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देश के टॉप 5 IIT में 98% फेकल्टी उच्च जाति के हैं, इनमें आरक्षण लागू नहीं किया गया है- रिपोर्ट

विभिन्न श्रेणियों के बीच की खाई को स्वीकार करते हुए गणितज्ञ और मुंबई में आईआईटी बॉम्बे में फेकल्टी मामलों की डीन, नीला नटराज को यह कहते हुए उद्धृत किया गया था कि “भेदभाव के साथ कम प्रतिनिधित्व की तुलना करना गलत है. कोई भेदभाव नहीं है.”

एक प्रमुख विज्ञान पत्रिका नेचर में पत्रकार अंकुर पालीवाल के एक लेख के मुताबिक, भारत में साइंस स्ट्रीम में जेनरल कैटेगरी की जातियों का वर्चस्व कायम है. इस रिपोर्ट से पता चलता है कि भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IITs) और भारतीय विज्ञान संस्थान (IISc) सहित सभी एलीट संस्थानों में आदिवासी और दलित समुदायों के छात्रों और प्रोफेसरों का प्रतिनिधित्व बहुत कम है.

रिपोर्ट के मुताबिक, आरटीआई और अन्य आधिकारिक स्रोतों के माध्यम से इकट्ठे किए गए आंकड़े बताते हैं कि फेकल्टी के पदों के लिए आरक्षण- अनुसूचित जनजातियों के लिए 7.5 प्रतिशत और दलितों के लिए 15 प्रतिशत इन प्रतिष्ठित संस्थानों में नहीं भरे जा रहे हैं. यह विभिन्न देशों में विज्ञान में जातीय या नस्लीय विविधता पर डेटा की जांच करने वाली सतत श्रृंखला का एक हिस्सा है.

रिपोर्ट से यह भी पता चला है कि आदिवासियों और दलितों का ग्रैजुएशन लेवल से ही विज्ञान पाठ्यक्रमों में कम प्रतिनिधित्व है. अंडरग्रेजुएट्स में आदिवासी एसटीईएम (साइंस, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग और मैथ्स) कक्षाओं में 5 प्रतिशत से भी कम हैं. इसी तरह दलितों का प्रतिनिधित्व भी कम ही है.

कुल मिलाकर, आर्ट्स स्ट्रीम में इनका प्रतिनिधित्व सबसे ज्यादा है. सोनाझरिया मिंज, जो एक कंप्यूटर वैज्ञानिक और सिदो कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय दुमका में कुलपति हैं, उन्होंने बताया कि ऐसा इसलिए नहीं है कि आर्ट्स के कोर्सेज अधिक लोकप्रिय हैं बल्कि इसलिए कि विज्ञान में विशेषज्ञता वाले शिक्षक और संरक्षक इन छात्रों, विशेष रूप से आदिवासियों के ग्रामीण उच्च विद्यालयों में दुर्लभ हैं.

ऐसी स्थिति मास्टर्स लेवल के एसटीईएम पाठ्यक्रमों में भी दिखाई देती है, जहां अधिकांश संस्थान अपनी अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति सीटें नहीं भर रही हैं.

खासकर अधिक प्रतिष्ठित संस्थानों में इन समुदायों का प्रतिनिधित्व पीएचडी स्तर पर और भी कम हो जाता है. 2020 में पांच हाई रैंकिंग वाले आईआईटी- दिल्ली, बॉम्बे, मद्रास, कानपुर, और खड़गपुर में पीएचडी कार्यक्रमों के डेटा दलितों के लिए औसतन 10 प्रतिशत और आदिवासियों के लिए 2 प्रतिशत दर्शाता है.

यह पांच मिड-रैंकिंग आईआईटी- धनबाद, पटना, गुवाहाटी, रोपड़ और गोवा के औसत से थोड़े कम है.

रिपोर्ट के मुताबिक, शीर्ष पांच आईआईटी में अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के पीएचडी छात्रों और फैकल्टी सदस्यों की संख्या भी आरक्षण नीतियों द्वारा अनिवार्य स्तरों से नीचे हैं.

भारत के शीर्ष क्रम के विश्वविद्यालय, बेंगलुरु में भारतीय विज्ञान संस्थान (IISc) का प्रदर्शन भी खराब है.

रिपोर्ट में उद्धृत शोधकर्ताओं ने आरक्षण नीतियों का पालन नहीं करने के लिए संस्थानों के प्रमुखों को दोषी ठहराया और सरकार ने उन्हें हुक से बाहर कर दिया.

फेकल्टी में प्रतिनिधित्व

रिपोर्ट के मुताबिक शीर्ष पांच आईआईटी और आईआईएससी में 98 फीसदी प्रोफेसर और 90 फीसदी से ज्यादा असिस्टेंट या एसोसिएट प्रोफेसर विशेष अधिकार प्राप्त जातियों से हैं.

टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (TIFR), जिसे ‘उत्कृष्टता का संस्थान’ नामित किया गया है, जो आरक्षण नीतियों का पालन करने से मुक्त है, वहां भी सभी प्रोफेसर विशेषाधिकार प्राप्त जातियों से हैं.

