मेघालय की हरी-भरी पहाड़ियों में जयंतिया जनजाति के बीच एक ऐसा नाम लिया जाता है जो केवल इतिहास का हिस्सा नहीं बल्कि जनजातीय स्वाभिमान का प्रतीक है. ये नाम है यू किआंग नोंगबाह का.
यू किआंग नोंगबाह का जन्म एक ऐसे समय में हुआ था जब ब्रिटिश शासन उत्तर-पूर्व भारत में अपने पैर पसार रहा था. हालांकि उनके जन्म की सटीक तिथि इतिहास में दर्ज नहीं है, लेकिन उनका जीवन काल उन्नीसवीं सदी के मध्य का माना जाता है.
उनका जन्म मेघालय राज्य के जयंतिया हिल्स ज़िले के जोवाई गांव में हुआ था. उनके पिता का नाम ऊ फेट था.
वे साहस, आत्मसम्मान और संस्कृति के लिए जानी जाने वाली जयंतिया जनजाति से संबंध रखते थे.
यू किआंग नोंगबाह का पालन-पोषण प्राकृतिक वातावरण और जनजातीय परंपराओं के बीच हुआ.
बचपन से ही उन्होंने अपने समाज के दुख-दर्द को बहुत करीब से महसूस किया.
वे गीतों, कहानियों और लोक परंपराओं से गहराई से जुड़े हुए थे और यही माध्यम उन्हें लोगों के दिलों तक पहुँचने का रास्ता देते थे.
उनके व्यक्तित्व में शुरू से ही नेतृत्व की वो चमक थी जो एक योद्धा में होती है.
अंग्रेजों की नीति और जनजातीय असंतोष
जब 1835 में अंग्रेज़ों ने जयंतिया हिल्स पर कब्ज़ा किया तो वहां के आदिवासी लोगों की राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक स्वतंत्रता छिन गई.
अंग्रेज़ो ने उस समय के जयंतियपुर क्षेत्र को पहाड़ी और मैदानी क्षेत्रों को अलग-अलग कर दिया. यानी ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति लागू की गई.
स्थानीय राजाओं को बेदखल कर दिया गया और जनजातीय समुदाय पर कर और जबरन श्रम का बोझ लाद दिया गया.
इस अन्याय ने जनजातीय समाज में असंतोष की चिंगारी जगाई.
यू किआंग नोंगबाह ने इसे केवल सत्ता का नहीं बल्कि पहचान का संघर्ष माना.
संगठित विद्रोह का आह्वान
यू किआंग नोंगबाह ने जनजातीय युवाओं को जोड़ा, लोकगीतों और कथाओं के ज़रिये लोगों में चेतना फैलाई.
उनका उद्देश्य ब्रिटिश सत्ता को यह दिखाना था कि जयंतिया समुदाय अपने अस्तित्व के लिए लड़ना जानता है.
उन्होंने गुरिल्ला युद्ध शैली अपनाई और अंग्रेजों की सैन्य छावनियों पर हमले किए.
उनका यह संघर्ष लगातार बीस महीनों तक चला. वे बार-बार अपने साथियों के साथ जंगलों में छिपकर हमला करते रहे.
धोखे से गिरफ्तारी और बलिदान
ब्रिटिश सेना उन्हें पकड़ नहीं पा रही थी. आखिर में जब किसी तरह अंग्रेज़ों की दाल नहीं गली तो उन्होंने नोंगबा के एक करीबी उदोलोई को लालच देकर विश्वासघात कराया.
ऊ कियांग नोंगबा घायल अवस्था में पकड़े गए और जोवाई में बंदी बना लिए गए.
30 दिसंबर 1862 को उन्हें पश्चिम जयंतिया हिल्स जिले के लाय्पुंगलांग में सार्वजनिक रूप से फांसी दे दी गई और इस तरह उनका यह बलिदान, जनजातीय इतिहास में साहस और आत्मबलिदान की अमिट मिसाल बन गया.
स्मृति और प्रेरणा
आज मेघालय में उनके नाम पर एक सरकारी कॉलेज भी है.
राज्य सरकार ने उन्हें आधिकारिक रूप से “प्रथम जनजातीय स्वतंत्रता सेनानी” के रूप में मान्यता दी है.
उनका जीवन प्रमाण है कि जब बात धरती, संस्कृति और स्वाभिमान की हो तो जनजातीय समाज कभी झुकता नहीं.