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‘ग्रेटर टिपरालैंड’: 2023 में त्रिपुरा विधानसभा चुनाव के मुद्दे का संक्षिप्त इतिहास

'ग्रेटर टिपरालैंड' त्रिपुरा के विधानसभा चुनाव का एक ऐसा मुद्दा है जिसे बीजेपी, कांग्रेस और सीपीआई(एम) जैसे दल पकड़ नहीं सकते और टिपरा मोथा इस मुद्दे को कम से कम अभी तो छोड़ नहीं सकता है. यह मुद्दा त्रिपुरा की राजनीति को पलट देने की ताक़त रखता है.

आगामी त्रिपुरा विधानसभा चुनाव में “ग्रेटर टिपरालैंड” का मुद्दा हावी है. इस मुद्दे के बारे में कहा जा सकता है कि यह राज्य के चुनावी समीकरण को बदल सकता है.

टिपरा मोथा (Tipra Motha) त्रिपुरा के शाही परिवार के वंशज प्रद्योत माणिक्य देबबर्मा के नेतृत्व वाली पार्टी ने राज्य के ट्राइबल समुदायों के बीच उन्हें एक नये राज्य का वादा करके अहम दाव खेला है.

वहीं राज्य और केंद्र की सत्ताधारी बीजेपी सरकार इस मुद्दे का सावधानीपूर्वक हल निकालने की कोशिश कर रही है. चुनाव से पहले गृह मंत्री ने ग्रेटर टिपरालैंड की मांग पर बातचीत के लिए टिपरा मोथा को आमंत्रित किया.

बुधवार को प्रद्योत के नेतृत्व में टिपरा मोथा प्रतिनिधिमंडल ने नई दिल्ली में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के साथ बातचीत शुरू की थी.

पिछले हफ्ते बीजेपी ने असम के मुख्यमंत्री और पूर्वोत्तर में पार्टी के संकटमोचक हिमंत बिस्वा सरमा को प्रद्योत के साथ बातचीत करने के लिए नियुक्त किया था.

लेकिन प्रद्योत देबबर्मा ने स्पष्ट कर दिया है कि वो अपनी ‘ग्रेटर टिप्रालैंड’ यानि अलग राज्य की मांग पर लिखित समझौते के बिना किसी भी राजनीतिक दल के साथ गठबंधन में शामिल नहीं होंगे. इस मामले में अब ऐसा लगता है कि यह बातचीत कामयाब नहीं हो पाई है.

टिपरामोथा के नेता माणिक्य देबबर्मा ने आज यह संकेत दिये हैं कि उनका दल अब अकेले ही राज्य के चुनाव मैदान में उतरेगा. आज शाम को उनकी पार्टी उम्मीदवारों के नाम की घोषणा भी कर सकती है.

त्रिपुरा में क्यों अहम है टिपरा मोथा

त्रिपुरा जैसे राज्य में, जहां 60 में से 20 विधानसभा सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं, वहां टिपरा मोथा इन चुनावों में एक बड़ी ताकत बनकर उभर सकती है. मोथा बीजेपी के सहयोगी इंडीजेनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (IPFT) के साथ विलय की बातचीत भी शुरू कर रही है. 

एक्सपर्ट्स का मानना है कि त्रिपुरा में सरकार बनाने की इच्छा रखने वाली किसी भी पार्टी को टिपरा मोथा को साथ लेकर चलना ही फायेदमंद होगा. 2018 विधानसभा चुनाव में आरक्षित 20 में से आठ सीटों पर आईपीएफटी 10 सीटों पर बीजेपी और दो सीटों पर सीपीआई (एम) का कब्जा था.

वहीं टिपरा मोथा ने पिछले साल अप्रैल में हुए त्रिपुरा जनजातीय क्षेत्र स्वायत्त जिला परिषद (TTAADC) के चुनावों में सत्ताधारी बीजेपी-आईपीएफटी के गठबंधन के साथ सीधे मुकाबले में ‘ग्रेटर टिपरालैंड’ की मांग पर 28 में से 18 सीटों पर जीत हासिल की थी.

‘ग्रेटर टिप्रालैंड’ की मांग क्या है?

प्रद्योत के अनुसार, ‘ग्रेटर टिप्रालैंड’ मौजूदा राज्य त्रिपुरा से बना एक अलग राज्य होगा, जो क्षेत्रफल के मामले में भारत का तीसरा सबसे छोटा राज्य होगा. नए राज्य का गठन मुख्य रूप से उस क्षेत्र के जनजातीय समुदायों के लिए होगी जो विभाजन के दौरान पूर्वी बंगाल से विस्थापित बंगालियों की आमद के कारण संख्या में अल्पसंख्यक हो गए हैं.

1971 में बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान बंगाली प्रवासियों की एक और लहर ने त्रिपुरा में शरण ली. 2011 की भाषा जनगणना के अनुसार बंगाली त्रिपुरा में 24.14 लाख लोगों की मातृभाषा थी. यह 36.74 लाख आबादी के दो-तिहाई और 8.87 लाख के लगभग तीन गुना का प्रतिनिधित्व करता है, जो कोकबोरोक बोलते हैं, जो तिब्बती-बर्मन परिवार की भाषा और सबसे बड़े आदिवासी समूह की मातृभाषा है.

प्रद्योत कहते हैं कि ‘ग्रेटर टिप्रालैंड’ आदिवासियों के अधिकारों और संस्कृति की रक्षा में मदद करेगा. उन्होंने आदिवासियों के लिए भूमि सुधार का भी वादा किया है. वह चाहते हैं कि उनकी मांग भारत के संविधान के अनुच्छेद 2 और 3 के तहत पूरी की जाए, जो धाराएं नए राज्यों के गठन से संबंधित हैं.