इस बीच, 2016 और 2020 के बीच विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के इंस्पायर फैकल्टी फैलोशिप के आंकड़ों से पता चलता है कि 80 प्रतिशत प्राप्तकर्ता विशेषाधिकार प्राप्त जातियों से थे, जबकि सिर्फ 6 प्रतिशत अनुसूचित जाति से और 1 प्रतिशत से कम अनुसूचित जनजाति से थे.

विभिन्न श्रेणियों के बीच की खाई को स्वीकार करते हुए गणितज्ञ और मुंबई में आईआईटी बॉम्बे में फेकल्टी मामलों की डीन, नीला नटराज को यह कहते हुए उद्धृत किया गया था कि “भेदभाव के साथ कम प्रतिनिधित्व की तुलना करना गलत है. कोई भेदभाव नहीं है.”

उन्होंने कहा कि संस्थान भर्ती के माध्यम से प्रतिनिधित्व में सुधार करने की कोशिश कर रहा था और पीएचडी शुरू करने के लिए कम प्रतिनिधित्व वाले समुदायों के अधिक छात्रों को प्रोत्साहित कर रहा था.

दूसरी ओर वाराणसी में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में पर्यावरण विज्ञान के सहायक प्रोफेसर कृपा राम ने आरोप लगाया कि फेकल्टी सदस्यों के जातिगत पूर्वाग्रह भेदभाव में भूमिका निभाते हैं. कृपा राम जो एक ओबीसी समुदाय से हैं, उन्होंने कहा कि जब हाशिये पर रहने वाले समुदायों के छात्र पीएचडी शुरू करते हैं तब भी जेनरल कैटेगरी के प्रोफेसरों द्वारा उनकी देखरेख नहीं करना “काफी आम” है.

लेख में शोधकर्ताओं ने इस मुद्दे से निपटने के लिए कुछ उपायों का प्रस्ताव दिया, जिसमें संस्थागत प्रमुखों के लिए उच्च स्तर की जवाबदेही, विविधता डेटा का सार्वजनिक खुलासा, और स्कूल स्तर से समर्थन प्रणाली शामिल हैं.

ये तो बात रही देश के शीर्ष पांच आईआईटी में अनुसूचित जनजाति के लोगों के सबसे कम प्रतिनिधित्व की.. इसके अलावा, हाल ही में संसद में केंद्रीय शिक्षा मंत्री ने बताया था कि शीर्ष आईआईटी और केंद्रीय विश्वविद्यालयों में आरक्षित श्रेणी के पदों पर फेकल्टी नियुक्त करने के लिए चले एक साल लंबे मिशन मोड भर्ती अभियान के बावजूद सिर्फ 30 फीसदी से अधिक रिक्तियां भरी जा सकी.

दरअसल, 5 सितंबर 2021 से 5 सितंबर 2022 के बीच एक साल में देशभर के 23 आईआईटी और 45 केंद्रीय विश्वविद्यालयों को अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षित शिक्षण संबंधी पदों पर रिक्तियों को भरने के लिए एक मिशन मोड भर्ती करने के निर्देश दिया गया था.

इस अवधि के दौरान 1439 रिक्तियों की पहचान की गई, जिनमें से सिर्फ 449 भर्तियां की गईं. वहीं 45 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में से 33 ने इन श्रेणियों में कुल 1,097 रिक्तियों की पहचान की थी, जिनमें से सिर्फ 212 भरी गई थीं.

आंकड़ों से यह भी पता चला कि इन 33 विश्वविद्यालयों में से 18 ने रिक्तियां चिह्नित करने के बावजूद अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति/अन्य पिछड़ा वर्ग के फैकल्टी सदस्यों की भर्ती नहीं की गई थी.

बारह केंद्रीय विश्वविद्यालयों ने इस अभियान के दौरान लगभग कोई भर्ती नहीं की. उनका कहना था कि उनके पास कोई बैकलॉग नहीं था और वे इन श्रेणियों में किसी भी रिक्त पद की पहचान नहीं कर सके.

जबकि इस साल सितंबर तक संसद में पेश किए गए आंकड़ों से पता चलता है कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों में पढ़ाने वाली फैकल्टी के लिए एससी/एसटी/ओबीसी श्रेणियों में 920 से अधिक पदों का संयुक्त बैकलॉग था.

वहीं आईआईटी में अगर किसी तरह अनुसूचित जानजाति और अनुसूचित जाति के छात्र पहुंच जाते हैं तो सबसे ज्यादा ड्रॉपआउट इन्ही छात्रों का देखने को मिलता है. IIT में से ड्रॉपआउट होने वाले 60 प्रतिशत छात्र आदिवासी या दलित होते हैं.

नैशनल इंस्टीट्यूट रैंकिंग में पहले 10 स्थानों में खड़े सात आईआईटी से हुए ड्रॉपआउट के विश्लेषण से पता चलता है कि कुछ संस्थानों में असमानता ज़्यादा है.

दरअसल, आदिवासी और दलित कार्यकर्ता लंबे समय से कहते आए हैं कि इन समुदायों के छात्रों को उच्च शिक्षा संस्थानों में सामान्य से ज्यादा दबाव और भेदभाव का सामना करना पड़ता है. इसका एक बड़ा नतीजा होता है कि यह छात्र अपनी पढ़ाई छोड़ देते हैं. और यह बात पिछले साल संसद में केंद्र सरकार द्वारा भी मानी गई थी.

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