट बॉडी’—बड़ा पेट, सूखी टांगें और पतले हाथ—Severe Acute Malnutrition (SAM) की क्लासिक पहचान है.

2022 में UNICEF और राज्य सरकार द्वारा किए गए विशेष सर्वेक्षण में नारायणपुर और बीजापुर जिलों के 30% से अधिक बच्चों को SAM (गंभीरकुपोषण) की श्रेणी में पाया गया.

लेकिन अबूझमाड़ जैसे इलाकों में NRC (Nutrition Rehabilitation Centre) से दूरी और अविश्वास के कारण इलाज नहीं हो पाता. 

अबूझमाड़ सिर्फ नक्शे पर एक भौगोलिक क्षेत्र नहीं, बल्कि एक ऐसी आवाज़ है जिसे दशकों से अनसुना किया गया. कुपोषण यहाँ सिर्फ स्वास्थ्य का मुद्दा नहीं, यह सामाजिक बहिष्कार और नीतिगत असफलता की कहानी भी है.

WHO के मानकों के अनुसार, अबूझमाड़ के अधिकतर बच्चे “severely underweight” की श्रेणी में आते हैं.

यह तस्वीर सिर्फ एक परिवार की नहीं, पूरे क्षेत्र की व्यथा का प्रतीक है. यहां के गांवों में आंगनबाड़ियों के मामले में कमीशनखोरी और भ्रष्टाचार कुपोषण से लड़ाई में ज़िंदगी को हरा देता है.

अबूझमाड़ में हर चौथा बच्चा गंभीर कुपोषण का शिकार है. यहां के अधिकांश आंगनबाड़ी केंद्र या तो बंद पड़े हैं या नियमित कार्य नहीं कर पा रहे. बच्चों को समय पर पोषाहार नहीं मिल पाता, न ही माताओं को समुचित जानकारी दी जाती है.नारायणपुर जिले के 300 से अधिक गाँवों में से 70% गाँवों में आंगनबाड़ी कार्यकर्ता नियमित नहीं आतीं हैं. 2019 की जनसुनवाई में यह पाया गया था कि 10 मेंसे 7 बच्चोंकाटीकाकरणअधूरा था.


अबूझमाड में माड़िया जनजाति के लोग प्रकृति के साथ सहजीवन में विश्वास करते हैं. लेकिन सरकारी तंत्र से दूरी ने इन्हें बुनियादी सेवाओं से भी वंचित रखा है.

माड़िया जनजाति के लोग आज भी लगभग पूरी तरह से जंगलों पर निर्भर रहते हैं. अबूझमाड़ के इन मूल निवासियों को शिक्षा, स्वास्थ्य और पोषण के अभाव ने आधुनिक दुनिया से बहुत दूर रखा है.

अबूझमाड़ में माओवादी आंदोलन (Maoist Movement) का दबदबा 1980 के दशक के अंत और 1990 के दशक की शुरुआत से धीरे-धीरे बढ़ने लगा. अबूझमाड़ की दुर्गम भौगोलिक स्थिति, सीमित प्रशासनिक पहुंच और बाहरी दुनिया से कटा हुआ रहना माओवादियों के लिए इसे एक सुरक्षित ठिकाना बनाने में सहायक बना.

2000 के दशक में छत्तीसगढ़ राज्य के गठन के बाद और विशेषकर Salwa Judum अभियान (2005) के दौरान, माओवादियों ने अबूझमाड़ को अपने मजबूत गढ़ (stronghold) के रूप में विकसित किया.

अबूझमाड़ के कई गांवों में माओवादी झंडा और मारे गए माओवादियों की समाधियां मिलती हैं. अबूझमाड़ में कुपोषण-भुखमरी जैसे मुद्दों पर जितने सवाल सरकार से बनते हैं, उतने ही माओवादियों से भी किये जा सकते हैं.

क्योंकि माओवादियों की मौजूदगी ने सरकारी तंत्र को यह बहाना बनाने का मौका दिया कि वहां सुरक्षा कारणों से सरकारी तंत्र फेल हो जाता है.

छत्तीसगढ़ के अबूझमाड़ क्षेत्र में आज भी आदिवासी समुदाय, विशेषकर माड़िया जनजाति, आदिम जीवनशैली के सहारे अपनी ज़िंदगी बसर कर रहे हैं. आधुनिकता की रफ्तार से कोसों दूर, इनका जीवन आज भी मुख्यतः जंगल और पारंपरिक खेती पर आधारित है. 

भोजन के लिए जंगल से महुआ, तेंदू, सालबीज, जंगली फल और कंद-मूल जुटाना इनकी दिनचर्या का हिस्सा है. इसके अलावा कभी-कभी मछली पकड़ना या छोटे जानवरों का शिकार करना भी ज़रूरी होता है. 

खेती इनके जीवन में है, लेकिन उत्पादन बेहद मामूली होता है. यहां की कृषि पद्धति आज भी पूरी तरह बरसात पर निर्भर है, जहां न सिंचाई की सुविधा है, न ही आधुनिक बीज या खाद उपलब्ध हैं. 

यहां ज़मीन भी उबड़-खाबड़ है, जिससे मक्का, कोदो, कुटकी जैसी पारंपरिक फसलें तो होती हैं. खेती में उत्पादन बहुत ही मामूली होता है. इन सबके बीच अबूझमाड़ की महिलाएं सबसे अधिक मेहनत करती हैं—सुबह से शाम तक जंगल से लकड़ी और खान जुटाना महिलाओं के ही हिस्से में आता है. 

आदिवासी महिलाएं कई किलोमीटर दूर जाकर पानी भर कर लाती हैं. इसके आलावा धान, कोदो-कुटकी मूसल से कूट कर परिवार के लिए खाना तैयार करने में उनका पूरा पूरा दिन निकल जाता है.

यह श्रम कभी भी सम्मान या सहूलियत में नहीं बदलता. शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण और आधारभूत सुविधाओं की भारी कमी के चलते अबूझमाड़ की महिलाएं  आज भी अत्यधिक कुपोषण से जूझ रही हैं. 

कुपोषण की शिकार सबसे पहले महिलाएं और बच्चे ही होते हैं, जिनकी स्थिति कई बार जानलेवा हो जाती है.

अबूझमाड़ जैसे इलाकों की स्थिति यह सवाल उठाती है कि क्या देश की विकास योजनाओं में इन जंगलों की आवाज़ शामिल है? जब तक जंगल और उसमें रहने वालों को नीति निर्माण की प्रक्रिया में वास्तविक भागीदारी नहीं दी जाएगी, तब तक ‘विकास’ का दावा अधूरा ही रहेगा.

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