क्या यह माँग संविधान के दायरे में है

1992 में गठित नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (NLFT) और 1990 में स्थापित ऑल त्रिपुरा ट्राइबल फोर्स (ATTF) जैसे सशस्त्र विद्रोही समूहों ने एक अलग राज्य के बजाय भारत से अलगाव की मांग की. 1980 के दशक में सक्रिय उग्रवादी समूह त्रिपुरा नेशनल वालंटियर्स (TNV) ने राजीव गांधी के शासनकाल के दौरान केंद्र के साथ एक शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए. 

वहीं NLFT और ATTF अलग हुए समूहों के रूप में उभरे. उन्होंने राज्य में आतंक का राज कायम कर दिया. दक्षिण एशिया आतंकवाद पोर्टल के अनुसार, 1992 और 2012 के बीच 2509 नागरिक, 455 सुरक्षाकर्मी और 519 विद्रोही मारे गए.

इन संगठनों के रंगरूट त्रिपुरा के गरीबी से जूझ रहे पहाड़ी इलाकों से बड़े पैमाने पर आदिवासी युवाओं का अपनी ओर खींच रहे थे. आज तक ये क्षेत्र सामाजिक-आर्थिक मापदंडों में पिछड़ रहे हैं. 1996 में जब शेख हसीना के नेतृत्व वाली अवामी लीग बांग्लादेश में सत्ता में आई तो राज्य सरकार और केंद्र ने विद्रोहियों के सीमा-पार बुनियादी ढांचे को नष्ट करने के लिए पड़ोसी देश के साथ मिलकर काम करना शुरू कर दिया.

क्या टिपरा मोथा संवैधानिक मानकों के तहत अलग राज्य की मांग उठाने वाली पहली पार्टी है?

टिपरा मोथा ऐसा दल नहीं है जिसने पहली बार संविधान के दायरे में एक अलग राज्य की माँग की है. 2000 में बने इंडिजिनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (IPFT) ने सबसे पहले यह मांग उठाई थी. दो साल बाद आईपीएफटी का त्रिपुरा उपजाति जुबा समिति (TUJS) नामक एक अन्य संगठन के साथ विलय हो गया, जिससे पूर्व अलगाववादी नेता बिजॉय कुमार हरंगख्वाल के नेतृत्व में इंडीजेनस नेशनलिस्ट पार्टी ऑफ ट्विप्रा (INPT) का जन्म हुआ.

IPFT को 2009 में एनसी देबबर्मा के नेतृत्व में पुनर्जीवित किया गया था, जो बाद में 1 जनवरी, 2022 को अपनी मृत्यु तक बीजेपी-IPFT गठबंधन सरकार में मंत्री के रूप में काम करते रहे. 2021 में त्रिपुरा जनजातीय क्षेत्र स्वायत्त जिला परिषद (TTAADC) के चुनावों में IPFT के प्रभाव में कमी आने के साथ और वहीं 28 में से 18 सीटें जीतने के बाद टिपरा मोथा ने एक बार फिर ग्रेटर टिपरालैंड की मांग को सामने ला दिया है.

IPFT वर्तमान में टिपरा मोथा के साथ विलय के लिए प्रद्योत के साथ बातचीत कर रहा है. 2021 से आईपीएफटी के तीन विधायक और एक भाजपा विधायक टिपरा मोथा में शामिल हुए हैं.

प्रद्योत किशोर माणिक्य के परिवार का राजनीतिक इतिहास

त्रिपुरा की रियासत पर माणिक्य वंश का शासन था, जो 13वीं शताब्दी के अंत से 15 अक्टूबर, 1949 को भारत सरकार के साथ विलय के साधन पर हस्ताक्षर करने तक त्रिपुरी या तिप्रसा समुदाय से संबंधित था. उस समय प्रद्योत के पिता किरीट बिक्रम माणिक्य के पास त्रिपुरा का शासन था, जो कि नाबालिग थे.

बाद में किरीट बिक्रम और उनकी पत्नी बिभू कुमारी देवी दोनों कांग्रेस से लोकसभा सांसद चुने गए. सितंबर 2019 में इस्तीफा देने से पहले प्रद्योत खुद कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में काम कर चुके हैं. उनकी बहन प्रज्ञा देबबर्मन ने भी कांग्रेस के टिकट पर 2019 का लोकसभा चुनाव लड़ा था.

ग्रेटर टिपरालैंड की माँग के राजनीतिक प्रभाव क्या हैं?

टिपरा मोथा का बीजेपी या सीपीआई(एम)-कांग्रेस गठबंधन के साथ कोई प्री-पोल समझौता नहीं हुआ है और इस बार त्रिपुरा में चुनाव त्रिकोणीय होना तय है. 2018 में भाजपा ने 43.5 प्रतिशत के वोट शेयर के साथ 36 सीटें जीतीं, उसके बाद सीपीआई (एम) को 42.2 प्रतिशत वोट शेयर के साथ 16 सीटें मिलीं, जबकि आईपीएफटी ने आठ सीटें और 7.5 प्रतिशत वोट शेयर हासिल किया था.

2023 तक आईपीएफटी कमजोर हो गया है, बीजेपी को मजबूत विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है, जबकि सीपीआई(एम) और कांग्रेस एक ऐसे गठबंधन में हैं जो अतीत में अकल्पनीय था. वहीं टिपरा मोथा के लगातार उदय और इसके गठबंधन प्रस्तावों को अस्वीकार करने से अब तक सभी प्रमुख राजनीतिक खिलाड़ी असमंजस में हैं. 

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